दोहा :

सकल सुरन्ह के हृदयँ अस संकर परम उछाहु ।
निज नयनन्हि देखा चहहिं नाथ तुम्हार बिबाहु ॥ ८८ ॥

हे शंकर! सब देवताओं के मन में ऐसा परम उत्साह है कि हे नाथ! वे अपनी आँखों से आपका विवाह देखना चाहते हैं ॥ ८८ ॥

चौपाई :

यह उत्सव देखिअ भरि लोचन । सोइ कछु करहु मदन मद मोचन ॥
कामु जारि रति कहुँ बरु दीन्हा । कृपासिन्धु यह अति भल कीन्हा ॥ १ ॥

हे कामदेव के मद को चूर करने वाले! आप ऐसा कुछ कीजिए, जिससे सब लोग इस उत्सव को नेत्र भरकर देखें । हे कृपा के सागर! कामदेव को भस्म करके आपने रति को जो वरदान दिया, सो बहुत ही अच्छा किया ॥ १ ॥

सासति करि पुनि करहिं पसाऊ । नाथ प्रभुन्ह कर सहज सुभाऊ ॥
पारबतीं तपु कीन्ह अपारा । करहु तासु अब अंगीकारा ॥ २ ॥

हे नाथ! श्रेष्ठ स्वामियों का यह सहज स्वभाव ही है कि वे पहले दण्ड देकर फिर कृपा किया करते हैं । पार्वती ने अपार तप किया है, अब उन्हें अंगीकार कीजिए ॥ २ ॥

सुनि बिधि बिनय समुझि प्रभु बानी । ऐसेइ होउ कहा सुखु मानी ॥
तब देवन्ह दुंदुभीं बजाईं । बरषि सुमन जय जय सुर साईं ॥ ३ ॥

ब्रह्माजी की प्रार्थना सुनकर और प्रभु श्री रामचन्द्रजी के वचनों को याद करके शिवजी ने प्रसन्नतापूर्वक कहा - ‘ऐसा ही हो । ’ तब देवताओं ने नगाड़े बजाए और फूलों की वर्षा करके ‘जय हो! देवताओं के स्वामी जय हो’ ऐसा कहने लगे ॥ ३ ॥

अवसरु जानि सप्तरिषि आए । तुरतहिं बिधि गिरिभवन पठाए ॥
प्रथम गए जहँ रहीं भवानी । बोले मधुर बचन छल सानी ॥ ४ ॥

उचित अवसर जानकर सप्तर्षि आए और ब्रह्माजी ने तुरंत ही उन्हें हिमाचल के घर भेज दिया । वे पहले वहाँ गए जहाँ पार्वतीजी थीं और उनसे छल से भरे मीठे (विनोदयुक्त, आनंद पहुँचाने वाले) वचन बोले - ॥ ४ ॥

दोहा :

कहा हमार न सुनेहु तब नारद कें उपदेस ॥
अब भा झूठ तुम्हार पन जारेउ कामु महेस ॥ ८९ ॥

नारदजी के उपदेश से तुमने उस समय हमारी बात नहीं सुनी । अब तो तुम्हारा प्रण झूठा हो गया, क्योंकि महादेवजी ने काम को ही भस्म कर डाला ॥ ८९ ॥

मासपारायण, तीसरा विश्राम

चौपाई :

सुनि बोलीं मुसुकाइ भवानी । उचित कहेहु मुनिबर बिग्यानी ॥
तुम्हरें जान कामु अब जारा । अब लगि संभु रहे सबिकारा ॥ १ ॥

यह सुनकर पार्वतीजी मुस्कुराकर बोलीं - हे विज्ञानी मुनिवरों! आपने उचित ही कहा । आपकी समझ में शिवजी ने कामदेव को अब जलाया है, अब तक तो वे विकारयुक्त (कामी) ही रहे! ॥ १ ॥

हमरें जान सदासिव जोगी । अज अनवद्य अकाम अभोगी ॥
जौं मैं सिव सेये अस जानी । प्रीति समेत कर्म मन बानी ॥ २ ॥

