दोहा :

बीच बीच बर बास करि मग लोगन्ह सुख देत ।
अवध समीप पुनीत दिन पहुँची आइ जनेत ॥ ३४३ ॥

बीच-बीच में सुंदर मुकाम करती हुई तथा मार्ग के लोगों को सुख देती हुई वह बारात पवित्र दिन में अयोध्यापुरी के समीप आ पहुँची ॥ ३४३ ॥

चौपाई :

हने निसान पनव बर बाजे । भेरि संख धुनि हय गय गाजे ॥
झाँझि बिरव डिंडिमीं सुहाई । सरस राग बाजहिं सहनाई ॥ १ ॥

नगाड़ों पर चोटें पड़ने लगीं, सुंदर ढोल बजने लगे । भेरी और शंख की बड़ी आवाज हो रही है, हाथी-घोड़े गरज रहे हैं । विशेष शब्द करने वाली झाँझें, सुहावनी डफलियाँ तथा रसीले राग से शहनाइयाँ बज रही हैं ॥ १ ॥

पुर जन आवत अकनि बराता । मुदित सकल पुलकावलि गाता ॥
निज निज सुंदर सदन सँवारे । हाट बाट चौहटपुर द्वारे ॥ २ ॥

बारात को आती हुई सुनकर नगर निवासी प्रसन्न हो गए । सबके शरीरों पर पुलकावली छा गई । सबने अपने-अपने सुंदर घरों, बाजारों, गलियों, चौराहों और नगर के द्वारों को सजाया ॥ २ ॥

गलीं सकल अरगजाँ सिंचाईं । जहँ तहँ चौकें चारु पुराईं ॥
बना बजारु न जाइ बखाना । तोरन केतु पताक बिताना ॥ ३ ॥

सारी गलियाँ अरगजे से सिंचाई गईं, जहाँ-तहाँ सुंदर चौक पुराए गए । तोरणों ध्वजा-पताकाओं और मंडपों से बाजार ऐसा सजा कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता ॥ ३ ॥

सफल पूगफल कदलि रसाला । रोपे बकुल कदंब तमाला ॥
लगे सुभग तरु परसत धरनी । मनिमय आलबाल कल करनी ॥ ४ ॥

फल सहित सुपारी, केला, आम, मौलसिरी, कदम्ब और तमाल के वृक्ष लगाए गए । वे लगे हुए सुंदर वृक्ष (फलों के भार से) पृथ्वी को छू रहे हैं । उनके मणियों के थाले बड़ी सुंदर कारीगरी से बनाए गए हैं ॥ ४ ॥

दोहा :

बिबिध भाँति मंगल कलस गृह गृह रचे सँवारि ।
सुर ब्रह्मादि सिहाहिं सब रघुबर पुरी निहारि ॥ ३४४ ॥

अनेक प्रकार के मंगल-कलश घर-घर सजाकर बनाए गए हैं । श्री रघुनाथजी की पुरी (अयोध्या) को देखकर ब्रह्मा आदि सब देवता सिहाते हैं ॥ ३४४ ॥

चौपाई :

भूप भवनु तेहि अवसर सोहा । रचना देखि मदन मनु मोहा ॥
मंगल सगुन मनोहरताई । रिधि सिधि सुख संपदा सुहाई ॥ १ ॥

उस समय राजमहल (अत्यन्त) शोभित हो रहा था । उसकी रचना देखकर कामदेव भी मन मोहित हो जाता था । मंगल शकुन, मनोहरता, ऋद्धि-सिद्धि, सुख, सुहावनी सम्पत्ति ॥ १ ॥

जनु उछाह सब सहज सुहाए । तनु धरि धरि दसरथ गृहँ छाए ॥
देखन हेतु राम बैदेही । कहहु लालसा होहि न केही ॥ २ ॥

और सब प्रकार के उत्साह (आनंद) मानो सहज सुंदर शरीर धर-धरकर दशरथजी के घर में छा गए हैं । श्री रामचन्द्रजी और सीताजी के दर्शनों के लिए भला कहिए, किसे लालसा न होगी ॥ २ ॥

जूथ जूथ मिलि चलीं सुआसिनि । निज छबि निदरहिं मदन बिलासिनि ॥
सकल सुमंगल सजें आरती । गावहिं जनु बहु बेष भारती ॥ ३ ॥

सुहागिनी स्त्रियाँ झुंड की झुंड मिलकर चलीं, जो अपनी छबि से कामदेव की स्त्री रति का भी निरादर कर रही हैं । सभी सुंदर मंगलद्रव्य एवं आरती सजाए हुए गा रही हैं, मानो सरस्वतीजी ही बहुत से वेष धारण किए गा रही हों ॥ ३ ॥

भूपति भवन कोलाहलु होई । जाइ न बरनि समउ सुखु सोई ॥
कौसल्यादि राम महतारीं । प्रेमबिबस तन दसा बिसारीं ॥ ४ ॥

राजमहल में (आनंद के मारे) शोर मच रहा है । उस समय का और सुख का वर्णन नहीं किया जा सकता । कौसल्याजी आदि श्री रामचन्द्रजी की सब माताएँ प्रेम के विशेष वश होने से शरीर की सुध भूल गईं ॥ ४ ॥

दोहा :

दिए दान बिप्रन्ह बिपुल पूजि गनेस पुरारि ।
प्रमुदित परम दरिद्र जनु पाइ पदारथ चारि ॥ ३४५ ॥

गणेशजी और त्रिपुरारि शिवजी का पूजन करके उन्होंने ब्राह्मणों को बहुत सा दान दिया । वे ऐसी परम प्रसन्न हुईं, मानो अत्यन्त दरिद्री चारों पदार्थ पा गया हो ॥ ३४५ ॥

चौपाई :

मोद प्रमोद बिबस सब माता । चलहिं न चरन सिथिल भए गाता ॥
राम दरस हित अति अनुरागीं । परिछनि साजु सजन सब लागीं ॥ १ ॥

