अर्जुन उवाच
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः ।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ॥ ३६ ॥

शब्दार्थ

अर्जुनः उवाच – अर्जुन ने कहा; अथ – तब; केन – किस के द्वारा; प्रयुक्तः – प्रेरित; अयम् – यः; पापम् – पाप; चरति – करता है; पुरुषः – व्यक्ति; अनिच्छन् – न चाहते हुए; अपि – यद्यपि; वार्ष्णेय – हे वृष्णिवंशी; बलात् – बलपूर्वक; इव – मानो; नियोजितः – लगाया गया ।

भावार्थ

अर्जुन ने कहा - हे वृष्णिवंशी! मनुष्य न चाहते हुए भी पापकर्मों के लिए प्रेरित क्यों होता है ? ऐसा लगता है कि उसे बलपूर्वक उनमें लगाया जा रहा हो ।

तात्पर्य

जीवात्मा परमेश्वर का अंश होने के कारण मूलतः आध्यात्मिक, शुद्ध एवं समस्त भौतिक कल्मषों से मुक्त रहता है । फलतः स्वभाव से वह भौतिक जगत् के पापों में प्रवृत्त नहीं होता । किन्तु जब वह माया के संसर्ग में आता है, तो वह बिना झिझक के और कभी-कभी इच्छा के विरुद्ध भी अनेक प्रकार से पापकर्म करता है । अतः कृष्ण से अर्जुन का प्रश्न अत्यन्त प्रत्याशापूर्ण है कि जीवों की प्रकृति विकृत क्यों हो जाती है । यद्यपि कभी कभी जीव कोई पाप नहीं करना चाहता, किन्तु उसे ऐसा करने के लिए बाध्य होना पड़ता है । किन्तु ये पापकर्म अन्तर्यामी परमात्मा द्वारा प्रेरित नहीं होते अपितु अन्य कारण से होते हैं, जैसा कि भगवान् अगले श्लोक में बताते हैं ।