कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन्
गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे ।
अनन्त देवेश जगन्निवास
त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत् ॥ ३७ ॥

शब्दार्थ

कस्मात् – क्यों; – भी; ते – आपको; – नहीं; नमेरन् – नमस्कारकरें; महा-आत्मन् – हे महापुरुष; गरीयसे – श्रेष्ठतर लोग; ब्रह्मणः – ब्रह्मा कीअपेक्षा; अपि – यद्यपि; आदि-कर्त्रे – परम स्रष्टा को; अनन्त – हे अनन्त; देव-ईश – हे इशों के ईश; जगत्-निवास – हे जगत के आश्रय; त्वम् – आप हैं; अक्षरम् – अविनाशी; सत्-असत् – कार्य तथा कारण; तत्-परम् – दिव्य; यत् – क्योंकि ।

भावार्थ

हे महात्मा! आप ब्रह्मा से भी बढ़कर हैं, आप आदि स्त्रष्टा हैं । तो फिर वे आपको सादर नमस्कार क्यों न करें ? हे अनन्त, हे देवेश, हे जगन्निवास! आप परम स्रोत, अक्षर, कारणों के कारण तथा इस भौतिक जगत् से परे हैं ।

तात्पर्य

अर्जुन इस प्रकार नमस्कार करके यह सूचित करता है कि कृष्ण सबों के पूजनीय हैं । वे सर्वव्यापी हैं और प्रत्येक जीव की आत्मा हैं । अर्जुन कृष्ण को महात्मा कहकर सम्बोधित करता है, जिसका अर्थ है कि वे उदार तथा अनन्त हैं । अनन्त सूचित करता है कि ऐसा कुछ भी नहीं जो भगवान् की शक्ति और प्रभाव से आच्छादित न हो और देवेश का अर्थ है कि वे समस्त देवताओं के नियन्ता हैं और उन सबके ऊपर हैं । वे समग्र विश्व के आश्रय हैं । अर्जुन ने भी सोचा कि यह सर्वथा उपयुक्त है कि सारे सिद्ध तथा शक्तिशाली देवता भगवान् को नमस्कार करते हैं, क्योंकि उनसे बढ़कर कोई नहीं है । अर्जुन विशेष रूप से उल्लेख करता है कि कृष्ण ब्रह्मा से भी बढ़कर हैं, क्योंकि ब्रह्मा उन्हीं के द्वारा उत्पन्न हुए हैं । ब्रह्मा का जन्म कृष्ण के पूर्ण विस्तार गर्भोदकशायी विष्णु की नाभि से निकले कमलनाल से हुआ । अतः ब्रह्मा तथा ब्रह्मा से उत्पन्न शिव एवं अन्य सारे देवताओं को चाहिए कि उन्हें नमस्कार करें । श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि शिव, ब्रह्मा तथा इन जैसे अन्य देवता भगवान् का आदर करते हैं । अक्षरम् शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यह जगत् विनाशशील है, किन्तु भगवान् इस जगत् से परे हैं । वे समस्त कारणों के कारण हैं, अतएव वे इस भौतिक प्रकृति के तथा इस दृश्यजगत के समस्त बद्धजीवों से श्रेष्ठ हैं । इसलिए वे परमेश्वर हैं ।