सुख और महान आनंद से विवश होने के कारण सब माताओं के शरीर शिथिल हो गए हैं, उनके चरण चलते नहीं हैं । श्री रामचन्द्रजी के दर्शनों के लिए वे अत्यन्त अनुराग में भरकर परछन का सब सामान सजाने लगीं ॥ १ ॥

बिबिध बिधान बाजने बाजे । मंगल मुदित सुमित्राँ साजे ॥
हरद दूब दधि पल्लव फूला । पान पूगफल मंगल मूला ॥ २ ॥

अनेकों प्रकार के बाजे बजते थे । सुमित्राजी ने आनंदपूर्वक मंगल साज सजाए । हल्दी, दूब, दही, पत्ते, फूल, पान और सुपारी आदि मंगल की मूल वस्तुएँ, ॥ २ ॥

अच्छत अंकुर लोचन लाजा । मंजुल मंजरि तुलसि बिराजा ॥
छुहे पुरट घट सहज सुहाए । मदन सकुन जनु नीड़ बनाए ॥ ३ ॥

तथा अक्षत (चावल), अँखुए, गोरोचन, लावा और तुलसी की सुंदर मंजरियाँ सुशोभित हैं । नाना रंगों से चित्रित किए हुए सहज सुहावने सुवर्ण के कलश ऐसे मालूम होते हैं, मानो कामदेव के पक्षियों ने घोंसले बनाए हों ॥ ३ ॥

सगुन सुगंध न जाहिं बखानी । मंगल सकल सजहिं सब रानी ॥
रचीं आरतीं बहतु बिधाना । मुदित करहिं कल मंगल गाना ॥ ४ ॥

शकुन की सुगन्धित वस्तुएँ बखानी नहीं जा सकतीं । सब रानियाँ सम्पूर्ण मंगल साज सज रही हैं । बहुत प्रकार की आरती बनाकर वे आनंदित हुईं सुंदर मंगलगान कर रही हैं ॥ ४ ॥

दोहा :

कनक थार भरि मंगलन्हि कमल करन्हि लिएँ मात ।
चलीं मुदित परिछनि करन पुलक पल्लवित गात ॥ ३४६ ॥

सोने के थालों को मांगलिक वस्तुओं से भरकर अपने कमल के समान (कोमल) हाथों में लिए हुए माताएँ आनंदित होकर परछन करने चलीं । उनके शरीर पुलकावली से छा गए हैं ॥ ३४६ ॥

चौपाई :

धूप धूम नभु मेचक भयऊ । सावन घन घमंडु जनु ठयऊ ॥
सुरतरु सुमन माल सुर बरषहिं । मनहुँ बलाक अवलि मनु करषहिं ॥ १ ॥

धूप के धुएँ से आकाश ऐसा काला हो गया है मानो सावन के बादल घुमड़-घुमड़कर छा गए हों । देवता कल्पवृक्ष के फूलों की मालाएँ बरसा रहे हैं । वे ऐसी लगती हैं, मानो बगुलों की पाँति मन को (अपनी ओर) खींच रही हो ॥ १ ॥

मंजुल मनिमय बंदनिवारे । मनहुँ पाकरिपु चाप सँवारे ॥
प्रगटहिं दुरहिं अटन्ह पर भामिनि । चारु चपल जनु दमकहिं दामिनि ॥ २ ॥

सुंदर मणियों से बने बंदनवार ऐसे मालूम होते हैं, मानो इन्द्रधनुष सजाए हों । अटारियों पर सुंदर और चपल स्त्रियाँ प्रकट होती और छिप जाती हैं (आती-जाती हैं), वे ऐसी जान पड़ती हैं, मानो बिजलियाँ चमक रही हों ॥ २ ॥

दुंदुभि धुनि घन गरजनि घोरा । जाचक चातक दादुर मोरा ॥
सुर सुगंध सुचि बरषहिं बारी । सुखी सकल ससि पुर नर नारी ॥ ३ ॥

नगाड़ों की ध्वनि मानो बादलों की घोर गर्जना है । याचकगण पपीहे, मेंढक और मोर हैं । देवता पवित्र सुगंध रूपी जल बरसा रहे हैं, जिससे खेती के समान नगर के सब स्त्री-पुरुष सुखी हो रहे हैं ॥ ३ ॥

समउ जानि गुर आयसु दीन्हा । पुर प्रबेसु रघुकुलमनि कीन्हा ॥
सुमिरि संभु गिरिजा गनराजा । मुदित महीपति सहित समाजा ॥ ४ ॥

(प्रवेश का) समय जानकर गुरु वशिष्ठजी ने आज्ञा दी । तब रघुकुलमणि महाराज दशरथजी ने शिवजी, पार्वतीजी और गणेशजी का स्मरण करके समाज सहित आनंदित होकर नगर में प्रवेश किया ॥ ४ ॥

होहिं सगुन बरषहिं सुमन सुर दुंदभीं बजाइ ।
बिबुध बधू नाचहिं मुदित मंजुल मंगल गाइ ॥ ३४७ ॥

शकुन हो रहे हैं, देवता दुन्दुभी बजा-बजाकर फूल बरसा रहे हैं । देवताओं की स्त्रियाँ आनंदित होकर सुंदर मंगल गीत गा-गाकर नाच रही हैं ॥ ३४७ ॥

चौपाई :

मागध सूत बंदि नट नागर । गावहिं जसु तिहु लोक उजागर ॥
जय धुनि बिमल बेद बर बानी । दस दिसि सुनिअ सुमंगल सानी ॥ १ ॥

मागध, सूत, भाट और चतुर नट तीनों लोकों के उजागर (सबको प्रकाश देने वाले परम प्रकाश स्वरूप) श्री रामचन्द्रजी का यश गा रहे हैं । जय ध्वनि तथा वेद की निर्मल श्रेष्ठ वाणी सुंदर मंगल से सनी हुई दसों दिशाओं में सुनाई पड़ रही है ॥ १ ॥

