दोहा :

जाइ देखि आवहु नगरु सुख निधान दोउ भाइ ।
करहु सुफल सब के नयन सुंदर बदन देखाइ ॥ २१८ ॥

सुख के निधान दोनों भाई जाकर नगर देख आओ । अपने सुंदर मुख दिखलाकर सब (नगर निवासियों) के नेत्रों को सफल करो ॥ २१८ ॥

चौपाई :

मुनि पद कमल बंदि दोउ भ्राता । चले लोक लोचन सुख दाता ॥
बालक बृंद देखि अति सोभा । लगे संग लोचन मनु लोभा ॥ १ ॥

सब लोकों के नेत्रों को सुख देने वाले दोनों भाई मुनि के चरणकमलों की वंदना करके चले । बालकों के झुंड इन (के सौंदर्य) की अत्यन्त शोभा देखकर साथ लग गए । उनके नेत्र और मन (इनकी माधुरी पर) लुभा गए ॥ १ ॥

पीत बसन परिकर कटि भाथा । चारु चाप सर सोहत हाथा ॥
तन अनुहरत सुचंदन खोरी । स्यामल गौर मनोहर जोरी ॥ २ ॥

(दोनों भाइयों के) पीले रंग के वस्त्र हैं, कमर के (पीले) दुपट्टों में तरकस बँधे हैं । हाथों में सुंदर धनुष-बाण सुशोभित हैं । (श्याम और गौर वर्ण के) शरीरों के अनुकूल (अर्थात् जिस पर जिस रंग का चंदन अधिक फबे उस पर उसी रंग के) सुंदर चंदन की खौर लगी है । साँवरे और गोरे (रंग) की मनोहर जोड़ी है ॥ २ ॥

केहरि कंधर बाहु बिसाला । उर अति रुचिर नागमनि माला ॥
सुभग सोन सरसीरुह लोचन । बदन मयंक तापत्रय मोचन ॥ ३ ॥

सिंह के समान (पुष्ट) गर्दन (गले का पिछला भाग) है, विशाल भुजाएँ हैं । (चौड़ी) छाती पर अत्यन्त सुंदर गजमुक्ता की माला है । सुंदर लाल कमल के समान नेत्र हैं । तीनों तापों से छुड़ाने वाला चन्द्रमा के समान मुख है ॥ ३ ॥

कानन्हि कनक फूल छबि देहीं । चितवत चितहि चोरि जनु लेहीं ॥
चितवनि चारु भृकुटि बर बाँकी । तिलक रेख सोभा जनु चाँकी ॥ ४ ॥

कानों में सोने के कर्णफूल (अत्यन्त) शोभा दे रहे हैं और देखते ही (देखने वाले के) चित्त को मानो चुरा लेते हैं । उनकी चितवन (दृष्टि) बड़ी मनोहर है और भौंहें तिरछी एवं सुंदर हैं । (माथे पर) तिलक की रेखाएँ ऐसी सुंदर हैं, मानो (मूर्तिमती) शोभा पर मुहर लगा दी गई है ॥ ४ ॥

दोहा :

रुचिर चौतनीं सुभग सिर मेचक कुंचित केस ।
नख सिख सुंदर बंधु दोउ सोभा सकल सुदेस ॥ २१९ ॥

सिर पर सुंदर चौकोनी टोपियाँ (दिए) हैं, काले और घुँघराले बाल हैं । दोनों भाई नख से लेकर शिखा तक (एड़ी से चोटी तक) सुंदर हैं और सारी शोभा जहाँ जैसी चाहिए वैसी ही है ॥ २१९ ॥

चौपाई :

देखन नगरु भूपसुत आए । समाचार पुरबासिन्ह पाए ॥
धाए धाम काम सब त्यागी । मनहुँ रंक निधि लूटन लागी ॥ १ ॥

जब पुरवासियों ने यह समाचार पाया कि दोनों राजकुमार नगर देखने के लिए आए हैं, तब वे सब घर-बार और सब काम-काज छोड़कर ऐसे दौड़े मानो दरिद्री (धन का) खजाना लूटने दौड़े हों ॥ १ ॥

निरखि सहज सुंदर दोउ भाई । होहिं सुखी लोचन फल पाई ॥
जुबतीं भवन झरोखन्हि लागीं । निरखहिं राम रूप अनुरागीं ॥ २ ॥

