मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय ।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः ॥ ८ ॥

शब्दार्थ

मयि - मुझमें; एव - निश्चय ही; मनः - मन को; आधत्स्व - स्थिर करो; मयि - मुझमें; बुद्धिम् - बुद्धि को; निवेश्य - लगाओ; निवसिष्यसि - तुम निवास करोगे; मयि - मुझमें; एव - निश्चय ही; अतः-अर्ध्वम् - तत्पश्चात्; - कभी नहीं; संशयः - सन्देह ।

भावार्थ

मुझ भगवान् में अपने चित्त को स्थिर करो और अपनी सारी बुद्धि मुझमें लगाओ । इस प्रकार तुम निस्सन्देह मुझमें सदैव वास करोगे ।

तात्पर्य

जो भगवान् कृष्ण की भक्ति में रत रहता है, उसका परमेश्वर के साथ प्रत्यक्ष सम्बन्ध होता है । अतएव इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं कि प्रारम्भ से ही उसकी स्थिति दिव्य होती है । भक्त कभी भौतिक धरातल पर नहीं रहता - वह सदैव कृष्ण में वास करता है । भगवान् का पवित्र नाम तथा भगवान् अभिन्न हैं । अतः जब भक्त हरे कृष्ण कीर्तन करता है, तो कृष्ण तथा उनकी अन्तरंगाशक्ति भक्त की जिह्वा पर नाचते रहते हैं । जब वह कृष्ण को भोग चढ़ाता है, तो कृष्ण प्रत्यक्ष रूप से उसे ग्रहण करते हैं और इस तरह भक्त इस उच्छिष्ट (जूठन) को खाकर कृष्णमय हो जाता है । जो इस प्रकार सेवा में नहीं लगता, वह नहीं समझ पाता कि यह सब कैसे होता है, यद्यपि भगवद्गीता तथा अन्य वैदिक ग्रंथों में इसी विधि की संस्तुति की गई है ।