बिपुल बाज ने बाजन लागे । नभ सुर नगर लोग अनुरागे ॥
बने बराती बरनि न जाहीं । महा मुदित मन सुख न समाहीं ॥ २ ॥

बहुत से बाजे बजने लगे । आकाश में देवता और नगर में लोग सब प्रेम में मग्न हैं । बाराती ऐसे बने-ठने हैं कि उनका वर्णन नहीं हो सकता । परम आनंदित हैं, सुख उनके मन में समाता नहीं है ॥ २ ॥

पुरबासिन्ह तब राय जोहारे । देखत रामहि भए सुखारे ॥
करहिं निछावरि मनिगन चीरा । बारि बिलोचन पुलक सरीरा ॥ ३ ॥

तब अयोध्यावसियों ने राजा को जोहार (वंदना) की । श्री रामचन्द्रजी को देखते ही वे सुखी हो गए । सब मणियाँ और वस्त्र निछावर कर रहे हैं । नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भरा है और शरीर पुलकित हैं ॥ ३ ॥ ।

आरति करहिं मुदित पुर नारी । हरषहिं निरखि कुअँर बर चारी ॥
सिबिका सुभग ओहार उघारी । देखि दुलहिनिन्ह होहिं सुखारी ॥ ४ ॥

नगर की स्त्रियाँ आनंदित होकर आरती कर रही हैं और सुंदर चारों कुमारों को देखकर हर्षित हो रही हैं । पालकियों के सुंदर परदे हटा-हटाकर वे दुलहिनों को देखकर सुखी होती हैं ॥ ४ ॥

दोहा :

एहि बिधि सबही देत सुखु आए राजदुआर ।
मुदित मातु परिछनि करहिं बधुन्ह समेत कुमार ॥ ३४८ ॥

इस प्रकार सबको सुख देते हुए राजद्वार पर आए । माताएँ आनंदित होकर बहुओं सहित कुमारों का परछन कर रही हैं ॥ ३४८ ॥

चौपाई :

करहिं आरती बारहिं बारा । प्रेमु प्रमोदु कहै को पारा ॥
भूषन मनि पट नाना जाती । करहिं निछावरि अगनित भाँती ॥ १ ॥

वे बार-बार आरती कर रही हैं । उस प्रेम और महान आनंद को कौन कह सकता है! अनेकों प्रकार के आभूषण, रत्न और वस्त्र तथा अगणित प्रकार की अन्य वस्तुएँ निछावर कर रही हैं ॥ १ ॥

बधुन्ह समेत देखि सुत चारी । परमानंद मगन महतारी ॥
पुनि पुनि सीय राम छबि देखी । मुदित सफल जग जीवन लेखी ॥ २ ॥

बहुओं सहित चारों पुत्रों को देखकर माताएँ परमानंद में मग्न हो गईं । सीताजी और श्री रामजी की छबि को बार-बार देखकर वे जगत में अपने जीवन को सफल मानकर आनंदित हो रही हैं ॥ २ ॥

सखीं सीय मुख पुनि पुनि चाही । गान करहिं निज सुकृत सराही ॥
बरषहिं सुमन छनहिं छन देवा । नाचहिं गावहिं लावहिं सेवा ॥ ३ ॥

सखियाँ सीताजी के मुख को बार-बार देखकर अपने पुण्यों की सराहना करती हुई गान कर रही हैं । देवता क्षण-क्षण में फूल बरसाते, नाचते, गाते तथा अपनी-अपनी सेवा समर्पण करते हैं ॥ ३ ॥

देखि मनोहर चारिउ जोरीं । सारद उपमा सकल ढँढोरीं ॥
देत न बनहिं निपट लघु लागीं । एकटक रहीं रूप अनुरागीं ॥ ४ ॥

चारों मनोहर जोड़ियों को देखकर सरस्वती ने सारी उपमाओं को खोज डाला, पर कोई उपमा देते नहीं बनी, क्योंकि उन्हें सभी बिलकुल तुच्छ जान पड़ीं । तब हारकर वे भी श्री रामजी के रूप में अनुरक्त होकर एकटक देखती रह गईं ॥ ४ ॥

दोहा :

निगम नीति कुल रीति करि अरघ पाँवड़े देत ।
बधुन्ह सहित सुत परिछि सब चलीं लवाइ निकेत ॥ ३४९ ॥

वेद की विधि और कुल की रीति करके अर्घ्य-पाँवड़े देती हुई बहुओं समेत सब पुत्रों को परछन करके माताएँ महल में लिवा चलीं ॥ ३४९ ॥

चौपाई :

चारि सिंघासन सहज सुहाए । जनु मनोज निज हाथ बनाए ॥
तिन्ह पर कुअँरि कुअँर बैठारे । सादर पाय पुनीत पखारे ॥ १ ॥

स्वाभाविक ही सुंदर चार सिंहासन थे, जो मानो कामदेव ने ही अपने हाथ से बनाए थे । उन पर माताओं ने राजकुमारियों और राजकुमारों को बैठाया और आदर के साथ उनके पवित्र चरण धोए ॥ १ ॥

धूप दीप नैबेद बेद बिधि । पूजे बर दुलहिनि मंगल निधि ॥
बारहिं बार आरती करहीं । ब्यजन चारु चामर सिर ढरहीं ॥ २ ॥

फिर वेद की विधि के अनुसार मंगल के निधान दूलह की दुलहिनों की धूप, दीप और नैवेद्य आदि के द्वारा पूजा की । माताएँ बारम्बार आरती कर रही हैं और वर-वधुओं के सिरों पर सुंदर पंखे तथा चँवर ढल रहे हैं ॥ २ ॥

बस्तु अनेक निछावरि होहीं । भरीं प्रमोद मातु सब सोहीं ॥
पावा परम तत्व जनु जोगीं । अमृतु लहेउ जनु संतत रोगीं ॥ ३ ॥

