नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया ।
शक्य एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा ॥ ५३ ॥

शब्दार्थ

- कभी नहीं; अहम् - मैं; वेदैः - वेदाध्ययन से; - कभी नहीं; तपसा - कठिन तपस्या द्वारा; - कभी नहीं; दानेन - दान से; - भी; इज्यया - पूजा से; शक्यः - संभव है; एवम् -विधः - इस प्रकार से; द्रष्टुम् - देख पाना; दृष्टवान् - देख रहे; असि - तुम हो; माम् - मुझको; यथा - जिस प्रकार ।

भावार्थ

तुम अपने दिव्य नेत्रों से जिस रूप का दर्शन कर रहे हो, उसे न तो वेदाध्ययन से, न कठिन तपस्या से, न दान से, न पूजा से ही जाना जा सकता है । कोई इन साधनों के द्वारा मुझे मेरे रूप में नहीं देख सकता ।

तात्पर्य

कृष्ण पहले अपनी माता देवकी तथा पिता वसुदेव के समक्ष चतुर्भुज रूप में प्रकट हुए थे और तब उन्होंने अपना द्विभुज रूप धारण किया था । जो लोग नास्तिक हैं, या भक्तिविहीन हैं, उनके लिए इस रहस्य को समझ पाना अत्यन्त कठिन है । जिन विद्वानों ने केवल व्याकरण विधि से या कोरी शैक्षिक योग्यताओं के आधार पर वैदिक साहित्य का अध्ययन किया है, वे कृष्ण को नहीं समझ सकते । न ही वे लोग कृष्ण को समझ सकेंगे, जो औपचारिक पूजा करने के लिए मन्दिर जाते हैं । वे भले ही वहाँ जाते रहें, वे कृष्ण के असली रूप को नहीं समझ सकेंगे । कृष्ण को तो केवल भक्तिमार्ग से समझा जा सकता है, जैसा कि कृष्ण ने स्वयं अगले श्लोक में बताया है ।