एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः ।
सोऽविकल्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः ॥ ७ ॥

शब्दार्थ

एताम् – इस सारे; विभूतिम् – ऐश्वर्य को; योगम् – योग को; – भी; मम – मेरा; यः – जो कोई; वेत्ति – जानता है; तत्त्वतः – सही-सही; सः – वह; अविकल्पेन – निश्चित रूप से; योग्येन – भक्ति से; युज्यते – लगा रहता है; – कभी नहीं; अत्र – यहाँ; संशयः – सन्देह, शंका ।

भावार्थ

जो मेरे इस ऐश्वर्य तथा योग से पूर्णतया आश्वस्त है, वह मेरी अनन्य भक्ति में तत्पर होता है । इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है ।

तात्पर्य

आध्यात्मिक सिद्धि की चरम परिणति है, भगवद्ज्ञान । जब तक कोई भगवान् के विभिन्न ऐश्वर्यों के प्रति आश्वस्त नहीं हो लेता, तब तक भक्ति में नहीं लग सकता । सामान्यतया लोग इतना तो जानते हैं कि ईश्वर महान है, किन्तु यह नहीं जानते कि वह किस प्रकार महान है । यहाँ पर उसका विस्तृत विवरण दिया गया है । जब कोई यह जान लेता है कि ईश्वर कैसे महान है, तो वह सहज ही शरणागत होकर भगवद्भक्ति में लग जाता है । भगवान् के ऐश्वर्यों को ठीक से समझ लेने पर शरणागत होने के अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प नहीं रह जाता । ऐसा वास्तविक ज्ञान भगवद्गीता, श्रीमद्भागवत तथा अन्य ऐसे ही ग्रंथों से प्राप्त किया जा सकता है ।

इस ब्रह्माण्ड के संचालन के लिए विभिन्न लोकों में अनेक देवता नियुक्त हैं, जिनमें से ब्रह्मा, शिव, चारों कुमार तथा अन्य प्रजापति प्रमुख हैं । ब्रह्माण्ड की प्रजा के अनेक पितामह भी हैं और वे सब भगवान् कृष्ण से उत्पन्न हैं । भगवान् कृष्ण समस्त पितामहों के आदि पितामह हैं ।

ये रहे परमेश्वर के कुछ ऐश्वर्य । जब मनुष्य को इन पर अटूट विश्वास हो जाता है, तो वह अत्यन्त श्रद्धा समेत तथा संशयरहित होकर कृष्ण को स्वीकार करता है और भक्ति करता है । भगवान् की प्रेमाभक्ति में रुचि बढ़ाने के लिए ही इस विशिष्ट ज्ञान की आवश्यकता है । कृष्ण की महानता को समझने में उपेक्षा भाव न बरते, क्योंकि कृष्ण की महानता को जानने पर ही एकनिष्ठ होकर भक्ति की जा सकती है ।