आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः ।
यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं शृणु ॥ ७ ॥

शब्दार्थ

आहारः - भोजन; तु - निश्चय ही; अपि - भी; सर्वस्य - हर एक का; त्रि-विधः - तीन प्रकार का; भवति - होता है; प्रियः - प्यारा; यज्ञः - यज्ञ; तपः - तपस्या; तथा - और; दानम् - दान; तेषाम् - उनका; भेदम् - अन्तर; इमम् - यह; शृणु - सुनो ।

भावार्थ

यहाँ तक कि प्रत्येक व्यक्ति जो भोजन पसन्द करता है, वह भी प्रकृति के गुणों के अनुसार तीन प्रकार का होता है । यही बात यज्ञ, तपस्या तथा दान के लिए भी सत्य है । अब उनके भेदों के विषय में सुनो ।

तात्पर्य

प्रकृति के भिन्न-भिन्न गुणों के अनुसार भोजन, यज्ञ, तपस्या और दान में भेद होते हैं । वे सब एक से नहीं होते । जो लोग यह समझ सकते हैं कि किस गुण में क्या क्या करना चाहिए, वे वास्तव में बुद्धिमान हैं । जो लोग सभी प्रकार के यज्ञ, भोजन या दान को एकसा मान कर उनमें अन्तर नहीं कर पाते, वे अज्ञानी हैं । ऐसे भी प्रचारक लोग हैं, जो यह कहते हैं कि मनुष्य जो चाहे वह कर सकता है और सिद्धि प्राप्त कर सकता है । लेकिन ये मूर्ख मार्गदर्शक शास्त्रों के आदेशानुसार कार्य नहीं करते । ये अपनी विधियाँ बनाते हैं और सामान्य जनता को भ्रान्त करते रहते हैं ।