चौपाई :

रिषिन्ह गौरि देखी तहँ कैसी । मूरतिमंत तपस्या जैसी ॥
बोले मुनि सुनु सैलकुमारी । करहु कवन कारन तपु भारी ॥ १ ॥

ऋषियों ने (वहाँ जाकर) पार्वती को कैसी देखा, मानो मूर्तिमान् तपस्या ही हो । मुनि बोले - हे शैलकुमारी! सुनो, तुम किसलिए इतना कठोर तप कर रही हो? ॥ १ ॥

केहि अवराधहु का तुम्ह चहहू । हम सन सत्य मरमु किन कहहू ॥
कहत बचन मनु अति सकुचाई । हँसिहहु सुनि हमारि जड़ताई ॥ २ ॥

तुम किसकी आराधना करती हो और क्या चाहती हो? हमसे अपना सच्चा भेद क्यों नहीं कहतीं? (पार्वती ने कहा - ) बात कहते मन बहुत सकुचाता है । आप लोग मेरी मूर्खता सुनकर हँसेंगे ॥ २ ॥

मनु हठ परा न सुनइ सिखावा । चहत बारि पर भीति उठावा ॥
नारद कहा सत्य सोइ जाना । बिनु पंखन्ह हम चहहिं उड़ाना ॥ ३ ॥

मन ने हठ पकड़ लिया है, वह उपदेश नहीं सुनता और जल पर दीवाल उठाना चाहता है । नारदजी ने जो कह दिया उसे सत्य जानकर मैं बिना ही पाँख के उड़ना चाहती हूँ ॥ ३ ॥

देखहु मुनि अबिबेकु हमारा । चाहिअ सदा सिवहि भरतारा ॥ ४ ॥

हे मुनियों! आप मेरा अज्ञान तो देखिए कि मैं सदा शिवजी को ही पति बनाना चाहती हूँ ॥ ४ ॥

दोहा :

सुनत बचन बिहसे रिषय गिरिसंभव तव देह ।
नारद कर उपदेसु सुनि कहहु बसेउ किसु गेह ॥ ७८ ॥

पार्वतीजी की बात सुनते ही ऋषि लोग हँस पड़े और बोले - तुम्हारा शरीर पर्वत से ही तो उत्पन्न हुआ है! भला, कहो तो नारद का उपदेश सुनकर आज तक किसका घर बसा है? ॥ ७८ ॥

चौपाई :

दच्छसुतन्ह उपदेसेन्हि जाई । तिन्ह फिरि भवनु न देखा आई ॥
चित्रकेतु कर घरु उन घाला । कनककसिपु कर पुनि अस हाला ॥ १ ॥

उन्होंने जाकर दक्ष के पुत्रों को उपदेश दिया था, जिससे उन्होंने फिर लौटकर घर का मुँह भी नहीं देखा । चित्रकेतु के घर को नारद ने ही चौपट किया । फिर यही हाल हिरण्यकशिपु का हुआ ॥ १ ॥

नारद सिख जे सुनहिं नर नारी । अवसि होहिं तजि भवनु भिखारी ॥
मन कपटी तन सज्जन चीन्हा । आपु सरिस सबही चह कीन्हा ॥ २ ॥

जो स्त्री-पुरुष नारद की सीख सुनते हैं, वे घर-बार छोड़कर अवश्य ही भिखारी हो जाते हैं । उनका मन तो कपटी है, शरीर पर सज्जनों के चिह्न हैं । वे सभी को अपने समान बनाना चाहते हैं ॥ २ ॥

तेहि कें बचन मानि बिस्वासा । तुम्ह चाहहु पति सहज उदासा ॥
निर्गुन निलज कुबेष कपाली । अकुल अगेह दिगंबर ब्याली ॥ ३ ॥