अनेकों वस्तुएँ निछावर हो रही हैं, सभी माताएँ आनंद से भरी हुई ऐसी सुशोभित हो रही हैं मानो योगी ने परम तत्व को प्राप्त कर लिया । सदा के रोगी ने मानो अमृत पा लिया ॥ ३ ॥

जनम रंक जनु पारस पावा । अंधहि लोचन लाभु सुहावा ॥
मूक बदन जनु सारद छाई । मानहुँ समर सूर जय पाई ॥ ४ ॥

जन्म का दरिद्री मानो पारस पा गया । अंधे को सुंदर नेत्रों का लाभ हुआ । गूँगे के मुख में मानो सरस्वती आ विराजीं और शूरवीर ने मानो युद्ध में विजय पा ली ॥ ४ ॥

दोहा :

एहि सुख ते सत कोटि गुन पावहिं मातु अनंदु ।
भाइन्ह सहित बिआहि घर आए रघुकुलचंदु ॥ ३५० क ॥

इन सुखों से भी सौ करोड़ गुना बढ़कर आनंद माताएँ पा रही हैं, क्योंकि रघुकुल के चंद्रमा श्री रामजी विवाह कर के भाइयों सहित घर आए हैं ॥ ३५० (क) ॥

लोक रीति जननीं करहिं बर दुलहिनि सकुचाहिं ।
मोदु बिनोदु बिलोकि बड़ रामु मनहिं मुसुकाहिं ॥ ३५० ख ॥

माताएँ लोकरीति करती हैं और दूलह-दुलहिनें सकुचाते हैं । इस महान आनंद और विनोद को देखकर श्री रामचन्द्रजी मन ही मन मुस्कुरा रहे हैं ॥ ३५० (ख) ॥

चौपाई :

देव पितर पूजे बिधि नीकी । पूजीं सकल बासना जी की ॥
सबहि बंदि माँगहिं बरदाना । भाइन्ह सहित राम कल्याना ॥ १ ॥

मन की सभी वासनाएँ पूरी हुई जानकर देवता और पितरों का भलीभाँति पूजन किया । सबकी वंदना करके माताएँ यही वरदान माँगती हैं कि भाइयों सहित श्री रामजी का कल्याण हो ॥ १ ॥

अंतरहित सुर आसिष देहीं । मुदित मातु अंचल भरि लेहीं ॥
भूपति बोलि बराती लीन्हे । जान बसन मनि भूषन दीन्हे ॥ २ ॥

देवता छिपे हुए (अन्तरिक्ष से) आशीर्वाद दे रहे हैं और माताएँ आनन्दित हो आँचल भरकर ले रही हैं । तदनन्तर राजा ने बारातियों को बुलवा लिया और उन्हें सवारियाँ, वस्त्र, मणि (रत्न) और आभूषणादि दिए ॥ २ ॥

आयसु पाइ राखि उर रामहि । मुदित गए सब निज निज धामहि ॥
पुर नर नारि सकल पहिराए । घर घर बाजन लगे बधाए ॥ ३ ॥

आज्ञा पाकर, श्री रामजी को हृदय में रखकर वे सब आनंदित होकर अपने-अपने घर गए । नगर के समस्त स्त्री-पुरुषों को राजा ने कपड़े और गहने पहनाए । घर-घर बधावे बजने लगे ॥ ३ ॥

जाचक जन जाचहिं जोइ जोई । प्रमुदित राउ देहिं सोइ सोई ॥
सेवक सकल बजनिआ नाना । पूरन किए दान सनमाना ॥ ४ ॥

याचक लोग जो-जो माँगते हैं, विशेष प्रसन्न होकर राजा उन्हें वही-वही देते हैं । सम्पूर्ण सेवकों और बाजे वालों को राजा ने नाना प्रकार के दान और सम्मान से सन्तुष्ट किया ॥ ४ ॥

दोहा :

देहिं असीस जोहारि सब गावहिं गुन गन गाथ ।
तब गुर भूसुर सहित गृहँ गवनु कीन्ह नरनाथ ॥ ३५१ ॥

सब जोहार (वंदन) करके आशीष देते हैं और गुण समूहों की कथा गाते हैं । तब गुरु और ब्राह्मणों सहित राजा दशरथजी ने महल में गमन किया ॥ ३५१ ॥

चौपाई :

जो बसिष्ट अनुसासन दीन्ही । लोक बेद बिधि सादर कीन्ही ॥
भूसुर भीर देखि सब रानी । सादर उठीं भाग्य बड़ जानी ॥ १ ॥

वशिष्ठजी ने जो आज्ञा दी, उसे लोक और वेद की विधि के अनुसार राजा ने आदरपूर्वक किया । ब्राह्मणों की भीड़ देखकर अपना बड़ा भाग्य जानकर सब रानियाँ आदर के साथ उठीं ॥ १ ॥

पाय पखारि सकल अन्हवाए । पूजि भली बिधि भूप जेवाँए ॥
आदर दान प्रेम परिपोषे । देत असीस चले मन तोषे ॥ २ ॥

चरण धोकर उन्होंने सबको स्नान कराया और राजा ने भली-भाँति पूजन करके उन्हें भोजन कराया! आदर, दान और प्रेम से पुष्ट हुए वे संतुष्ट मन से आशीर्वाद देते हुए चले ॥ २ ॥

बहु बिधि कीन्हि गाधिसुत पूजा । नाथ मोहि सम धन्य न दूजा ॥
कीन्हि प्रसंसा भूपति भूरी । रानिन्ह सहित लीन्हि पग धूरी ॥ ३ ॥

राजा ने गाधि पुत्र विश्वामित्रजी की बहुत तरह से पूजा की और कहा - हे नाथ! मेरे समान धन्य दूसरा कोई नहीं है । राजा ने उनकी बहुत प्रशंसा की और रानियों सहित उनकी चरणधूलि को ग्रहण किया ॥ ३ ॥

