उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् ।
आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम् ॥ १८ ॥

शब्दार्थ

उदाराः – विशाल हृदय वाले; सर्वे – सभी; एव – निश्चय ही; एते – ये; ज्ञानी – ज्ञानवाला; तु – लेकिन; आत्मा एव – मेरे सामान ही; मे – मेरे; मतम् – मत में; आस्थितः – स्थित; सः – वह; हि – निश्चय ही; युक्त-आत्मा – भक्ति में तत्पर; माम् – मुझ; एव – निश्चय ही; अनुत्तमाम् – परम, सर्वोच्च; गतिम् – लक्ष्य को ।

भावार्थ

निस्सन्देह ये सब उदारचेता व्यक्ति हैं, किन्तु जो मेरे ज्ञान को प्राप्त है, उसे मैं अपने ही समान मानता हूँ । वह मेरी दिव्यसेवा में तत्पर रहकर मुझ सर्वोच्च उद्देश्य को निश्चित रूप से प्राप्त करता है ।

तात्पर्य

ऐसा नहीं है कि जो कम ज्ञानी भक्त हैं वे भगवान् को प्रिय नहीं हैं । भगवान् कहते हैं कि सभी उदारचेता हैं क्योंकि चाहे जो भी भगवान् के पास किसी भी उद्देश्य से आये वह महात्मा कहलाता है । जो भक्त भक्ति के बदले कुछ लाभ चाहते हैं उन्हें भगवान् स्वीकार करते हैं क्योंकि इससे स्नेह का विनिमय होता है । वे स्नेहवश भगवान् से लाभ की याचना करते हैं और जब उन्हें वह प्राप्त हो जाता है तो वे इतने प्रसन्न होते हैं कि वे भी भगवद्भक्ति करने लगते हैं । किन्तु ज्ञानी भक्त भगवान् को इसलिए प्रिय है कि उसका उद्देश्य प्रेम तथा भक्ति से परमेश्वर की सेवा करना होता है । ऐसा भक्त भगवान् की सेवा किये बिना क्षण भर भी नहीं रह सकता । इसी प्रकार परमेश्वर अपने भक्त को बहुत चाहते हैं और वे उससे विलग नहीं हो पाते ।

श्रीमद्भागवत में (९.४.६८) भगवान् कहते हैं -

साधवो हृदयं मह्यं साधूनां हृदयं त्वहम् ।
मदन्यत्ते न जानन्ति नाहं तेभ्यो मनागपि ॥

“भक्तगण सदैव मेरे हृदय में वास करते हैं और मैं भक्तों के हृदयों में वास करता हूँ । भक्त मेरे अतिरिक्त और कुछ नहीं जानता और मैं भी भक्त को कभी नहीं भूलता । मेरे तथा शुद्ध भक्तों के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध रहता है । ज्ञानी शुद्धभक्त कभी भी आध्यात्मिक सम्पर्क से दूर नहीं होते, अतः वे मुझे अत्यन्त प्रिय हैं ।”