उनके वचनों पर विश्वास मानकर तुम ऐसा पति चाहती हो जो स्वभाव से ही उदासीन, गुणहीन, निर्लज्ज, बुरे वेषवाला, नर-कपालों की माला पहनने वाला, कुलहीन, बिना घर-बार का, नंगा और शरीर पर साँपों को लपेटे रखने वाला है ॥ ३ ॥

कहहु कवन सुखु अस बरु पाएँ । भल भूलिहु ठग के बौराएँ ॥
पंच कहें सिवँ सती बिबाही । पुनि अवडेरि मराएन्हि ताही ॥ ४ ॥

ऐसे वर के मिलने से कहो, तुम्हें क्या सुख होगा? तुम उस ठग (नारद) के बहकावे में आकर खूब भूलीं । पहले पंचों के कहने से शिव ने सती से विवाह किया था, परन्तु फिर उसे त्यागकर मरवा डाला ॥

दोहा :

अब सुख सोवत सोचु नहिं भीख मागि भव खाहिं ।
सहज एकाकिन्ह के भवन कबहुँ कि नारि खटाहिं ॥ ७९ ॥

अब शिव को कोई चिन्ता नहीं रही, भीख माँगकर खा लेते हैं और सुख से सोते हैं । ऐसे स्वभाव से ही अकेले रहने वालों के घर भी भला क्या कभी स्त्रियाँ टिक सकती हैं? ॥ ७९ ॥

चौपाई :

अजहूँ मानहु कहा हमारा । हम तुम्ह कहुँ बरु नीक बिचारा ॥
अति सुंदर सुचि सुखद सुसीला । गावहिं बेद जासु जस लीला ॥ १ ॥

अब भी हमारा कहा मानो, हमने तुम्हारे लिए अच्छा वर विचारा है । वह बहुत ही सुंदर, पवित्र, सुखदायक और सुशील है, जिसका यश और लीला वेद गाते हैं ॥ १ ॥

दूषन रहित सकल गुन रासी । श्रीपति पुर बैकुंठ निवासी ॥
अस बरु तुम्हहि मिलाउब आनी । सुनत बिहसि कह बचन भवानी ॥ २ ॥

वह दोषों से रहित, सारे सद्‍गुणों की राशि, लक्ष्मी का स्वामी और वैकुण्ठपुरी का रहने वाला है । हम ऐसे वर को लाकर तुमसे मिला देंगे । यह सुनते ही पार्वतीजी हँसकर बोलीं - ॥ २ ॥

सत्य कहेहु गिरिभव तनु एहा । हठ न छूट छूटै बरु देहा ॥
कनकउ पुनि पषान तें होई । जारेहुँ सहजु न परिहर सोई ॥ ३ ॥

आपने यह सत्य ही कहा कि मेरा यह शरीर पर्वत से उत्पन्न हुआ है, इसलिए हठ नहीं छूटेगा, शरीर भले ही छूट जाए । सोना भी पत्थर से ही उत्पन्न होता है, सो वह जलाए जाने पर भी अपने स्वभाव (सुवर्णत्व) को नहीं छोड़ता ॥ ३ ॥

नारद बचन न मैं परिहरऊँ । बसउ भवनु उजरउ नहिं डरउँ ॥
गुर कें बचन प्रतीति न जेही । सपनेहुँ सुगम न सुख सिधि तेही ॥ ४ ॥

अतः मैं नारदजी के वचनों को नहीं छोड़ूँगी, चाहे घर बसे या उजड़े, इससे मैं नहीं डरती । जिसको गुरु के वचनों में विश्वास नहीं है, उसको सुख और सिद्धि स्वप्न में भी सुगम नहीं होती ॥ ४ ॥

दोहा :

महादेव अवगुन भवन बिष्नु सकल गुन धाम ।
जेहि कर मनु रम जाहि सन तेहि तेही सन काम ॥ ८० ॥

माना कि महादेवजी अवगुणों के भवन हैं और विष्णु समस्त सद्‍गुणों के धाम हैं, पर जिसका मन जिसमें रम गया, उसको तो उसी से काम है ॥ ८० ॥

