नभःस्पृशं दीप्तमनेकवर्णं
व्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम् ।
दृष्ट्वा हि त्वां प्रव्यथितान्तरात्मा
धृतिं न विन्दामि शमं च विष्णो ॥ २४ ॥

शब्दार्थ

नभः-स्पृशम् – आकाश छूता हुआ; दीप्तम् – ज्योर्तिमय; अनेक – कई; वर्णम् – रंग; व्याक्त – खुले हुए; आननम् – मुख; दीप्त – प्रदीप्त; विशाल – बड़ी-बड़ी; नेत्रम् – आँखें; दृष्ट्वा – देखकर; हि – निश्चय ही; त्वाम् – आपको; प्रव्यथितः – विचलित, भयभीत; अन्तः – भीतर; आत्मा – आत्मा; धृतिम् – दृढ़ता या धैर्य को; – नहीं; विन्दामि – प्राप्त हूँ; शमम् – मानसिक शान्ति को; – भी; विष्णो – हे विष्णु ।

भावार्थ

हे सर्वव्यापी विष्णु! नाना ज्योतिर्मय रंगों से युक्त आपको आकाश का स्पर्श करते, मुख फैलाये तथा बड़ी-बड़ी चमकती आँखें निकाले देखकर भय से मेरा मन विचलित है । मैं न तो धैर्य धारण कर पा रहा हूँ, न मानसिक संतुलन ही पा रहा हूँ ।