महाभूतान्यहङ्कारो बुद्धिरव्यक्तमेव च ।
इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः ॥ ६ ॥
इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं सङ्घातश्चेतना धृतिः ।
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम् ॥ ७ ॥

शब्दार्थ

महा-भूतानि - स्थूल तत्त्व; अहङकार - मिथ्या अभिमान; बुद्धिः - बुद्धि; अव्यक्तम् - अप्रकट; एव - निश्चय ही; - भी; इन्द्रियाणि - इन्द्रियाँ; दश-एकम् - ग्यारह; - भी; पञ्च - पाँच; - भी; इन्द्रिय-गो-चराः - इन्द्रियों के विषय; इच्छा - इच्छा; द्वेषः - घृणा; सुखम् - सुख; दुःखम् - दुख; सङघातः - समूह; चेतना - जीवन के लक्षण; धृतिः - धैर्य; एतत् - यह सारा; क्षेत्रम् - कर्मों का क्षेत्र; समासेन - संक्षेप में; स-विकारम् - अन्तः-क्रियाओं सहित; उदाहृतम् - उदाहरणस्वरूप कहा गया ।

भावार्थ

पंच महाभूत, अहंकार, बुद्धि, अव्यक्त (तीनों गुणों की अप्रकट अवस्था), दसों इन्द्रियाँ तथा मन, पाँच इन्द्रियविषय, इच्छा, द्वेष, सुख, दुख, संघात, जीवन के लक्षण तथा धैर्य - इन सब को संक्षेप में कर्म का क्षेत्र तथा उसकी अन्तःक्रियाएँ (विकार) कहा जाता है ।

तात्पर्य

महर्षियों, वैदिक सूक्तों (छान्दस) एवं वेदान्त-सूत्र (सूत्रों) के प्रामाणिक कथनों के आधार पर इस संसार के अवयवों को इस प्रकार से समझा जा सकता है । पहले तो पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश - ये पाँच महा-भूत हैं । फिर अहंकार, बुद्धि तथा तीनों गुणों की अव्यक्त अवस्था आती है । इसके पश्चात् पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं - नेत्र, कान, नाक, जीभ तथा त्वचा । फिर पाँच कर्मेन्द्रियाँ - वाणी, पाँव, हाथ, गुदा तथा लिंग - हैं । तब इन इन्द्रियों के ऊपर मन होता है जो भीतर रहने के कारण अन्तःइन्द्रिय कहा जा सकता है । इस प्रकार मन समेत कुल ग्यारह इन्द्रियाँ होती हैं । फिर इन इन्द्रियों के पाँच विषय हैं - गंध, स्वाद, रूप, स्पर्श तथा ध्वनि । इस तरह इन चौबीस तत्त्वों का समूह कार्यक्षेत्र कहलाता है । यदि कोई इन चौबीसों विषयों का विश्लेषण करे तो उसे कार्यक्षेत्र समझ में आ जाएगा । फिर इच्छा, द्वेष, सुख तथा दुःख नामक अन्तः-क्रियाएँ (विकार) हैं जो स्थूल देह के पाँच महाभूतों की अभिव्यक्तियाँ हैं । चेतना तथा धैर्य द्वारा प्रदर्शित जीवन के लक्षण सूक्ष्म शरीर अर्थात् मन, अहंकार तथा बुद्धि के प्राकट्य हैं । ये सूक्ष्म तत्त्व भी कर्मक्षेत्र में सम्मिलित रहते हैं ।

पंच महाभूत अहंकार की स्थूल अभिव्यक्ति हैं, जो अहंकार की मूल अवस्था को ही प्रदर्शित करती है, जिसे भौतिकवादी बोध या तामस बुद्धि कहा जाता है । यह और आगे प्रकृति के तीनों गुणों की अप्रकट अवस्था की सूचक है । प्रकृति के अव्यक्त गुणों को प्रधान कहा जाता है ।

जो व्यक्ति इन चौबीस तत्त्वों को, उनके विकारों समेत जानना चाहता है, उसे विस्तार से दर्शन का अध्ययन करना चाहिए । भगवद्गीता में केवल सारांश दिया गया है ।

शरीर इन समस्त तत्त्वों की अभिव्यक्ति है । शरीर में छह प्रकार के परिवर्तन होते हैं - यह उत्पन्न होता है, बढ़ता है, टिकता है, सन्तान उत्पन्न करता है और तब यह क्षीण होता है और अन्त में समाप्त हो जाता है । अतएव क्षेत्र अस्थायी भौतिक वस्तु है लेकिन क्षेत्र का ज्ञाता क्षेत्रज्ञ इससे भिन्न रहता है ।