भीतर भवन दीन्ह बर बासू । मन जोगवत रह नृपु रनिवासू ॥
पूजे गुर पद कमल बहोरी । कीन्हि बिनय उर प्रीति न थोरी ॥ ४ ॥

उन्हें महल के भीतर ठहरने को उत्तम स्थान दिया, जिसमें राजा और सब रनिवास उनका मन जोहता रहे (अर्थात जिसमें राजा और महल की सारी रानियाँ स्वयं उनकी इच्छानुसार उनके आराम की ओर दृष्टि रख सकें) फिर राजा ने गुरु वशिष्ठजी के चरणकमलों की पूजा और विनती की । उनके हृदय में कम प्रीति न थी (अर्थात बहुत प्रीति थी) ॥ ४ ॥

दोहा :

बधुन्ह समेत कुमार सब रानिन्ह सहित महीसु ।
पुनि पुनि बंदत गुर चरन देत असीस मुनीसु ॥ ३५२ ॥

बहुओं सहित सब राजकुमार और सब रानियों समेत राजा बार-बार गुरुजी के चरणों की वंदना करते हैं और मुनीश्वर आशीर्वाद देते हैं ॥ ३५२ ॥

चौपाई :

बिनय कीन्हि उर अति अनुरागें । सुत संपदा राखि सब आगें ॥
नेगु मागि मुनिनायक लीन्हा । आसिरबादु बहुत बिधि दीन्हा ॥ १ ॥

राजा ने अत्यन्त प्रेमपूर्ण हृदय से पुत्रों को और सारी सम्पत्ति को सामने रखकर (उन्हें स्वीकार करने के लिए) विनती की, परन्तु मुनिराज ने (पुरोहित के नाते) केवल अपना नेग माँग लिया और बहुत तरह से आशीर्वाद दिया ॥ १ ॥

उर धरि रामहि सीय समेता । हरषि कीन्ह गुर गवनु निकेता ॥
बिप्रबधू सब भूप बोलाईं । चैल चारु भूषन पहिराईं ॥ १ ॥

फिर सीताजी सहित श्री रामचन्द्रजी को हृदय में रखकर गुरु वशिष्ठजी हर्षित होकर अपने स्थान को गए । राजा ने सब ब्राह्मणों की स्त्रियों को बुलवाया और उन्हें सुंदर वस्त्र तथा आभूषण पहनाए ॥ २ ॥

बहुरि बोलाइ सुआसिनि लीन्हीं । रुचि बिचारि पहिरावनि दीन्हीं ॥
नेगी नेग जोग जब लेहीं । रुचि अनुरूप भूपमनि देहीं ॥ ३ ॥

फिर अब सुआसिनियों को (नगर की सौभाग्यवती बहिन, बेटी, भानजी आदि को) बुलवा लिया और उनकी रुचि समझकर (उसी के अनुसार) उन्हें पहिरावनी दी । नेगी लोग सब अपना-अपना नेग-जोग लेते और राजाओं के शिरोमणि दशरथजी उनकी इच्छा के अनुसार देते हैं ॥ ३ ॥

प्रिय पाहुने पूज्य जे जाने । भूपति भली भाँति सनमाने ॥
देव देखि रघुबीर बिबाहू । बरषि प्रसून प्रसंसि उछाहू ॥ ४ ॥

जिन मेहमानों को प्रिय और पूजनीय जाना, उनका राजा ने भलीभाँति सम्मान किया । देवगण श्री रघुनाथजी का विवाह देखकर, उत्सव की प्रशंसा करके फूल बरसाते हुए- ॥ ४ ॥

दोहा :

चले निसान बजाइ सुर निज निज पुर सुख पाइ ।
कहत परसपर राम जसु प्रेम न हृदयँ समाइ ॥ ३५३ ॥

नगाड़े बजाकर और (परम) सुख प्राप्त कर अपने-अपने लोकों को चले । वे एक-दूसरे से श्री रामजी का यश कहते जाते हैं । हृदय में प्रेम समाता नहीं है ॥ ३५३ ॥

चौपाई :

सब बिधि सबहि समदि नरनाहू । रहा हृदयँ भरि पूरि उछाहू ॥
जहँ रनिवासु तहाँ पगु धारे । सहित बहूटिन्ह कुअँर निहारे ॥ १ ॥

सब प्रकार से सबका प्रेमपूर्वक भली-भाँति आदर-सत्कार कर लेने पर राजा दशरथजी के हृदय में पूर्ण उत्साह (आनंद) भर गया । जहाँ रनिवास था, वे वहाँ पधारे और बहुओं समेत उन्होंने कुमारों को देखा ॥ १ ॥

लिए गोद करि मोद समेता । को कहि सकइ भयउ सुखु जेता ॥
बधू सप्रेम गोद बैठारीं । बार बार हियँ हरषि दुलारीं ॥ २ ॥

राजा ने आनंद सहित पुत्रों को गोद में ले लिया । उस समय राजा को जितना सुख हुआ उसे कौन कह सकता है? फिर पुत्रवधुओं को प्रेम सहित गोदी में बैठाकर, बार-बार हृदय में हर्षित होकर उन्होंने उनका दुलार (लाड़-चाव) किया ॥ २ ॥

देखि समाजु मुदित रनिवासू । सब कें उर अनंद कियो बासू ॥
कहेउ भूप जिमि भयउ बिबाहू । सुनि सुनि हरषु होत सब काहू ॥ ३ ॥

यह समाज (समारोह) देखकर रनिवास प्रसन्न हो गया । सबके हृदय में आनंद ने निवास कर लिया । तब राजा ने जिस तरह विवाह हुआ था, वह सब कहा । उसे सुन-सुनकर सब किसी को हर्ष होता है ॥ ३ ॥

जनक राज गुन सीलु बड़ाई । प्रीति रीति संपदा सुहाई ॥
बहुबिधि भूप भाट जिमि बरनी । रानीं सब प्रमुदित सुनि करनी ॥ ४ ॥