स्वभाव ही से सुंदर दोनों भाइयों को देखकर वे लोग नेत्रों का फल पाकर सुखी हो रहे हैं । युवती स्त्रियाँ घर के झरोखों से लगी हुई प्रेम सहित श्री रामचन्द्रजी के रूप को देख रही हैं ॥ २ ॥

कहहिं परसपर बचन सप्रीती । सखि इन्ह कोटि काम छबि जीती ॥
सुर नर असुर नाग मुनि माहीं । सोभा असि कहुँ सुनिअति नाहीं ॥ ३ ॥

वे आपस में बड़े प्रेम से बातें कर रही हैं - हे सखी! इन्होंने करोड़ों कामदेवों की छबि को जीत लिया है । देवता, मनुष्य, असुर, नाग और मुनियों में ऐसी शोभा तो कहीं सुनने में भी नहीं आती ॥ ३ ॥

बिष्नु चारि भुज बिधि मुख चारी । बिकट बेष मुख पंच पुरारी ॥
अपर देउ अस कोउ ना आही । यह छबि सखी पटतरिअ जाही ॥ ४ ॥

भगवान विष्णु के चार भुजाएँ हैं, ब्रह्माजी के चार मुख हैं, शिवजी का विकट (भयानक) वेष है और उनके पाँच मुँह हैं । हे सखी! दूसरा देवता भी कोई ऐसा नहीं है, जिसके साथ इस छबि की उपमा दी जाए ॥ ४ ॥

दोहा :

बय किसोर सुषमा सदन स्याम गौर सुख धाम ।
अंग अंग पर वारिअहिं कोटि कोटि सत काम ॥ २२० ॥

इनकी किशोर अवस्था है, ये सुंदरता के घर, साँवले और गोरे रंग के तथा सुख के धाम हैं । इनके अंग-अंग पर करोड़ों-अरबों कामदेवों को निछावर कर देना चाहिए ॥ २२० ॥

चौपाई :

कहहु सखी अस को तनु धारी । जो न मोह यह रूप निहारी ॥
कोउ सप्रेम बोली मृदु बानी । जो मैं सुना सो सुनहु सयानी ॥ १ ॥

हे सखी! (भला) कहो तो ऐसा कौन शरीरधारी होगा, जो इस रूप को देखकर मोहित न हो जाए (अर्थात यह रूप जड़-चेतन सबको मोहित करने वाला है) । (तब) कोई दूसरी सखी प्रेम सहित कोमल वाणी से बोली- हे सयानी! मैंने जो सुना है उसे सुनो- ॥ १ ॥

ए दोऊ दसरथ के ढोटा । बाल मरालन्हि के कल जोटा ॥
मुनि कौसिक मख के रखवारे । जिन्ह रन अजिर निसाचर मारे ॥ २ ॥

ये दोनों (राजकुमार) महाराज दशरथजी के पुत्र हैं! बाल राजहंसों का सा सुंदर जोड़ा है । ये मुनि विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा करने वाले हैं, इन्होंने युद्ध के मैदान में राक्षसों को मारा है ॥ २ ॥

स्याम गात कल कंज बिलोचन । जो मारीच सुभुज मदु मोचन ॥
कौसल्या सुत सो सुख खानी । नामु रामु धनु सायक पानी ॥ ३ ॥

जिनका श्याम शरीर और सुंदर कमल जैसे नेत्र हैं, जो मारीच और सुबाहु के मद को चूर करने वाले और सुख की खान हैं और जो हाथ में धनुष-बाण लिए हुए हैं, वे कौसल्याजी के पुत्र हैं, इनका नाम राम है ॥ ३ ॥

गौर किसोर बेषु बर काछें । कर सर चाप राम के पाछें ॥
लछिमनु नामु राम लघु भ्राता । सुनु सखि तासु सुमित्रा माता ॥ ४ ॥

जिनका रंग गोरा और किशोर अवस्था है और जो सुंदर वेष बनाए और हाथ में धनुष-बाण लिए श्री रामजी के पीछे-पीछे चल रहे हैं, वे इनके छोटे भाई हैं, उनका नाम लक्ष्मण है । हे सखी! सुनो, उनकी माता सुमित्रा हैं ॥ ४ ॥

दोहा :

बिप्रकाजु करि बंधु दोउ मग मुनिबधू उधारि ।
आए देखन चापमख सुनि हरषीं सब नारि ॥ २२१ ॥

दोनों भाई ब्राह्मण विश्वामित्र का काम करके और रास्ते में मुनि गौतम की स्त्री अहल्या का उद्धार करके यहाँ धनुषयज्ञ देखने आए हैं । यह सुनकर सब स्त्रियाँ प्रसन्न हुईं ॥ २२१ ॥

