यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः ।
प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ ॥ २३ ॥

शब्दार्थ

यत्र – जिस; काले – समय में; तु – तथा; अनावृत्तिम् – वापस न आना; आवृत्तिम् – वापसी; – भी; एव – निश्चय ही; योगिनः – विभिन्न प्रकार के योगी; प्रयाताः – प्रयाण करने वाले; यान्ति प्राप्त करते हैं; तम् – उस; कालम् – काल को; वक्ष्यामि – कहूँगा; भरत-ऋषभ – हे भारतों में श्रेष्ठ!

भावार्थ

हे भरतश्रेष्ठ! अब मैं तुम्हें उन विभिन्न कालों को बताऊँगा, जिनमें इस संसार से प्रयाण करने के बाद योगी पुनः आता है अथवा नहीं आता ।

तात्पर्य

परमेश्वर के अनन्य, पूर्ण शरणागत भक्तों को इसकी चिन्ता नहीं रहती कि वे कब और किस तरह शरीर को त्यागेंगे । वे सब कुछ कृष्ण पर छोड़ देते हैं और इस तरह सरलतापूर्वक, प्रसन्नता सहित भगवद्धाम जाते हैं । किन्तु जो अनन्य भक्त नहीं हैं और कर्मयोग, ज्ञानयोग तथा हठयोग जैसी आत्म-साक्षात्कार की विधियों पर आश्रित रहते हैं, उन्हें उपयुक्त समय में शरीर त्यागना होता है, जिससे वे आश्वस्त हो सकें कि इस जन्म-मृत्यु वाले संसार में उनको लौटना होगा या नहीं ।

यदि योगी सिद्ध होता है तो वह इस जगत से शरीर छोड़ने का समय तथा स्थान चुन सकता है । किन्तु यदि वह इतना पटु नहीं होता तो उसकी सफलता उसके अचानक शरीर त्याग के संयोग पर निर्भर करती है । भगवान् ने अगले श्लोक में ऐसे उचित अवसरों का वर्णन किया है कि कब मरने से कोई वापस नहीं आता । आचार्य बलदेव विद्याभूषण के अनुसार यहाँ पर संस्कृत के काल शब्द का प्रयोग काल के अधिष्ठाता देव के लिए हुआ है ।