राजा जनक के गुण, शील, महत्व, प्रीति की रीति और सुहावनी सम्पत्ति का वर्णन राजा ने भाट की तरह बहुत प्रकार से किया । जनकजी की करनी सुनकर सब रानियाँ बहुत प्रसन्न हुईं ॥ ४ ॥

दोहा :

सुतन्ह समेत नहाइ नृप बोलि बिप्र गुर ग्याति ।
भोजन कीन्ह अनेक बिधि घरी पंच गइ राति ॥ । ३५४ ॥

पुत्रों सहित स्नान करके राजा ने ब्राह्मण, गुरु और कुटुम्बियों को बुलाकर अनेक प्रकार के भोजन किए । (यह सब करते-करते) पाँच घड़ी रात बीत गई ॥ ३५४ ॥

चौपाई :

मंगलगान करहिं बर भामिनि । भै सुखमूल मनोहर जामिनि ॥
अँचइ पान सब काहूँ पाए । स्रग सुगंध भूषित छबि छाए ॥ १ ॥

सुंदर स्त्रियाँ मंगलगान कर रही हैं । वह रात्रि सुख की मूल और मनोहारिणी हो गई । सबने आचमन करके पान खाए और फूलों की माला, सुगंधित द्रव्य आदि से विभूषित होकर सब शोभा से छा गए ॥ १ ॥

रामहि देखि रजायसु पाई । निज निज भवन चले सिर नाई ॥
प्रेम प्रमोदु बिनोदु बड़ाई । समउ समाजु मनोहरताई ॥ २ ॥

श्री रामचन्द्रजी को देखकर और आज्ञा पाकर सब सिर नवाकर अपने-अपने घर को चले । वहाँ के प्रेम, आनंद, विनोद, महत्व, समय, समाज और मनोहरता को- ॥ २ ॥

कहि न सकहिं सतसारद सेसू । बेद बिरंचि महेस गनेसू ॥
सो मैं कहौं कवन बिधि बरनी । भूमिनागु सिर धरइ कि धरनी ॥ ३ ॥

सैकड़ों सरस्वती, शेष, वेद, ब्रह्मा, महादेवजी और गणेशजी भी नहीं कह सकते । फिर भला मैं उसे किस प्रकार से बखानकर कहूँ? कहीं केंचुआ भी धरती को सिर पर ले सकता है? ॥ ३ ॥

नृप सब भाँति सबहि सनमानी । कहि मृदु बचन बोलाईं रानी ॥
बधू लरिकनीं पर घर आईं । राखेहु नयन पलक की नाई ॥ ४ ॥

राजा ने सबका सब प्रकार से सम्मान करके, कोमल वचन कहकर रानियों को बुलाया और कहा - बहुएँ अभी बच्ची हैं, पराए घर आई हैं । इनको इस तरह से रखना जैसे नेत्रों को पलकें रखती हैं (जैसे पलकें नेत्रों की सब प्रकार से रक्षा करती हैं और उन्हें सुख पहुँचाती हैं, वैसे ही इनको सुख पहुँचाना) ॥ ४ ॥

दोहा :

लरिका श्रमित उनीद बस सयन करावहु जाइ ।
अस कहि गे बिश्रामगृहँ राम चरन चितु लाइ ॥ ३५५ ॥

लड़के थके हुए नींद के वश हो रहे हैं, इन्हें ले जाकर शयन कराओ । ऐसा कहकर राजा श्री रामचन्द्रजी के चरणों में मन लगाकर विश्राम भवन में चले गए ॥ ३५५ ॥

चौपाई :

भूप बचन सुनि सहज सुहाए । जरित कनक मनि पलँग डसाए ॥
सुभग सुरभि पय फेन समाना । कोमल कलित सुपेतीं नाना ॥ १ ॥

राजा के स्वाभव से ही सुंदर वचन सुनकर (रानियों ने) मणियों से जड़े सुवर्ण के पलँग बिछवाए । (गद्दों पर) गो के फेन के समान सुंदर एवं कोमल अनेकों सफेद चादरें बिछाईं ॥ १ ॥

उपबरहन बर बरनि न जाहीं । स्रग सुगंध मनिमंदिर माहीं ॥
रतनदीप सुठि चारु चँदोवा । कहत न बनइ जान जेहिं जोवा ॥ २ ॥

सुंदर तकियों का वर्णन नहीं किया जा सकता । मणियों के मंदिर में फूलों की मालाएँ और सुगंध द्रव्य सजे हैं । सुंदर रत्नों के दीपकों और सुंदर चँदोवे की शोभा कहते नहीं बनती । जिसने उन्हें देखा हो, वही जान सकता है ॥ २ ॥

सेज रुचिर रचि रामु उठाए । प्रेम समेत पलँग पौढ़ाए ॥
अग्या पुनि पुनि भाइन्ह दीन्ही । निज निज सेज सयन तिन्ह कीन्ही ॥ ३ ॥

इस प्रकार सुंदर शय्या सजाकर (माताओं ने) श्री रामचन्द्रजी को उठाया और प्रेम सहित पलँग पर पौढ़ाया । श्री रामजी ने बार-बार भाइयों को आज्ञा दी । तब वे भी अपनी-अपनी शय्याओं पर सो गए ॥ ३ ॥

देखि स्याम मृदु मंजुल गाता । कहहिं सप्रेम बचन सब माता ॥
मारग जात भयावनि भारी । केहि बिधि तात ताड़का मारी ॥ ४ ॥

श्री रामजी के साँवले सुंदर कोमल अँगों को देखकर सब माताएँ प्रेम सहित वचन कह रही हैं - हे तात! मार्ग में जाते हुए तुमने बड़ी भयावनी ताड़का राक्षसी को किस प्रकार से मारा? ॥ ४ ॥

दोहा :

