सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् ।
सर्वतःश्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥ १४ ॥

शब्दार्थ

सर्वतः - सर्वत्र; पाणि - हाथ; पादम् - पैर; तत् - वह; सर्वतः - सर्वत्र; अक्षि - आँखें; शिरः - सर; मुखम् - मुँह; सर्वतः - सर्वत्र; श्रुति-मत् - कानों से युक्त; लोके - संसार में; सर्वम् - हर वस्तु; आवृत्य - व्याप्त करके; तिष्ठति - आवस्थित है ।

भावार्थ

उनके हाथ, पाँव, आखें, सिर तथा मुँह तथा उनके कान सर्वत्र हैं । इस प्रकार परमात्मा सभी वस्तुओं में व्याप्त होकर अवस्थित है ।

तात्पर्य

जिस प्रकार सूर्य अपनी अनन्त रश्मियों को विकीर्ण करके स्थित है, उसी प्रकार परमात्मा या भगवान् भी हैं । वे अपने सर्वव्यापी रूप में स्थित रहते हैं, और उनमें आदि शिक्षक ब्रह्मा से लेकर छोटी सी चींटी तक के सारे जीव स्थित हैं । उनके अनन्त शिर, हाथ, पाँव तथा नेत्र हैं, और अनन्त जीव हैं । ये सभी परमात्मा में ही स्थित हैं । अतएव परमात्मा सर्वव्यापक है । लेकिन आत्मा यह नहीं कह सकता कि उसके हाथ, पाँव तथा नेत्र चारों दिशाओं में हैं । यह सम्भव नहीं है । यदि वह अज्ञान के कारण यह सोचता है कि उसे इसका ज्ञान नहीं है कि उसके हाथ तथा पैर चतुर्दिक प्रसरित हैं, किन्तु समुचित ज्ञान होने पर वह ऐसी स्थिति में आ जायेगा तो उसका ऐसा सोचना उल्टा है । इसका अर्थ यही होता है कि प्रकृति द्वारा बद्ध होने के कारण आत्मा परम नहीं है । परमात्मा आत्मा से भिन्न है । परमात्मा अपना हाथ असीम दूरी तक फैला सकता है, किन्तु आत्मा ऐसा नहीं कर सकता । भगवद्गीता में भगवान् कहते हैं कि यदि कोई उन्हें पत्र, पुष्प या जल अर्पित करता है, तो वे उसे स्वीकार करते हैं । यदि भगवान् दूर होते तो फिर इन वस्तुओं को वे कैसे स्वीकार कर पाते ? यही भगवान् की सर्वशक्तिमत्ता है । यद्यपि वे पृथ्वी से बहुत दूर अपने धाम में स्थित हैं, तो भी वे किसी के द्वारा अर्पित कोई भी वस्तु अपना हाथ फैला कर ग्रहण कर सकते हैं । यही उनकी शक्तिमत्ता है । ब्रह्मसंहिता में (५.३७) कहा गया है - गोलोक एव निवसत्यखिलात्मभूतः - यद्यपि वे अपने दिव्य लोक में लीला-रत रहते हैं, फिर भी वे सर्वव्यापी हैं । आत्मा ऐसा घोषित नहीं कर सकता कि वह सर्वव्याप्त है । अतएव इस श्लोक में आत्मा (जीव) नहीं, अपितु परमात्मा या भगवान् का वर्णन हुआ है ।