या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी ।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥ ६९ ॥

शब्दार्थ

या – जो; निशा – रात्रि है; सर्व – समस्त; भूतानाम् – जीवों की; तस्याम् – उसमें; जागर्ति – जागता रहता है; संयमी – आत्मसंयमी व्यक्ति; यस्याम् – जिसमें; जाग्रति – जागते हैं; भूतानि – सभी प्राणी; सा – वह; निशा – रात्रि; पश्यतः – आत्मनिरीक्षण करने वाले; मुनेः – मुनि के लिए ।

भावार्थ

जो सब जीवों के लिए रात्रि है, वह आत्मसंयमी के जागने का समय है और जो समस्त जीवों के जागने का समय है वह आत्मनिरीक्षक मुनि के लिए रात्रि है ।

तात्पर्य

बुद्धिमान् मनुष्यों की दो श्रेणियाँ हैं । एक श्रेणी के मनुष्य इन्द्रियतृप्ति के लिए भौतिक कार्य करने में निपुण होते हैं और दूसरी श्रेणी के मनुष्य आत्मनिरीक्षक हैं, जो आत्म-साक्षात्कार के अनुशीलन के लिए जागते हैं । विचारवान पुरुषों या आत्मनिरीक्षक मुनि के कार्य भौतिकता में लीन पुरुषों के लिए रात्रि के समान हैं । भौतिकतावादी व्यक्ति ऐसी रात्रि में अनभिज्ञता के कारण आत्म-साक्षात्कार के प्रति सोये रहते हैं । आत्मनिरीक्षक मुनि भौतिकतावादी पुरुषों की रात्रि में जागे रहते हैं । मुनि को आध्यात्मिक अनुशीलन की क्रमिक उन्नति में दिव्य आनन्द का अनुभव होता है, किन्तु भौतिकतावादी कार्यों में लगा व्यक्ति, आत्म-साक्षात्कार के प्रति सोया रहकर अनेक प्रकार के इन्द्रियसुखों का स्वप्न देखता है और उसी सुप्तावस्था में कभी सुख तो कभी दुख का अनुभव करता है । आत्मनिरीक्षक मनुष्य भौतिक सुख तथा दुख के प्रति अन्यमनस्क रहता है । वह भौतिक घातों से अविचलित रहकर आत्म-साक्षात्कार के कार्यों में लगा रहता है ।