श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति ।
शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति ॥ २६ ॥

शब्दार्थ

श्रोत्र-आदीनि – श्रोत्र आदि; इन्द्रियाणि – इन्द्रियाँ; अन्ये – अन्य; संयम – संयम की; अग्निषु – अग्नि में; जुह्वति – अर्पित करते हैं; शब्द-आदीन् – शब्द आदि; विषयान् – इन्द्रियतृप्ति के विषयों को; अन्ये – दूसरे; इन्द्रिय – इन्द्रियों की; अग्निषु – अग्नि में; जुह्वति – यजन करते हैं ।

भावार्थ

इनमें से कुछ (विशुद्ध ब्रह्मचारी) श्रवणादि क्रियाओं तथा इन्द्रियों को मन की नियन्त्रण रूपी अग्नि में स्वाहा कर देते हैं तो दूसरे लोग (नियमित गृहस्थ) इन्द्रियविषयों को इन्द्रियों की अग्नि में स्वाहा कर देते हैं ।

तात्पर्य

मानव जीवन के चारों आश्रमों के सदस्य-ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यासी-पूर्णयोगी बनने के निमित्त हैं । मानव जीवन पशुओं की भाँति इन्द्रियतृप्ति के लिए नहीं बना है, अतएव मानव जीवन के चारों आश्रम इस प्रकार व्यवस्थित हैं कि मनुष्य आध्यात्मिक जीवन में पूर्णता प्राप्त कर सके । ब्रह्मचारी या शिष्यगण प्रामाणिक गुरु की देखरेख में इन्द्रियतृप्ति से दूर रहकर मन को वश में करते हैं । वे कृष्णभावनामृत से सम्बन्धित शब्दों को ही सुनते हैं । श्रवण ज्ञान का मूलाधार है, अतः शुद्ध ब्रह्मचारी सदैव हरे मानुकीर्तनम् अर्थात् भगवान् के यश के कीर्तन तथा श्रवण में ही लगा रहता है । वह सांसारिक शब्द-ध्वनियों से दूर रहता है और उसकी श्रवणेन्द्रिय हरे कृष्ण हरे कृष्ण की आध्यात्मिक ध्वनि को सुनने में ही लगी रहती है । इसी प्रकार से गृहस्थ भी, जिन्हें इन्द्रियतृप्ति की सीमित छूट है, बड़े ही संयम से इन कार्यों को पूरा करते हैं । यौन जीवन, मादकद्रव्य सेवन और मांसाहार मानव समाज की सामान्य प्रवृत्तियाँ हैं, किन्तु संयमित गृहस्थ कभी भी यौन जीवन तथा अन्य इन्द्रियतृप्ति के कार्यों में अनियन्त्रित रूप से प्रवृत्त नहीं होता । इसी उद्देश्य से प्रत्येक सभ्य मानव समाज में धर्म-विवाह का प्रचलन है । यह संयमित अनासक्त यौन जीवन भी एक प्रकार का यज्ञ है, क्योंकि संयमित गृहस्थ उच्चतर दिव्य जीवन के लिए अपनी इन्द्रियतृप्ति की प्रवृत्ति की आहुति कर देता है ।