रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोऽशुचिः ।
हर्षशोकान्वितः कर्ता राजसः परिकीर्तितः ॥ २७ ॥

शब्दार्थ

रागी – अत्यधिक आसक्त; कर्म-फल – कर्म के फल की; प्रेप्सुः – इच्छाकरते हुए; लुब्धः – लालची; हिंसा-आत्मकः – सदैव ईर्ष्यालु; अशुचिः – अपवित्र; हर्ष-शोक-अन्वितः – हर्ष तथा शोक से युक्त; कर्ता – ऐसा कर्ता; राजसः – रजोगुणी; परिकीर्तितः – घोषितकिया जाता है ।

भावार्थ

जो कर्ता कर्म तथा कर्म-फल के प्रति आसक्त होकर फलों का भोग करना चाहता है तथा जो लोभी, सदैव ईर्ष्यालु, अपवित्र और सुख-दुख से विचलित होने वाला है, वह राजसी कहा जाता है ।

तात्पर्य

मनुष्य सदैव किसी कार्य के प्रति या फल के प्रति इसलिए अत्यधिक आसक्त रहता है, क्योंकि वह भौतिक पदार्थों, घर-बार, पत्नी तथा पुत्र के प्रति अत्यधिक अनुरक्त होता है । ऐसा व्यक्ति जीवन में ऊपर उठने की आकांक्षा नहीं रखता । वह इस संसार को यथासम्भव आरामदेह बनाने में ही व्यस्त रहता है । सामान्यतः वह अत्यन्त लोभी होता है और सोचता है कि उसके द्वारा प्राप्त की गई प्रत्येक वस्तु स्थायी है और कभी नष्ट नहीं होगी । ऐसा व्यक्ति अन्यों से ईर्ष्या करता है और इन्द्रियतृप्ति के लिए कोई भी अनुचित कार्य कर सकता है । अतएव ऐसा व्यक्ति अपवित्र होता है और वह इसकी चिन्ता नहीं करता कि उसकी कमाई शुद्ध है या अशुद्ध । यदि उसका कार्य सफल हो जाता है तो वह अत्यधिक प्रसन्न और असफल होने पर अत्यधिक दुःखी होता है । रजोगुणी कर्ता ऐसा ही होता है ।