नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन ।
तस्मात् सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन ॥ २७ ॥

शब्दार्थ

– कभी नहीं; एते – इन दोनों; सृती – विभिन्न मार्गों को; पार्थ – हे पृथापुत्र; जानन् – जानते हुए भी; योगी – भगवद्भक्त; मुह्यति – मोहग्रस्त होता है; कश्चन – कोई; तस्मात् – अतः; सर्वेषु कालेषु – सदैव; योग-युक्तः – कृष्णभावनामृत में तत्पर; भव – होवो; अर्जुन – हे अर्जुन ।

भावार्थ

हे अर्जुन! यद्यपि भक्तगण इन दोनों मार्गों को जानते हैं, किन्तु वे मोहग्रस्त नहीं होते । अतः तुम भक्ति में सदैव स्थिर रहो ।

तात्पर्य

कृष्ण अर्जुन को उपदेश दे रहे हैं कि उसे इस जगत् से आत्मा के प्रयाण करने के विभिन्न मार्गों को सुनकर विचलित नहीं होना चाहिए । भगवद्भक्त को इसकी चिन्ता नहीं होनी चाहिए कि वह स्वेच्छा से मरेगा या दैववशात् । भक्त को कृष्णभावनामृत में दृढ़तापूर्वक स्थित रहकर हरे कृष्ण का जप करना चाहिए । उसे यह जान लेना चाहिए कि इन दोनों मार्गों में से किसी की भी चिन्ता करना कष्टदायक है । कृष्णभावनामृत में तल्लीन होने की सर्वोत्तम विधि यही है कि भगवान् की सेवा में सदैव रत रहा जाय । इससे भगवद्धाम का मार्ग स्वतः सुगम, सुनिश्चित तथा सीधा होगा । इस श्लोक का योगयुक्त शब्द विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है । जो योग में स्थिर है, वह अपनी सभी गतिविधियों में निरन्तर कृष्णभावनामृत में रत रहता है । श्री रूप गोस्वामी का उपदेश है - अनासक्तस्य विषयान् यथार्हमुपयुञ्जतः - मनुष्य को सांसारिक कार्यों से अनासक्त रहकर कृष्णभावनामृत में सब कुछ करना चाहिए । इस विधि से, जिसे युक्तवैराग्य कहते हैं, मनुष्य सिद्धि प्राप्त करता है । अतएव भक्त कभी इन वर्णनों से विचलित नहीं होता, क्योंकि वह जानता रहता है कि भक्ति के कारण भगवद्धाम तक का उसका प्रयाण सुनिश्चित है ।