प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः ।
अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम् ॥ ४५ ॥

शब्दार्थ

प्रयत्नात् - कठिन अभ्यास से; यतमानः - प्रयास करते हुए; तु - तथा; योगी - ऐसा योगी; संशुद्ध - शुद्ध होकर; किल्बिषः - जिसके सारे पाप; अनेक - अनेकानेक; जन्म - जन्‍मों के बाद; संसिद्धः - सिद्धि प्राप्त करके; ततः - तत्पश्चातू; याति - प्राप्त करता है; पराम्‌ - सर्वोच्च; गतिम् - गन्तव्य को ।

भावार्थ

और जब योगी समस्त कल्मष से शुद्ध होकर सच्ची निष्ठा से आगे प्रगति करने का प्रयास करता है, तो अन्ततोगत्वा अनेकानेक जन्मों के अभ्यास के पश्चात् सिद्धि-लाभ करके वह परम गन्तव्य को प्राप्त करता है ।

तात्पर्य

सदाचारी, धनवान या पवित्र कुल में उत्पन्न पुरुष योगाभ्यास के अनुकूल परिस्थिति से सचेष्ट हो जाता है । अतः वह दृढ़ संकल्प करके अपने अधूरे कार्य को करने में लग जाता है और इस प्रकार वह अपने को समस्त भौतिक कल्मष से शुद्ध कर लेता है । समस्त कल्मष से मुक्त होने पर उसे परम सिद्धि-कृष्णभावनामृत - प्राप्त होती है । कृष्णभावनामृत ही समस्त कल्मष से मुक्त होने की पूर्ण अवस्था है । इसकी पुष्टि भगवद्गीता में (७.२८) हुई है –

येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम् ।
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः ॥

“अनेक जन्मों तक पुण्यकर्म करने से जब कोई समस्त कल्मष तथा मोहमय द्वन्द्वों से पूर्णतया मुक्त हो जाता है, तभी वह भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में लग पाता है ।”