पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृथग्विधान् ।
वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम् ॥ २१ ॥

शब्दार्थ

पृथक्त्वेन - विभाजन के कारण; तु - लेकिन; यत् - जो; ज्ञानम् - ज्ञान; नाना-भावान् - अनेक प्रकार की अवस्थाओं को; पृथक्-विधान - विभिन्न; वेत्ति - जानता है; सर्वेषु - समस्त; भूतेषु - जीवों में; तत् - उस; ज्ञानम् - ज्ञान को; विद्धि - जानो; राजसम् - राजसी ।

भावार्थ

जिस ज्ञान से कोई मनुष्य विभिन्न शरीरों में भिन्न-भिन्न प्रकार का जीव देखता है, उसे तुम राजसी जानो ।

तात्पर्य

यह धारणा कि भौतिक शरीर ही जीव है और शरीर के विनष्ट होने पर चेतना भी नष्ट हो जाती है, राजसी ज्ञान है । इस ज्ञान के अनुसार एक शरीर दूसरे शरीर से भिन्न है, क्योंकि उनमें चेतना का विकास भिन्न प्रकार से होता है, अन्यथा चेतना को प्रकट करने वाला पृथक् आत्मा न रहे । शरीर स्वयं आत्मा है और शरीर के परे कोई पृथक् आत्मा नहीं है । इस ज्ञान के अनुसार चेतना अस्थायी है । या यह कि पृथक आत्माएँ नहीं होती; एक सर्वव्यापी आत्मा है, जो ज्ञान से पूर्ण है और यह शरीर क्षणिक अज्ञानता का प्रकाश है । या यह कि इस शरीर के परे कोई विशेष जीवात्मा या परम आत्मा नहीं है । ये सब धारणाएँ रजोगुण से उत्पन्न हैं ।