घोर निसाचर बिकट भट समर गनहिं नहिं काहु ।
मारे सहित सहाय किमि खल मारीच सुबाहु ॥ ३५६ ॥

बड़े भयानक राक्षस, जो विकट योद्धा थे और जो युद्ध में किसी को कुछ नहीं गिनते थे, उन दुष्ट मारीच और सुबाहु को सहायकों सहित तुमने कैसे मारा? ॥ ३५६ ॥

चौपाई :

मुनि प्रसाद बलि तात तुम्हारी । ईस अनेक करवरें टारी ॥
मख रखवारी करि दुहुँ भाईं । गुरु प्रसाद सब बिद्या पाईं ॥ १ ॥

हे तात! मैं बलैया लेती हूँ, मुनि की कृपा से ही ईश्वर ने तुम्हारी बहुत सी बलाओं को टाल दिया । दोनों भाइयों ने यज्ञ की रखवाली करके गुरुजी के प्रसाद से सब विद्याएँ पाईं ॥ १ ॥

मुनितिय तरी लगत पग धूरी । कीरति रही भुवन भरि पूरी ॥
कमठ पीठि पबि कूट कठोरा । नृप समाज महुँ सिव धनु तोरा ॥ २ ॥

चरणों की धूलि लगते ही मुनि पत्नी अहल्या तर गई । विश्वभर में यह कीर्ति पूर्ण रीति से व्याप्त हो गई । कच्छप की पीठ, वज्र और पर्वत से भी कठोर शिवजी के धनुष को राजाओं के समाज में तुमने तोड़ दिया! ॥ २ ॥

बिस्व बिजय जसु जानकि पाई । आए भवन ब्याहि सब भाई ॥
सकल अमानुष करम तुम्हारे । केवल कौसिक कृपाँ सुधारे ॥ ३ ॥

विश्वविजय के यश और जानकी को पाया और सब भाइयों को ब्याहकर घर आए । तुम्हारे सभी कर्म अमानुषी हैं (मनुष्य की शक्ति के बाहर हैं), जिन्हें केवल विश्वामित्रजी की कृपा ने सुधारा है (सम्पन्न किया है) ॥ ३ ॥

आजु सुफल जग जनमु हमारा । देखि तात बिधुबदन तुम्हारा ॥
जे दिन गए तुम्हहि बिनु देखें । ते बिरंचि जनि पारहिं लेखें ॥ ४ ॥

हे तात! तुम्हारा चन्द्रमुख देखकर आज हमारा जगत में जन्म लेना सफल हुआ । तुमको बिना देखे जो दिन बीते हैं, उनको ब्रह्मा गिनती में न लावें (हमारी आयु में शामिल न करें) ॥ ४ ॥

दोहा :

राम प्रतोषीं मातु सब कहि बिनीत बर बैन ।
सुमिरि संभु गुरु बिप्र पद किए नीदबस नैन ॥ ३५७ ॥

विनय भरे उत्तम वचन कहकर श्री रामचन्द्रजी ने सब माताओं को संतुष्ट किया । फिर शिवजी, गुरु और ब्राह्मणों के चरणों का स्मरण कर नेत्रों को नींद के वश किया । (अर्थात वे सो रहे) ॥ ३५७ ॥

चौपाई :

नीदउँ बदन सोह सुठि लोना । मनहुँ साँझ सरसीरुह सोना ॥
घर घर करहिं जागरन नारीं । देहिं परसपर मंगल गारीं ॥ १ ॥

नींद में भी उनका अत्यन्त सलोना मुखड़ा ऐसा सोह रहा था, मानो संध्या के समय का लाल कमल सोह रहा हो । स्त्रियाँ घर-घर जागरण कर रही हैं और आपस में (एक-दूसरी को) मंगलमयी गालियाँ दे रही हैं ॥ १ ॥

पुरी बिराजति राजति रजनी । रानीं कहहिं बिलोकहु सजनी ॥
सुंदर बधुन्ह सासु लै सोईं । फनिकन्ह जनु सिरमनि उर गोईं ॥ २ ॥

रानियाँ कहती हैं - हे सजनी! देखो, (आज) रात्रि की कैसी शोभा है, जिससे अयोध्यापुरी विशेष शोभित हो रही है! (यों कहती हुई) सासुएँ सुंदर बहुओं को लेकर सो गईं, मानो सर्पों ने अपने सिर की मणियों को हृदय में छिपा लिया है ॥ २ ॥

प्रात पुनीत काल प्रभु जागे । अरुनचूड़ बर बोलन लागे ॥
बंदि मागधन्हि गुनगन गाए । पुरजन द्वार जोहारन आए ॥ ३ ॥

प्रातःकाल पवित्र ब्रह्म मुहूर्त में प्रभु जागे । मुर्गे सुंदर बोलने लगे । भाट और मागधों ने गुणों का गान किया तथा नगर के लोग द्वार पर जोहार करने को आए ॥ ३ ॥

बंदि बिप्र सुर गुर पितु माता । पाइ असीस मुदित सब भ्राता ॥
जननिन्ह सादर बदन निहारे । भूपति संग द्वार पगु धारे ॥ ४ ॥

ब्राह्मणों, देवताओं, गुरु, पिता और माताओं की वंदना करके आशीर्वाद पाकर सब भाई प्रसन्न हुए । माताओं ने आदर के साथ उनके मुखों को देखा । फिर वे राजा के साथ दरवाजे (बाहर) पधारे ॥ ४ ॥

दोहा :

कीन्हि सौच सब सहज सुचि सरित पुनीत नहाइ ।
प्रातक्रिया करि तात पहिं आए चारिउ भाइ ॥ ३५८ ॥

स्वभाव से ही पवित्र चारों भाइयों ने सब शौचादि से निवृत्त होकर पवित्र सरयू नदी में स्नान किया और प्रातःक्रिया (संध्या वंदनादि) करके वे पिता के पास आए ॥ ३५८ ॥

नवाह्नपारायण, तीसरा विश्राम

चौपाई :