चौपाई :

जौं तुम्ह मिलतेहु प्रथम मुनीसा । सुनतिउँ सिख तुम्हारि धरि सीसा ॥
अब मैं जन्मु संभु हित हारा । को गुन दूषन करै बिचारा ॥ १ ॥

हे मुनीश्वरों! यदि आप पहले मिलते, तो मैं आपका उपदेश सिर-माथे रखकर सुनती, परन्तु अब तो मैं अपना जन्म शिवजी के लिए हार चुकी! फिर गुण-दोषों का विचार कौन करे? ॥ १ ॥

जौं तुम्हरे हठ हृदयँ बिसेषी । रहि न जाइ बिनु किएँ बरेषी ॥
तौ कौतुकिअन्ह आलसु नाहीं । बर कन्या अनेक जग माहीं ॥ २ ॥

यदि आपके हृदय में बहुत ही हठ है और विवाह की बातचीत (बरेखी) किए बिना आपसे रहा ही नहीं जाता, तो संसार में वर-कन्या बहुत हैं । खिलवाड़ करने वालों को आलस्य तो होता नहीं (और कहीं जाकर कीजिए) ॥ २ ॥

जन्म कोटि लगि रगर हमारी । बरउँ संभु न त रहउँ कुआरी ॥
तजउँ न नारद कर उपदेसू । आपु कहहिं सत बार महेसू ॥ ३ ॥

मेरा तो करोड़ जन्मों तक यही हठ रहेगा कि या तो शिवजी को वरूँगी, नहीं तो कुमारी ही रहूँगी । स्वयं शिवजी सौ बार कहें, तो भी नारदजी के उपदेश को न छोड़ूँगी ॥ ३ ॥

मैं पा परउँ कहइ जगदंबा । तुम्ह गृह गवनहु भयउ बिलंबा ॥
देखि प्रेमु बोले मुनि ग्यानी । जय जय जगदंबिके भवानी ॥ ४ ॥

जगज्जननी पार्वतीजी ने फिर कहा कि मैं आपके पैरों पड़ती हूँ । आप अपने घर जाइए, बहुत देर हो गई । (शिवजी में पार्वतीजी का ऐसा) प्रेम देखकर ज्ञानी मुनि बोले - हे जगज्जननी! हे भवानी! आपकी जय हो! जय हो!! ॥ ४ ॥

दोहा :

तुम्ह माया भगवान सिव सकल गजत पितु मातु ।
नाइ चरन सिर मुनि चले पुनि पुनि हरषत गातु ॥ ८१ ॥

आप माया हैं और शिवजी भगवान हैं । आप दोनों समस्त जगत के माता-पिता हैं । (यह कहकर) मुनि पार्वतीजी के चरणों में सिर नवाकर चल दिए । उनके शरीर बार-बार पुलकित हो रहे थे ॥ ८१ ॥

चौपाई :

जाइ मुनिन्ह हिमवंतु पठाए । करि बिनती गिरजहिं गृह ल्याए ॥
बहुरि सप्तरिषि सिव पहिं जाई । कथा उमा कै सकल सुनाई ॥ १ ॥

मुनियों ने जाकर हिमवान् को पार्वतीजी के पास भेजा और वे विनती करके उनको घर ले आए, फिर सप्तर्षियों ने शिवजी के पास जाकर उनको पार्वतीजी की सारी कथा सुनाई ॥ १ ॥

भए मगन सिव सुनत सनेहा । हरषि सप्तरिषि गवने गेहा ॥
मनु थिर करि तब संभु सुजाना । लगे करन रघुनायक ध्याना ॥ २ ॥

पार्वतीजी का प्रेम सुनते ही शिवजी आनन्दमग्न हो गए । सप्तर्षि प्रसन्न होकर अपने घर (ब्रह्मलोक) को चले गए । तब सुजान शिवजी मन को स्थिर करके श्री रघुनाथजी का ध्यान करने लगे ॥ २ ॥

