तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते ।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः ॥ १७ ॥

शब्दार्थ

तेषाम् – उनमें से; ज्ञानी – ज्ञानवान; नित्य-युक्तः – सदैव तत्पर; एक – एकमात्र; भक्तिः – भक्ति में; विशिष्यते – विशिष्ट है; प्रियः – अतिशय प्रिय; हि – निश्चय ही; ज्ञानिनः – ज्ञानवान का; अत्यर्थम् – अत्यधिक; अहम् – मैं हूँ; सः – वह; – भी; प्रियः – प्रिय ।

भावार्थ

इनमें से जो परमज्ञानी है और शुद्धभक्ति में लगा रहता है वह सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि मैं उसे अत्यन्त प्रिय हूँ और वह मुझे प्रिय है ।

तात्पर्य

भौतिक इच्छाओं के समस्त कल्मष से मुक्त आर्त, जिज्ञासु, धनहीन तथा ज्ञानी ये सब शुद्ध भक्त बन सकते हैं । किन्तु इनमें से जो परम सत्य का ज्ञानी है और भौतिक इच्छाओं से मुक्त होता है वही भगवान् का शुद्धभक्त हो पाता है । इन चार वर्गों में से जो भक्त ज्ञानी है और साथ ही भक्ति में लगा रहता है, वह भगवान् के कथनानुसार सर्वश्रेष्ठ है । ज्ञान की खोज करते रहने से मनुष्य को अनुभूति होती है कि उसका आत्मा उसके भौतिक शरीर से भिन्न है । अधिक उन्नति करने पर उसे निर्विशेष ब्रह्म तथा परमात्मा का ज्ञान होता है । जब वह पूर्णतया शुद्ध हो जाता है तो उसे ईश्वर के नित्य दास के रूप में अपनी स्वाभाविक स्थिति की अनुभूति होती है । इस प्रकार शुद्ध भक्त की संगति से आर्त, जिज्ञासु, धन का इच्छुक तथा ज्ञानी स्वयं शुद्ध हो जाते हैं । किन्तु प्रारम्भिक अवस्था में जिस व्यक्ति को परमेश्वर का पूर्णज्ञान होता है और साथ ही जो उनकी भक्ति करता रहता है, वह व्यक्ति भगवान् को अत्यन्त प्रिय होता है । जिसे भगवान् की दिव्यता का शुद्ध ज्ञान प्राप्त होता है, वह भक्ति द्वारा इस तरह सुरक्षित रहता है कि भौतिक कल्मष उसे छू भी नहीं पाते ।