भूप बिलोकि लिए उर लाई । बैठे हरषि रजायसु पाई ॥
देखि रामु सब सभा जुड़ानी । लोचन लाभ अवधि अनुमानी ॥ १ ॥

राजा ने देखते ही उन्हें हृदय से लगा लिया । तदनन्तर वे आज्ञा पाकर हर्षित होकर बैठ गए । श्री रामचन्द्रजी के दर्शन कर और नेत्रों के लाभ की बस यही सीमा है, ऐसा अनुमान कर सारी सभा शीतल हो गई । (अर्थात सबके तीनों प्रकार के ताप सदा के लिए मिट गए) ॥ १ ॥

पुनि बसिष्टु मुनि कौसिकु आए । सुभग आसनन्हि मुनि बैठाए ॥
सुतन्ह समेत पूजि पद लागे । निरखि रामु दोउ गुर अनुरागे ॥ २ ॥

फिर मुनि वशिष्ठजी और विश्वामित्रजी आए । राजा ने उनको सुंदर आसनों पर बैठाया और पुत्रों समेत उनकी पूजा करके उनके चरणों लगे । दोनों गुरु श्री रामजी को देखकर प्रेम में मुग्ध हो गए ॥ २ ॥

कहहिं बसिष्टु धरम इतिहासा । सुनहिं महीसु सहित रनिवासा ॥
मुनि मन अगम गाधिसुत करनी । मुदित बसिष्ठ बिपुल बिधि बरनी ॥ ३ ॥

वशिष्ठजी धर्म के इतिहास कह रहे हैं और राजा रनिवास सहित सुन रहे हैं, जो मुनियों के मन को भी अगम्य है, ऐसी विश्वामित्रजी की करनी को वशिष्ठजी ने आनंदित होकर बहुत प्रकार से वर्णन किया ॥ ३ ॥

बोले बामदेउ सब साँची । कीरति कलित लोक तिहुँ माची ॥
सुनि आनंदु भयउ सब काहू । राम लखन उर अधिक उछाहू ॥ ४ ॥

वामदेवजी बोले - ये सब बातें सत्य हैं । विश्वामित्रजी की सुंदर कीर्ति तीनों लोकों में छाई हुई है । यह सुनकर सब किसी को आनंद हुआ । श्री राम-लक्ष्मण के हृदय में अधिक उत्साह (आनंद) हुआ ॥ ४ ॥

दोहा :

मंगल मोद उछाह नित जाहिं दिवस एहि भाँति ।
उमगी अवध अनंद भरि अधिक अधिक अधिकाति ॥ ३५९ ॥

नित्य ही मंगल, आनंद और उत्सव होते हैं, इस तरह आनंद में दिन बीतते जाते हैं । अयोध्या आनंद से भरकर उमड़ पड़ी, आनंद की अधिकता अधिक-अधिक बढ़ती ही जा रही है ॥ ३५९ ॥

चौपाई :

सुदिन सोधि कल कंकन छोरे । मंगल मोद बिनोद न थोरे ॥
नित नव सुखु सुर देखि सिहाहीं । अवध जन्म जाचहिं बिधि पाहीं ॥ १ ॥

अच्छा दिन (शुभ मुहूर्त) शोधकर सुंदर कंकण खोले गए । मंगल, आनंद और विनोद कुछ कम नहीं हुए (अर्थात बहुत हुए) । इस प्रकार नित्य नए सुख को देखकर देवता सिहाते हैं और अयोध्या में जन्म पाने के लिए ब्रह्माजी से याचना करते हैं ॥ १ ॥

बिस्वामित्रु चलन नित चहहीं । राम सप्रेम बिनय बस रहहीं ॥
दिन दिन सयगुन भूपति भाऊ । देखि सराह महामुनिराऊ ॥ २ ॥

विश्वामित्रजी नित्य ही चलना (अपने आश्रम जाना) चाहते हैं, पर रामचन्द्रजी के स्नेह और विनयवश रह जाते हैं । दिनोंदिन राजा का सौ गुना भाव (प्रेम) देखकर महामुनिराज विश्वामित्रजी उनकी सराहना करते हैं ॥ २ ॥

मागत बिदा राउ अनुरागे । सुतन्ह समेत ठाढ़ भे आगे ॥
नाथ सकल संपदा तुम्हारी । मैं सेवकु समेत सुत नारी ॥ ३ ॥

अंत में जब विश्वामित्रजी ने विदा माँगी, तब राजा प्रेममग्न हो गए और पुत्रों सहित आगे खड़े हो गए । (वे बोले - ) हे नाथ! यह सारी सम्पदा आपकी है । मैं तो स्त्री-पुत्रों सहित आपका सेवक हूँ ॥ ३ ॥

करब सदा लरिकन्ह पर छोहू । दरसनु देत रहब मुनि मोहू ॥
अस कहि राउ सहित सुत रानी । परेउ चरन मुख आव न बानी ॥ ४ ॥

हे मुनि! लड़कों पर सदा स्नेह करते रहिएगा और मुझे भी दर्शन देते रहिएगा । ऐसा कहकर पुत्रों और रानियों सहित राजा दशरथजी विश्वामित्रजी के चरणों पर गिर पड़े, (प्रेमविह्वल हो जाने के कारण) उनके मुँह से बात नहीं निकलती ॥ ४ ॥

दीन्हि असीस बिप्र बहु भाँति । चले न प्रीति रीति कहि जाती ॥
रामु सप्रेम संग सब भाई । आयसु पाइ फिरे पहुँचाई ॥ ५ ॥

ब्राह्मण विश्वमित्रजी ने बहुत प्रकार से आशीर्वाद दिए और वे चल पड़े । प्रीति की रीति कही नहीं जीती । सब भाइयों को साथ लेकर श्री रामजी प्रेम के साथ उन्हें पहुँचाकर और आज्ञा पाकर लौटे ॥ ५ ॥