अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना ।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन् ॥ ८ ॥

शब्दार्थ

अभ्यास-योग – अभ्यास से; युक्तेन – ध्यान में लगे रहकर; चेतसा – मन तथा बुद्धि से; न अन्य गामिना – बिना विचलित हुए; परमम् – परं; पुरुषम् – भगवान् को; दिव्यम् – दिव्य; याति – प्राप्त करता है; पार्थ – हे पृथापुत्र; अनुचिन्तयन् – निरन्तर चिन्तन करता हुआ ।

भावार्थ

हे पार्थ! जो व्यक्ति मेरा स्मरण करने में अपना मन निरन्तर लगाये रखकर अविचलित भाव से भगवान् के रूप में मेरा ध्यान करता है, वह मुझको अवश्य ही प्राप्त होता है ।

तात्पर्य

इस श्लोक में भगवान् कृष्ण अपने स्मरण किये जाने की महत्ता पर बल देते हैं । महामन्त्र हरे कृष्ण का जप करने से कृष्ण की स्मृति हो आती है । भगवान् के शब्दोच्चार (ध्वनि) के जप तथा श्रवण के अभ्यास से मनुष्य के कान, जीभ तथा मन व्यस्त रहते हैं । इस ध्यान का अभ्यास अत्यन्त सुगम है और इससे परमेश्वर को प्राप्त करने में सहायता मिलती है । पुरुषम् का अर्थ भोक्ता है । यद्यपि सारे जीव भगवान् की तटस्था शक्ति हैं, किन्तु वे भौतिक कल्मष से युक्त हैं । वे स्वयं को भोक्ता मानते हैं, जबकि वे होते नहीं । यहाँ पर स्पष्ट उल्लेख है कि भगवान् ही अपने विभिन्न स्वरूपों तथा नारायण, वासुदेव आदि स्वांशों के रूप में परम भोक्ता हैं ।

भक्त हरे कृष्ण का जप करके अपनी पूजा के लक्ष्य परमेश्वर का, उनके किसी भी रूप नारायण, कृष्ण, राम आदि का निरन्तर चिन्तन कर सकता है । ऐसा करने से वह शुद्ध हो जाता है और निरन्तर जप करते रहने से जीवन के अन्त में वह भगवद्धाम को जाता है । योग अन्तःकरण के परमात्मा का ध्यान है । इसी प्रकार हरे कृष्ण के जप द्वारा मनुष्य अपने मन को परमेश्वर में स्थिर करता है । मन चंचल है, अतः आवश्यक है कि मन को बलपूर्वक कृष्ण-चिन्तन में लगाया जाय । प्रायः उस एक प्रकार के कीट का दृष्टान्त दिया जाता है जो तितली बनना चाहता है और वह इसी जीवन में तितली बन जाता है । इसी प्रकार यदि हम निरन्तर कृष्ण का चिन्तन करते रहें, तो यह निश्चित है कि हम जीवन के अन्त में कृष्ण जैसा शरीर प्राप्त कर सकेंगे ।