किन्तु हमारी समझ से तो शिवजी सदा से ही योगी, अजन्मे, अनिन्द्य, कामरहित और भोगहीन हैं और यदि मैंने शिवजी को ऐसा समझकर ही मन, वचन और कर्म से प्रेम सहित उनकी सेवा की है ॥ २ ॥

तौ हमार पन सुनहु मुनीसा । करिहहिं सत्य कृपानिधि ईसा ॥
तुम्ह जो कहा हर जारेउ मारा । सोइ अति बड़ अबिबेकु तुम्हारा ॥ ३ ॥

तो हे मुनीश्वरो! सुनिए, वे कृपानिधान भगवान मेरी प्रतिज्ञा को सत्य करेंगे । आपने जो यह कहा कि शिवजी ने कामदेव को भस्म कर दिया, यही आपका बड़ा भारी अविवेक है ॥ ३ ॥

तात अनल कर सहज सुभाऊ । हिम तेहि निकट जाइ नहिं काऊ ॥
गएँ समीप सो अवसि नसाई । असि मन्मथ महेस की नाई ॥ ४ ॥

हे तात! अग्नि का तो यह सहज स्वभाव ही है कि पाला उसके समीप कभी जा ही नहीं सकता और जाने पर वह अवश्य नष्ट हो जाएगा । महादेवजी और कामदेव के संबंध में भी यही न्याय (बात) समझना चाहिए ॥ ४ ॥

दोहा :

हियँ हरषे मुनि बचन सुनि देखि प्रीति बिस्वास ।
चले भवानिहि नाइ सिर गए हिमाचल पास ॥ ९० ॥

पार्वती के वचन सुनकर और उनका प्रेम तथा विश्वास देखकर मुनि हृदय में बड़े प्रसन्न हुए । वे भवानी को सिर नवाकर चल दिए और हिमाचल के पास पहुँचे ॥ ९० ॥

चौपाई :

सबु प्रसंगु गिरिपतिहि सुनावा । मदन दहन सुनि अति दुखु पावा ॥
बहुरि कहेउ रति कर बरदाना । सुनि हिमवंत बहुत सुखु माना ॥ १ ॥

उन्होंने पर्वतराज हिमाचल को सब हाल सुनाया । कामदेव का भस्म होना सुनकर हिमाचल बहुत दुःखी हुए । फिर मुनियों ने रति के वरदान की बात कही, उसे सुनकर हिमवान् ने बहुत सुख माना ॥ १ ॥

हृदयँ बिचारि संभु प्रभुताई । सादर मुनिबर लिए बोलाई ।
सुदिनु सुनखतु सुघरी सोचाई । बेगि बेदबिधि लगन धराई ॥ २ ॥

शिवजी के प्रभाव को मन में विचार कर हिमाचल ने श्रेष्ठ मुनियों को आदरपूर्वक बुला लिया और उनसे शुभ दिन, शुभ नक्षत्र और शुभ घड़ी शोधवाकर वेद की विधि के अनुसार शीघ्र ही लग्न निश्चय कराकर लिखवा लिया ॥ २ ॥

पत्री सप्तरिषिन्ह सोइ दीन्ही । गहि पद बिनय हिमाचल कीन्ही ॥
जाइ बिधिहि तिन्ह दीन्हि सो पाती । बाचत प्रीति न हृदयँ समाती ॥ ३ ॥

फिर हिमाचल ने वह लग्नपत्रिका सप्तर्षियों को दे दी और चरण पकड़कर उनकी विनती की । उन्होंने जाकर वह लग्न पत्रिका ब्रह्माजी को दी । उसको पढ़ते समय उनके हृदय में प्रेम समाता न था ॥ ३ ॥

लगन बाचि अज सबहि सुनाई । हरषे मुनि सब सुर समुदाई ॥
सुमन बृष्टि नभ बाजन बाजे । मंगल कलस दसहुँ दिसि साजे ॥ ४ ॥

ब्रह्माजी ने लग्न पढ़कर सबको सुनाया, उसे सुनकर सब मुनि और देवताओं का सारा समाज हर्षित हो गया । आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी, बाजे बजने लगे और दसों दिशाओं में मंगल कलश सजा दिए गए ॥ ४ ॥