सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु ।
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते ॥ ९ ॥

शब्दार्थ

सु-हृत् – स्वभाव से; मित्र – स्नेहपूर्ण हितेच्छु; अरि – शत्रु; उदासीन – शत्रुओं में तटस्थ; मध्य-स्थ – शत्रुओं में पंच; द्वेष – ईर्ष्यालु; बन्धुषु – सम्बन्धियों या शुभेच्छुकों; साधुषु – साधुओं में; अपि – भी; – तथा; पापेषु – पापियों में; सम-बुद्धिः – सामान बुद्धि वाला; विशिष्यते – आगे बढ़ा हुआ होता है ।

भावार्थ

जब मनुष्य निष्कपट हितैषियों, प्रिय मित्रों, तटस्थों, मध्यस्थों, ईर्ष्यालुओं, शत्रुओं तथा मित्रों, पुण्यात्माओं एवं पापियों को समान भाव से देखता है, तो वह और भी उन्नत माना जाता है ।