पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ॥ २६ ॥

शब्दार्थ

पत्रम् – पत्ती; पुष्पम् – फूल; फलम् - फल; तोयम् – जल; यः – जो कोई; मे – मुझको; भक्त्या – भक्तिपूर्वक; प्रयच्छति – भेंट करता है; तत् – वह; अहम् – मैं; भक्ति-उपहृतम् – भक्तिभाव से अर्पित; अश्नामि – स्वीकार करता हूँ; प्रयत-आत्मनः – शुद्धचेतना वाले से ।

भावार्थ

यदि कोई प्रेम तथा भक्ति के साथ मुझे पत्र, पुष्प, फल या जल प्रदान करता है, तो मैं उसे स्वीकार करता हूँ ।

तात्पर्य

नित्य सुख के लिए स्थायी, आनन्दमय धाम प्राप्त करने हेतु बुद्धिमान व्यक्ति के लिए यह अनिवार्य है कि वह कृष्णभावनाभावित होकर भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में तत्पर रहे । ऐसा आश्चर्यमय फल प्राप्त करने की विधि इतनी सरल है कि निर्धन से निर्धन व्यक्ति को योग्यता का विचार किये बिना इसे पाने का प्रयास करना चाहिए । इसके लिए एकमात्र योग्यता इतनी ही है कि वह भगवान् का शुद्धभक्त हो । इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता कि कोई क्या है और कहाँ स्थित है । यह विधि इतनी सरल है कि यदि प्रेमपूर्वक एक पत्ती, थोड़ा सा जल या फल ही भगवान् को अर्पित किया जाता है तो भगवान् उसे सहर्ष स्वीकार करते हैं । अतः किसी को भी कृष्णभावनामृत से रोका नहीं जा सकता, क्योंकि यह सरल है और व्यापक है । ऐसा कौन मूर्ख होगा जो इस सरल विधि से कृष्णभावनाभावित नहीं होना चाहेगा और सच्चिदानन्दमय जीवन की परम सिद्धि नहीं चाहेगा ? कृष्ण को केवल प्रेमाभक्ति चाहिए और कुछ भी नहीं । कृष्ण तो अपने शुद्धभक्त से एक छोटा सा फूल तक ग्रहण करते हैं । किन्तु अभक्त से वे कोई भेंट नहीं चाहते । उन्हें किसी से कुछ भी नहीं चाहिए, क्योंकि वे आत्मतुष्ट हैं, तो भी वे अपने भक्त की भेंट प्रेम तथा स्नेह के विनिमय में स्वीकार करते हैं । कृष्णभावनामृत विकसित करना जीवन का चरमलक्ष्य है । इस श्लोक में भक्ति शब्द का उल्लेख दो बार यह घोषित करने के लिए हुआ है कि भक्ति ही कृष्ण के पास पहुँचने का एकमात्र साधन है । किसी अन्य शर्त से, यथा ब्राह्मण, विद्वान्, धनी या महान विचारक होने से, कृष्ण किसी प्रकार की भेंट लेने को तैयार नहीं होते । भक्ति ही मूलसिद्धान्त है, जिसके बिना वे किसी से कुछ भी लेने के लिए प्रेरित नहीं किये जा सकते । भक्ति कभी हैतुकी नहीं होती । यह शाश्वत विधि है । यह परमब्रह्म की सेवा में प्रत्यक्ष कर्म है ।

यह बतला कर कि वे ही एकमात्र भोक्ता, आदि स्वामी और समस्त यज्ञ-भेंटों के वास्तविक लक्ष्य हैं, अब भगवान् कृष्ण यह बताते हैं कि वे किस प्रकार की भेंट पसंद करते हैं । यदि कोई शुद्ध होने तथा जीवन के लक्ष्य तक पहुँचने के उद्देश्य से भगवद्भक्ति करना चाहता है तो उसे चाहिए कि वह पता करे कि भगवान् उससे क्या चाहते हैं । कृष्ण से प्रेम करने वाला उन्हें उनकी इच्छित वस्तु देगा और कोई ऐसी वस्तु भेंट नहीं करेगा जिसकी उन्हें इच्छा न हो, या उन्होंने न माँगी हो । इस प्रकार कृष्ण को मांस, मछली तथा अण्डे भेंट नहीं किये जाने चाहिए । यदि उन्हें इन वस्तुओं की इच्छा होती तो वे इनका उल्लेख करते । उल्टे वे स्पष्ट आदेश देते हैं कि उन्हें पत्र, पुष्प, जल तथा फल अर्पित किये जायें और वे इन्हें स्वीकार करेंगे । अतः हमें यह समझना चाहिए कि वे मांस, मछली तथा अण्डे स्वीकार नहीं करेंगे । शाक, अन्न, फल, दूध तथा जल - ये ही मनुष्यों के उचित भोजन हैं और भगवान् कृष्ण ने भी इन्हीं का आदेश दिया है । इनके अतिरिक्त हम जो भी खाते हों, वह उन्हें अर्पित नहीं किया जा सकता, क्योंकि वे उसे ग्रहण नहीं करेंगे । यदि हम ऐसा भोजन उन्हें अर्पित करेंगे तो हम प्रेमाभक्ति नहीं कर सकेंगे ।

