न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम् ।
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः ॥ ५ ॥

शब्दार्थ

– कभी नहीं; – भी; मत्-स्थानि – मुझमें स्थित; भूतानि – सारी सृष्टि; पश्य – देखो; में – मेरा; योगम् ऐश्वरम् – अचिन्त्य योगशक्ति; भूत-भृत् – समस्त जीवों का पालक; – नहीं; – भी; भुतास्थः – विराट अभिव्यक्ति में; मम – मेरा; आत्मा – स्व, आत्म; भूत-भावनः – समस्त अभिव्यक्तियों का स्त्रोत ।

भावार्थ

तथापि मेरे द्वारा उत्पन्न सारी वस्तुएँ मुझमें स्थित नहीं रहतीं । जरा, मेरे योग-ऐश्वर्य को देखो! यद्यपि मैं समस्त जीवों का पालक (भर्ता) हूँ और सर्वत्र व्याप्त हूँ, लेकिन मैं इस विराट अभिव्यक्ति का अंश नहीं हूँ, क्योंकि मैं सृष्टि का कारणस्वरूप हूँ ।

तात्पर्य

भगवान् का कथन है कि सब कुछ उन्हीं पर आश्रित है (मत्स्थानि सर्वभूतानि) । इसका अन्य अर्थ नहीं लगाना चाहिए । भगवान् इस भौतिक जगत् के पालन तथा निर्वाह के लिए प्रत्यक्ष रूप से उत्तरदायी नहीं हैं । कभी-कभी हम एटलस (एक रोमन देवता) को अपने कंधों पर गोला उठाये देखते हैं, वह अत्यन्त थका लगता है और इस विशाल पृथ्वीलोक को धारण किये रहता है । हमें किसी ऐसे चित्र को मन में नहीं लाना चाहिए, जिसमें कृष्ण इस सृजित ब्रह्माण्ड को धारण किये हुए हों । उनका कहना है कि यद्यपि सारी वस्तुएँ उन पर टिकी हैं, किन्तु वे पृथक् रहते हैं । सारे लोक अन्तरिक्ष में तैर रहे हैं और यह अन्तरिक्ष परमेश्वर की शक्ति है । किन्तु वे अन्तरिक्ष से भिन्न हैं, वे पृथक् स्थित हैं । अतः भगवान् कहते हैं “यद्यपि ये सब रचित पदार्थ मेरी अचिन्त्य शक्ति पर टिके हैं, किन्तु भगवान् के रूप में मैं उनसे पृथक् रहता हूँ ।” यह भगवान् का अचिन्त्य ऐश्वर्य है ।

वैदिककोश निरुक्ति में कहा गया है - युज्यतेऽनेन दुर्घटेषु कार्येषु परमेश्वर अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते हुए अचिन्त्य आश्चर्यजनक लीलाएँ कर रहे हैं । उनका व्यक्तित्व विभिन्न शक्तियों से पूर्ण है और उनका संकल्प स्वयं एक तथ्य है । भगवान् को इसी रूप में समझना चाहिए । हम कोई काम करना चाहते हैं, तो अनेक विघ्न आते हैं और कभी-कभी हम जो चाहते हैं वह नहीं कर पाते । किन्तु जब कृष्ण कोई कार्य करना चाहते हैं, तो सब कुछ इतनी पूर्णता से सम्पन्न हो जाता है कि कोई सोच नहीं पाता कि यह सब कैसे हुआ । भगवान् इसी तथ्य को समझाते हैं - यद्यपि वे समस्त सृष्टि के पालक तथा धारणकर्ता हैं, किन्तु वे इस सृष्टि का स्पर्श नहीं करते । केवल उनकी परम इच्छा से प्रत्येक वस्तु का सृजन, धारण, पालन एवं संहार होता है । उनके मन और स्वयं उनमें कोई भेद नहीं है जैसा हमारे भौतिक मन में और स्वयं हम में भेद होता है, क्योंकि वे परमात्मा हैं । साथ ही वे प्रत्येक वस्तु में उपस्थित रहते हैं, किन्तु सामान्य व्यक्ति यह नहीं समझ पाता कि वे साकार रूप में किस तरह उपस्थित हैं । वे भौतिक जगत् से भिन्न हैं तो भी प्रत्येक वस्तु उन्हीं पर आश्रित है । यहाँ पर इसे ही योगम् ऐश्वरम् अर्थात् भगवान् की योगशक्ति कहा गया है ।