ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते ।
एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम् ॥ १५ ॥

शब्दार्थ

ज्ञान-यज्ञेन – ज्ञान के अनुशीलन द्वारा; – भी; अपि – निश्चय ही; अन्य – अन्य लोग; यजन्तः – यज्ञ करते हुए; माम् – मुझको; उपासते – पूजते हैं; एकत्वेन – एकान्त भव से; पृथक्त्वेन – द्वैतभाव से; बहुधा – अनेक प्रकार से; विश्वतः मुखम् – विश्व रूप में ।

भावार्थ

अन्य लोग जो ज्ञान के अनुशीलन द्वारा यज्ञ में लगे रहते हैं, वे भगवान् की पूजा उनके अद्वय रूप में, विविध रूपों में तथा विश्व रूप में करते हैं ।

तात्पर्य

यह श्लोक पिछले श्लोकों का सारांश है । भगवान् अर्जुन को बताते हैं कि जो विशुद्ध कृष्णभावनामृत में लगे रहते हैं और कृष्ण के अतिरिक्त अन्य किसी को नहीं जानते, वे महात्मा कहलाते हैं । तो भी कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो वास्तव में महात्मा पद को प्राप्त नहीं होते, किन्तु वे भी विभिन्न प्रकारों से कृष्ण की पूजा करते हैं । इनमें से कुछ का वर्णन आर्त, अर्थार्थी, ज्ञानी तथा जिज्ञासु के रूप में किया जा चुका है । किन्तु फिर भी कुछ ऐसे भी लोग होते हैं जो इनसे भी निम्न होते हैं । इन्हें तीन कोटियों में रखा जाता है - १) परमेश्वर तथा अपने को एक मानकर पूजा करने वाले, २) परमेश्वर के किसी मनोकल्पित रूप की पूजा करने वाले तथा ३) भगवान् के विश्व रूप की पूजा करने वाले । इनमें से सबसे अधम वे हैं जो अपने आपको अद्वैतवादी मानकर अपनी पूजा परमेश्वर के रूप में करते हैं और इन्हीं का प्राधान्य भी है । ऐसे लोग अपने को परमेश्वर मानते हैं और इस मानसिकता के कारण वे अपनी पूजा आप करते हैं । यह भी एक प्रकार की ईशपूजा है, क्योंकि वे समझते हैं कि वे भौतिक पदार्थ न होकर आत्मा हैं । कम से कम, ऐसा भाव तो प्रधान रहता है । सामान्यतया निर्विशेषवादी इसी प्रकार से परमेश्वर को पूजते हैं । दूसरी कोटि के लोग वे हैं जो देवताओं के उपासक हैं, जो अपनी कल्पना से किसी भी स्वरूप को परमेश्वर का स्वरूप मान लेते हैं । तृतीय कोटि में वे लोग आते हैं जो इस ब्रह्माण्ड से परे कुछ भी नहीं सोच पाते । वे ब्रह्माण्ड को ही परम जीव या सत्ता मानकर उसकी उपासना करते हैं । यह ब्रह्माण्ड भी भगवान् का एक स्वरूप है ।