ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते ।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम् ॥ ३ ॥
सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः ।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः ॥ ४ ॥

शब्दार्थ

ये - जो; तु - लेकिन; अक्षरम् - इन्द्रिय अनुभूति से परे; अनिर्देश्यम् - अनिश्चित; अव्यक्तम् - अप्रकट; पर्युपासते - पूजा करने में पूर्णतया संलग्न; सर्वत्र-गम् - सर्वव्यापी; अचिन्त्यन् - अकल्पनीय; - भी; कूट-स्थम् - अपरिवर्तित; अचलम् - स्थिर; ध्रुवम् - निश्चित; सन्नियम्य - वश में करके; इन्द्रिय-ग्रामम् - सारी इन्द्रियों को; सर्वत्र - सभी स्थानों में; सम-बुद्धयः - समदर्शी; ते - ये; प्राप्नुवन्ति - प्राप्त करते हैं; माम् - मुझको; एव - निश्चय ही; सर्व-भूत-हिते - समस्त जीवों के कल्याण के लिए; रताः - संलग्न ।

भावार्थ

लेकिन जो लोग अपनी इन्द्रियों को वश में करके तथा सबों के प्रति समभाव रखकर परम सत्य की निराकार कल्पना के अन्तर्गत उस अव्यक्त की पूरी तरह से पूजा करते हैं, जो इन्द्रियों की अनुभूति के परे है, सर्वव्यापी है, अकल्पनीय है, अपरिवर्तनीय है, अचल तथा ध्रुव है, वे समस्त लोगों के कल्याण में संलग्न रहकर अन्ततः मुझे प्राप्त करते है ।

तात्पर्य

जो लोग भगवान् कृष्ण की प्रत्यक्ष पूजा न करके, अप्रत्यक्ष विधि से उसी उद्देश्य को प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं, वे भी अन्ततः श्रीकृष्ण को प्राप्त होते हैं । “अनेक जन्मों के बाद बुद्धिमान व्यक्ति वासुदेव को ही सब कुछ जानते हुए मेरी शरण में आता है ।” जब मनुष्य को अनेक जन्मों के बाद पूर्ण ज्ञान होता है, तो वह कृष्ण की शरण ग्रहण करता है । यदि कोई इस श्लोक में बताई गई विधि से भगवान् के पास पहुँचता है, तो उसे इन्द्रियनिग्रह करना होता है, प्रत्येक प्राणी की सेवा करनी होती है, और समस्त जीवों के कल्याण-कार्य में रत होना होता है । इसका अर्थ यह हुआ कि मनुष्य को भगवान् कृष्ण के पास पहुँचना ही होता है, अन्यथा पूर्ण साक्षात्कार नहीं हो पाता । प्रायः भगवान् की शरण में जाने के पूर्व पर्याप्त तपस्या करनी होती है ।

आत्मा के भीतर परमात्मा का दर्शन करने के लिए मनुष्य को देखना, सुनना, स्वाद लेना, कार्य करना आदि ऐन्द्रिय कार्यों को बन्द करना होता है । तभी वह यह जान पाता है कि परमात्मा सर्वत्र विद्यमान है । ऐसी अनुभूति होने पर वह किसी जीव से ईर्ष्या नहीं करता - उसे मनुष्य तथा पशु में कोई अन्तर नहीं दिखता, क्योंकि वह केवल आत्मा का दर्शन करता है, बाह्य आवरण का नहीं । लेकिन सामान्य व्यक्ति के लिए निराकार अनुभूति की यह विधि अत्यन्त कठिन सिद्ध होती है ।