दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय ।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ॥ ४९ ॥

शब्दार्थ

दूरेण – दूर से ही त्याग दो; हि – निश्चय ही; अवरम् – गर्हित, निन्दनीय; कर्म – कर्म; बुद्धि-योगात् – कृष्णभावनामृत के बल पर; धनञ्जय – हे सम्पत्ति को जीतने वाले; बुद्धौ – ऐसी चेतना में; शरणम् – पूर्ण समर्पण, आश्रयः; अन्विच्छ – प्रयत्न करो; कृपणाः – कंजूस व्यक्ति; फल-हेतवः – सकाम कर्म की अभिलाषा वाले ।

भावार्थ

हे धनंजय! भक्ति के द्वारा समस्त गर्हित कर्मों से दूर रहो और उसी भाव से भगवान् की शरण ग्रहण करो । जो व्यक्ति अपने सकाम कर्म-फलों को भोगना चाहते हैं, वे कृपण हैं ।

तात्पर्य

जो व्यक्ति भगवान् के दास रूप में अपने स्वरूप को समझ लेता है वह कृष्णभावनामृत में स्थित रहने के अतिरिक्त सारे कर्मों को छोड़ देता है । जीव के लिए ऐसी भक्ति कर्म का सही मार्ग है । केवल कृपण ही अपने सकाम कर्मों का फल भोगना चाहते हैं, किन्तु इससे वे भवबन्धन में और अधिक फँसते जाते हैं । कृष्णभावनामृत के अतिरिक्त जितने भी कर्म सम्पन्न किये जाते हैं वे गर्हित हैं क्योंकि इससे कर्ता जन्म-मृत्यु के चक्र में लगातार फँसा रहता है । अतः कभी इसकी आकांक्षा नहीं करनी चाहिए कि मैं कर्म का कारण बनूँ । कृष्णभावनामृत में हर कार्य कृष्ण की तुष्टि के लिए किया जाना चाहिए । कृपणों को यह ज्ञात नहीं है कि दैववश या कठोर श्रम से अर्जित सम्पत्ति का किस तरह सदुपयोग करें । मनुष्य को अपनी सारी शक्ति कृष्णभावनामृत अर्जित करने में लगानी चाहिए । इससे उसका जीवन सफल हो सकेगा । कृपणों की भाँति अभागे व्यक्ति अपनी मानवी शक्ति को भगवान् की सेवा में नहीं लगाते ।