तृतीय अध्याय के तेरहवें श्लोक में श्रीकृष्ण बताते हैं कि यज्ञ का उच्छिष्ट ही शुद्ध होता है, अतः जो लोग जीवन में प्रगति करने तथा भवबन्धन से मुक्त होने के इच्छुक हैं, उन्हें इसी को खाना चाहिए । उसी श्लोक में वे यह भी बताते हैं कि जो लोग अपने भोजन को अर्पित नहीं करते वे पाप भक्षण करते हैं । दूसरे शब्दों में, उनका प्रत्येक कौर इस संसार की जटिलताओं में उन्हें बाँधने वाला है । अच्छा सरल शाकाहारी भोजन बनाकर उसे भगवान् कृष्ण के चित्र या अर्चाविग्रह के समक्ष अर्पित करके तथा नतमस्तक होकर इस तुच्छ भेंट को स्वीकार करने की प्रार्थना करने से मनुष्य अपने जीवन में निरन्तर प्रगति करता है, उसका शरीर शुद्ध होता है और मस्तिष्क के श्रेष्ठ तन्तु उत्पन्न होते हैं, जिससे शुद्ध चिन्तन हो पाता है । सबसे बड़ी बात तो यह है कि यह समर्पण अत्यन्त प्रेमपूर्वक करना चाहिए । कृष्ण को किसी तरह के भोजन की आवश्यकता नहीं रहती, क्योंकि उनके पास सब कुछ है, किन्तु यदि कोई उन्हें इस प्रकार प्रसन्न करना चाहता है, तो वे इस भेंट को स्वीकार करते हैं । भोजन बनाने, सेवा करने तथा भेंट करने में जो सबसे मुख्य बात रहती है, वह है कृष्ण के प्रेमवश कर्म करना ।

वे मायावादी चिन्तक भगवद्गीता के इस श्लोक का अर्थ नहीं समझ सकेंगे, जो यह मानकर चलते हैं कि परब्रह्म इन्द्रियरहित है । उनके लिए यह या तो रूपक है या भगवद्गीता के उद्घोषक कृष्ण के मानवीय चरित्र का प्रमाण है । किन्तु वास्तविकता तो यह है कि भगवान् कृष्ण इन्द्रियों से युक्त हैं और यह कहा गया है कि उनकी इन्द्रियाँ परस्पर परिवर्तनशील हैं । दूसरे शब्दों में, एक इन्द्रिय दूसरी इन्द्रिय का कार्य कर सकती है । कृष्ण को परम ब्रह्म कहने का आशय यही है । इन्द्रियरहित होने पर उन्हें समस्त ऐश्वर्यों से युक्त नहीं माना जा सकता । सातवें अध्याय में कृष्ण ने बतलाया है कि वे प्रकृति के गर्भ में जीवों को स्थापित करते हैं । इसे वे प्रकृति पर दृष्टिपात करके करते हैं । अतः यहाँ पर भी भक्तों द्वारा भोजन अर्पित करते हुए भक्तों का प्रेमपूर्ण शब्द सुनना कृष्ण के द्वारा भोजन करने तथा उसके स्वाद लेने के ही समरूप है । इस बात पर इसलिए बल देना होगा क्योंकि अपनी सर्वोच्च स्थिति के कारण उनका सुनना उनके भोजन करने तथा स्वाद ग्रहण करने के ही समरूप है । केवल भक्त ही बिना तर्क के यह समझ सकता है कि परब्रह्म भोजन कर सकते हैं और उसका स्वाद ले सकते हैं ।