यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् ।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ ५७ ॥

शब्दार्थ

यः – जो; सर्वत्र – सभी जगह; अनभिस्नेहः – स्नेहशून्य; तत् – उस; प्राप्य – प्राप्त करके; शुभ – अच्छा; अशुभम् – बुरा; – कभी नहीं; अभिनन्दति – प्रशंसा करता है; – कभी नहीं; द्वेष्टि – द्वेष करता है; तस्य – उसका; प्रज्ञा – पूर्ण ज्ञान; प्रतिष्ठिता – अचल ।

भावार्थ

इस भौतिक जगत् में जो व्यक्ति न तो शुभ की प्राप्ति से हर्षित होता है और न अशुभ के प्राप्त होने पर उससे घृणा करता है, वह पूर्ण ज्ञान में स्थिर होता है ।

तात्पर्य

भौतिक जगत् में सदा ही कुछ न कुछ उथल-पुथल होती रहती है - उसका परिणाम अच्छा हो चाहे बुरा । जो ऐसी उथल-पुथल से विचलित नहीं होता, जो अच्छे (शुभ) या बुरे (अशुभ) से अप्रभावित रहता है उसे कृष्णभावनामृत में स्थिर समझना चाहिए । जब तक मनुष्य इस भौतिक संसार में है तब तक अच्छाई या बुराई की सम्भावना रहती है क्योंकि यह संसार द्वैत (द्वंद्वों) से पूर्ण है । किन्तु जो कृष्णभावनामृत में स्थिर है वह अच्छाई या बुराई से अछूता रहता है क्योंकि उसका सरोकार कृष्ण से रहता है जो सर्वमंगलमय हैं । ऐसे कृष्णभावनामृत से मनुष्य पूर्ण ज्ञान की स्थिति प्राप्त कर लेता है, जिसे समाधि कहते हैं ।