परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः ।
यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति ॥ २० ॥

शब्दार्थ

परः – परम; तस्मात् – उस; तु – लेकिन; भावः – प्रकृति; अन्यः – दूसरी; अव्यक्तः – अव्यक्त; अव्यक्तात् – अव्यक्त से; सनातनः – शाश्वत; यः सः – वह जो; सर्वेषु – समस्त; भूतेषु – जीवों के; नश्यत्सु – नाश होने पर; – कभी नहीं; विनश्यति – विनष्ट होती है ।

भावार्थ

इसके अतिरिक्त एक अन्य अव्यक्त प्रकृति है, जो शाश्वत है और इस व्यक्त तथा अव्यक्त पदार्थ से परे है । यह परा (श्रेष्ठ) और कभी नाश न होने वाली है । जब इस संसार का सब कुछ लय हो जाता है, तब भी उसका नाश नहीं होता ।

तात्पर्य

कृष्ण की पराशक्ति दिव्य और शाश्वत है । यह उस भौतिक प्रकृति के समस्त परिवर्तनों से परे है, जो ब्रह्मा के दिन के समय व्यक्त और रात्रि के समय विनष्ट होती रहती है । कृष्ण की पराशक्ति भौतिक प्रकृति के गुण से सर्वथा विपरीत है । परा तथा अपरा प्रकृति की व्याख्या सातवें अध्याय में हुई है ।