चौपाई :

देखि राम छबि कोउ एक कहई । जोगु जानकिहि यह बरु अहई ॥
जौं सखि इन्हहि देख नरनाहू । पन परिहरि हठि करइ बिबाहू ॥ १ ॥

श्री रामचन्द्रजी की छबि देखकर कोई एक (दूसरी सखी) कहने लगी- यह वर जानकी के योग्य है । हे सखी! यदि कहीं राजा इन्हें देख ले, तो प्रतिज्ञा छोड़कर हठपूर्वक इन्हीं से विवाह कर देगा ॥ १ ॥

कोउ कह ए भूपति पहिचाने । मुनि समेत सादर सनमाने ॥
सखि परंतु पनु राउ न तजई । बिधि बस हठि अबिबेकहि भजई ॥ २ ॥

किसी ने कहा - राजा ने इन्हें पहचान लिया है और मुनि के सहित इनका आदरपूर्वक सम्मान किया है, परंतु हे सखी! राजा अपना प्रण नहीं छोड़ता । वह होनहार के वशीभूत होकर हठपूर्वक अविवेक का ही आश्रय लिए हुए हैं (प्रण पर अड़े रहने की मूर्खता नहीं छोड़ता) ॥ २ ॥

कोउ कह जौं भल अहइ बिधाता । सब कहँ सुनिअ उचित फल दाता ॥
तौ जानकिहि मिलिहि बरु एहू । नाहिन आलि इहाँ संदेहू ॥ ३ ॥

कोई कहती है - यदि विधाता भले हैं और सुना जाता है कि वे सबको उचित फल देते हैं, तो जानकीजी को यही वर मिलेगा । हे सखी! इसमें संदेह नहीं है ॥ ३ ॥

जौं बिधि बस अस बनै सँजोगू । तौ कृतकृत्य होइ सब लोगू ॥
सखि हमरें आरति अति तातें । कबहुँक ए आवहिं एहि नातें ॥ ४ ॥

जो दैवयोग से ऐसा संयोग बन जाए, तो हम सब लोग कृतार्थ हो जाएँ । हे सखी! मेरे तो इसी से इतनी अधिक आतुरता हो रही है कि इसी नाते कभी ये यहाँ आवेंगे ॥ ४ ॥

दोहा :

नाहिं त हम कहुँ सुनहु सखि इन्ह कर दरसनु दूरि ।
यह संघटु तब होइ जब पुन्य पुराकृत भूरि ॥ २२२ ॥

नहीं तो (विवाह न हुआ तो) हे सखी! सुनो, हमको इनके दर्शन दुर्लभ हैं । यह संयोग तभी हो सकता है, जब हमारे पूर्वजन्मों के बहुत पुण्य हों ॥ २२२ ॥

चौपाई :

बोली अपर कहेहु सखि नीका । एहिं बिआह अति हित सबही का ।
कोउ कह संकर चाप कठोरा । ए स्यामल मृदु गात किसोरा ॥ १ ॥

दूसरी ने कहा - हे सखी! तुमने बहुत अच्छा कहा । इस विवाह से सभी का परम हित है । किसी ने कहा - शंकरजी का धनुष कठोर है और ये साँवले राजकुमार कोमल शरीर के बालक हैं ॥ १ ॥

सबु असमंजस अहइ सयानी । यह सुनि अपर कहइ मृदु बानी ॥
सखि इन्ह कहँ कोउ कोउ अस कहहीं । बड़ प्रभाउ देखत लघु अहहीं ॥ २ ॥

हे सयानी! सब असमंजस ही है । यह सुनकर दूसरी सखी कोमल वाणी से कहने लगी- हे सखी! इनके संबंध में कोई-कोई ऐसा कहते हैं कि ये देखने में तो छोटे हैं, पर इनका प्रभाव बहुत बड़ा है ॥ २ ॥

परसि जासु पद पंकज धूरी । तरी अहल्या कृत अघ भूरी ॥
सो कि रहिहि बिनु सिव धनु तोरें । यह प्रतीति परिहरिअ न भोरें ॥ ३ ॥

जिनके चरणकमलों की धूलि का स्पर्श पाकर अहल्या तर गई, जिसने बड़ा भारी पाप किया था, वे क्या शिवजी का धनुष बिना तोड़े रहेंगे । इस विश्वास को भूलकर भी नहीं छोड़ना चाहिए ॥ ३ ॥