तारकु असुर भयउ तेहि काला । भुज प्रताप बल तेज बिसाला ॥
तेहिं सब लोक लोकपति जीते । भए देव सुख संपति रीते ॥ ३ ॥

उसी समय तारक नाम का असुर हुआ, जिसकी भुजाओं का बल, प्रताप और तेज बहुत बड़ा था । उसने सब लोक और लोकपालों को जीत लिया, सब देवता सुख और सम्पत्ति से रहित हो गए ॥ ३ ॥

अजर अमर सो जीति न जाई । हारे सुर करि बिबिध लराई ॥
तब बिरंचि सन जाइ पुकारे । देखे बिधि सब देव दुखारे ॥ ४ ॥

वह अजर-अमर था, इसलिए किसी से जीता नहीं जाता था । देवता उसके साथ बहुत तरह की लड़ाइयाँ लड़कर हार गए । तब उन्होंने ब्रह्माजी के पास जाकर पुकार मचाई । ब्रह्माजी ने सब देवताओं को दुःखी देखा ॥ ४ ॥

दोहा :

सब सन कहा बुझाइ बिधि दनुज निधन तब होइ ।
संभु सुक्र संभूत सुत एहि जीतइ रन सोइ ॥ ८२ ॥

ब्रह्माजी ने सबको समझाकर कहा - इस दैत्य की मृत्यु तब होगी जब शिवजी के वीर्य से पुत्र उत्पन्न हो, इसको युद्ध में वही जीतेगा ॥ ८२ ॥

चौपाई :

मोर कहा सुनि करहु उपाई । होइहि ईस्वर करिहि सहाई ॥
सतीं जो तजी दच्छ मख देहा । जनमी जाइ हिमाचल गेहा ॥ १ ॥

मेरी बात सुनकर उपाय करो । ईश्वर सहायता करेंगे और काम हो जाएगा । सतीजी ने जो दक्ष के यज्ञ में देह का त्याग किया था, उन्होंने अब हिमाचल के घर जाकर जन्म लिया है ॥ १ ॥

तेहिं तपु कीन्ह संभु पति लागी । सिव समाधि बैठे सबु त्यागी ॥
जदपि अहइ असमंजस भारी । तदपि बात एक सुनहु हमारी ॥ २ ॥

उन्होंने शिवजी को पति बनाने के लिए तप किया है, इधर शिवजी सब छोड़-छाड़कर समाधि लगा बैठे हैं । यद्यपि है तो बड़े असमंजस की बात, तथापि मेरी एक बात सुनो ॥ २ ॥

पठवहु कामु जाइ सिव पाहीं । करै छोभु संकर मन माहीं ॥
तब हम जाइ सिवहि सिर नाई । करवाउब बिबाहु बरिआई ॥ ३ ॥

तुम जाकर कामदेव को शिवजी के पास भेजो, वह शिवजी के मन में क्षोभ उत्पन्न करे (उनकी समाधि भंग करे) । तब हम जाकर शिवजी के चरणों में सिर रख देंगे और जबरदस्ती (उन्हें राजी करके) विवाह करा देंगे ॥ ३ ॥

एहि बिधि भलेहिं देवहित होई । मत अति नीक कहइ सबु कोई ॥
अस्तुति सुरन्ह कीन्हि अति हेतू । प्रगटेउ बिषमबान झषकेतू ॥ ४ ॥

इस प्रकार से भले ही देवताओं का हित हो (और तो कोई उपाय नहीं है) सबने कहा - यह सम्मति बहुत अच्छी है । फिर देवताओं ने बड़े प्रेम से स्तुति की । तब विषम (पाँच) बाण धारण करने वाला और मछली के चिह्नयुक्त ध्वजा वाला कामदेव प्रकट हुआ ॥ ४ ॥