न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय ।
उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु ॥ ९ ॥

शब्दार्थ

– कभी नहीं; – भी; माम् – मुझको; कर्माणि – कर्म; निबध्नन्ति – बाँधते हैं; धनञ्जय – हे धन के विजेता; उदासीन-वत् – निरपेक्ष या तटस्थ की तरह; आसीनम् – स्थित हुआ; असक्तम् – आसक्तिरहित; तेषु – उन; कर्मसु – कार्यों में ।

भावार्थ

हे धनञ्जय! ये सारे कर्म मुझे नहीं बाँध पाते हैं । मैं उदासीन की भाँति इन सारे भौतिक कर्मों से सदैव विरक्त रहता हूँ ।

तात्पर्य

इस प्रसंग में यह नहीं सोच लेना चाहिए कि भगवान् के पास कोई काम नहीं है । वे अपने वैकुण्ठलोक में सदैव व्यस्त रहते हैं । ब्रह्मसंहिता में (५.६) कहा गया है - आत्मारामस्य तस्यास्ति प्रकृत्या न समागमः - वे सतत दिव्य आनन्दमय आध्यात्मिक कार्यों में रत रहते हैं, किन्तु इन भौतिक कार्यों से उनका कोई सरोकार नहीं रहता । सारे भौतिक कार्य उनकी विभिन्न शक्तियों द्वारा सम्पन्न होते रहते हैं । वे सदा ही इस सृष्टि के भौतिक कार्यों के प्रति उदासीन रहते हैं । इस उदासीनता को ही यहाँ पर उदासीनवत् कहा गया है । यद्यपि छोटे से छोटे भौतिक कार्य पर उनका नियन्त्रण रहता है, किन्तु वे उदासीनवत स्थित रहते हैं । यहाँ पर उच्च न्यायालय के न्यायाधीश का उदाहरण दिया जा सकता है, जो अपने आसन पर बैठा रहता है । उसके आदेश से अनेक तरह की बातें घटती रहती हैंकिसी को फाँसी दी जाती है, किसी को कारावास की सजा मिलती है, तो किसी को प्रचुर धनराशि मिलती है, तो भी वह उदासीन रहता है । उसे इस हानि-लाभ से कुछ भी लेना-देना नहीं रहता । इसी प्रकार भगवान् भी सदैव उदासीन रहते हैं, यद्यपि प्रत्येक कार्य में उनका हाथ रहता है । वेदान्तसूत्र में (२.१.३४) यह कहा गया है - वैषम्यनैर्घृण्ये न - वे इस जगत् के द्वन्द्वों में स्थित नहीं हैं । वे इन द्वन्द्वों से अतीत हैं । न ही इस जगत् की सृष्टि तथा प्रलय में ही उनकी आसक्ति रहती है । सारे जीव अपने पूर्वकर्मों के अनुसार विभिन्न योनियाँ ग्रहण करते रहते हैं और भगवान् इसमें कोई व्यवधान नहीं डालते ।