जेहिं बिरंचि रचि सीय सँवारी । तेहिं स्यामल बरु रचेउ बिचारी ॥
तासु बचन सुनि सब हरषानीं । ऐसेइ होउ कहहिं मृदु बानीं ॥ ४ ॥

जिस ब्रह्मा ने सीता को सँवारकर (बड़ी चतुराई से) रचा है, उसी ने विचार कर साँवला वर भी रच रखा है । उसके ये वचन सुनकर सब हर्षित हुईं और कोमल वाणी से कहने लगीं- ऐसा ही हो ॥ ४ ॥

दोहा :

हियँ हरषहिं बरषहिं सुमन सुमुखि सुलोचनि बृंद ।
जाहिं जहाँ जहँ बंधु दोउ तहँ तहँ परमानंद ॥ २२३ ॥

सुंदर मुख और सुंदर नेत्रों वाली स्त्रियाँ समूह की समूह हृदय में हर्षित होकर फूल बरसा रही हैं । जहाँ-जहाँ दोनों भाई जाते हैं, वहाँ-वहाँ परम आनंद छा जाता है ॥ २२३ ॥

चौपाई :

पुर पूरब दिसि गे दोउ भाई । जहँ धनुमख हित भूमि बनाई ॥
अति बिस्तार चारु गच ढारी । बिमल बेदिका रुचिर सँवारी ॥ १ ॥

दोनों भाई नगर के पूरब ओर गए, जहाँ धनुषयज्ञ के लिए (रंग) भूमि बनाई गई थी । बहुत लंबा-चौड़ा सुंदर ढाला हुआ पक्का आँगन था, जिस पर सुंदर और निर्मल वेदी सजाई गई थी ॥ १ ॥

चहुँ दिसि कंचन मंच बिसाला । रचे जहाँ बैठहिं महिपाला ॥
तेहि पाछें समीप चहुँ पासा । अपर मंच मंडली बिलासा ॥ २ ॥

चारों ओर सोने के बड़े-बड़े मंच बने थे, जिन पर राजा लोग बैठेंगे । उनके पीछे समीप ही चारों ओर दूसरे मचानों का मंडलाकार घेरा सुशोभित था ॥ २ ॥

कछुक ऊँचि सब भाँति सुहाई । बैठहिं नगर लोग जहँ जाई ॥
तिन्ह के निकट बिसाल सुहाए । धवल धाम बहुबरन बनाए ॥ ३ ॥

वह कुछ ऊँचा था और सब प्रकार से सुंदर था, जहाँ जाकर नगर के लोग बैठेंगे । उन्हीं के पास विशाल एवं सुंदर सफेद मकान अनेक रंगों के बनाए गए हैं ॥ ३ ॥

जहँ बैठें देखहिं सब नारी । जथाजोगु निज कुल अनुहारी ॥
पुर बालक कहि कहि मृदु बचना । सादर प्रभुहि देखावहिं रचना ॥ ४ ॥

जहाँ अपने-अपने कुल के अनुसार सब स्त्रियाँ यथायोग्य (जिसको जहाँ बैठना उचित है) बैठकर देखेंगी । नगर के बालक कोमल वचन कह-कहकर आदरपूर्वक प्रभु श्री रामचन्द्रजी को (यज्ञशाला की) रचना दिखला रहे हैं ॥ ४ ॥

दोहा :

सब सिसु एहि मिस प्रेमबस परसि मनोहर गात ।
तन पुलकहिं अति हरषु हियँ देखि देखि दोउ भ्रात ॥ २२४ ॥

सब बालक इसी बहाने प्रेम के वश में होकर श्री रामजी के मनोहर अंगों को छूकर शरीर से पुलकित हो रहे हैं और दोनों भाइयों को देख-देखकर उनके हृदय में अत्यन्त हर्ष हो रहा है ॥ २२४ ॥

चौपाई :

सिसु सब राम प्रेमबस जाने । प्रीति समेत निकेत बखाने ॥
निज निज रुचि सब लेहिं बोलाई । सहित सनेह जाहिं दोउ भाई ॥ १ ॥

श्री रामचन्द्रजी ने सब बालकों को प्रेम के वश जानकर (यज्ञभूमि के) स्थानों की प्रेमपूर्वक प्रशंसा की । (इससे बालकों का उत्साह, आनंद और प्रेम और भी बढ़ गया, जिससे) वे सब अपनी-अपनी रुचि के अनुसार उन्हें बुला लेते हैं और (प्रत्येक के बुलाने पर) दोनों भाई प्रेम सहित उनके पास चले जाते हैं ॥ १ ॥

राम देखावहिं अनुजहि रचना । कहि मृदु मधुर मनोहर बचना ॥
लव निमेष महुँ भुवन निकाया । रचइ जासु अनुसासन माया ॥ २ ॥

कोमल, मधुर और मनोहर वचन कहकर श्री रामजी अपने छोटे भाई लक्ष्मण को (यज्ञभूमि की) रचना दिखलाते हैं । जिनकी आज्ञा पाकर माया लव निमेष (पलक गिरने के चौथाई समय) में ब्रह्माण्डों के समूह रच डालती है, ॥ २ ॥

भगति हेतु सोइ दीनदयाला । चितवत चकित धनुष मखसाला ॥
कौतुक देखि चले गुरु पाहीं । जानि बिलंबु त्रास मन माहीं ॥ ३ ॥

वही दीनों पर दया करने वाले श्री रामजी भक्ति के कारण धनुष यज्ञ शाला को चकित होकर (आश्चर्य के साथ) देख रहे हैं । इस प्रकार सब कौतुक (विचित्र रचना) देखकर वे गुरु के पास चले । देर हुई जानकर उनके मन में डर है ॥ ३ ॥

जासु त्रास डर कहुँ डर होई । भजन प्रभाउ देखावत सोई ॥
कहि बातें मृदु मधुर सुहाईं । किए बिदा बालक बरिआईं ॥ ४ ॥

जिनके भय से डर को भी डर लगता है, वही प्रभु भजन का प्रभाव (जिसके कारण ऐसे महान प्रभु भी भय का नाट्य करते हैं) दिखला रहे हैं । उन्होंने कोमल, मधुर और सुंदर बातें कहकर बालकों को जबर्दस्ती विदा किया ॥ ४ ॥

दोहा :

सभय सप्रेम बिनीत अति सकुच सहित दोउ भाइ ।
गुर पद पंकज नाइ सिर बैठे आयसु पाइ ॥ २२५ ॥

फिर भय, प्रेम, विनय और बड़े संकोच के साथ दोनों भाई गुरु के चरण कमलों में सिर नवाकर आज्ञा पाकर बैठे ॥ २२५ ॥

चौपाई :

निसि प्रबेस मुनि आयसु दीन्हा । सबहीं संध्याबंदनु कीन्हा ॥
कहत कथा इतिहास पुरानी । रुचिर रजनि जुग जाम सिरानी ॥ १ ॥

रात्रि का प्रवेश होते ही (संध्या के समय) मुनि ने आज्ञा दी, तब सबने संध्यावंदन किया । फिर प्राचीन कथाएँ तथा इतिहास कहते-कहते सुंदर रात्रि दो पहर बीत गई ॥ १ ॥

मुनिबर सयन कीन्हि तब जाई । लगे चरन चापन दोउ भाई ॥
जिन्ह के चरन सरोरुह लागी । करत बिबिध जप जोग बिरागी ॥ २ ॥

तब श्रेष्ठ मुनि ने जाकर शयन किया । दोनों भाई उनके चरण दबाने लगे, जिनके चरण कमलों के (दर्शन एवं स्पर्श के) लिए वैराग्यवान् पुरुष भी भाँति-भाँति के जप और योग करते हैं ॥ २ ॥

तेइ दोउ बंधु प्रेम जनु जीते । गुर पद कमल पलोटत प्रीते ॥
बार बार मुनि अग्या दीन्ही । रघुबर जाइ सयन तब कीन्ही ॥ ३ ॥

वे ही दोनों भाई मानो प्रेम से जीते हुए प्रेमपूर्वक गुरुजी के चरण कमलों को दबा रहे हैं । मुनि ने बार-बार आज्ञा दी, तब श्री रघुनाथजी ने जाकर शयन किया ॥ ३ ॥

चापत चरन लखनु उर लाएँ । सभय सप्रेम परम सचु पाएँ ॥
पुनि पुनि प्रभु कह सोवहु ताता । पौढ़े धरि उर पद जलजाता ॥ ४ ॥

श्री रामजी के चरणों को हृदय से लगाकर भय और प्रेम सहित परम सुख का अनुभव करते हुए लक्ष्मणजी उनको दबा रहे हैं । प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने बार-बार कहा - हे तात! (अब) सो जाओ । तब वे उन चरण कमलों को हृदय में धरकर लेटे रहे ॥ ४ ॥