दोहा :

सपनें होइ भिखारि नृपु रंकु नाकपति होइ ।
जागें लाभु न हानि कछु तिमि प्रपंच जियँ जोइ ॥ ९२ ॥

जैसे स्वप्न में राजा भिखारी हो जाए या कंगाल स्वर्ग का स्वामी इन्द्र हो जाए, तो जागने पर लाभ या हानि कुछ भी नहीं है, वैसे ही इस दृश्य-प्रपंच को हृदय से देखना चाहिए ॥ ९२ ॥

चौपाई :

अस बिचारि नहिं कीजिअ रोसू । काहुहि बादि न देइअ दोसू ॥
मोह निसाँ सबु सोवनिहारा । देखिअ सपन अनेक प्रकारा ॥ १ ॥

ऐसा विचारकर क्रोध नहीं करना चाहिए और न किसी को व्यर्थ दोष ही देना चाहिए । सब लोग मोह रूपी रात्रि में सोने वाले हैं और सोते हुए उन्हें अनेकों प्रकार के स्वप्न दिखाई देते हैं ॥ १ ॥

एहिं जग जामिनि जागहिं जोगी । परमारथी प्रपंच बियोगी ॥
जानिअ तबहिं जीव जग जागा । जब सब बिषय बिलास बिरागा ॥ २ ॥

इस जगत रूपी रात्रि में योगी लोग जागते हैं, जो परमार्थी हैं और प्रपंच (मायिक जगत) से छूटे हुए हैं । जगत में जीव को जागा हुआ तभी जानना चाहिए, जब सम्पूर्ण भोग-विलासों से वैराग्य हो जाए ॥ २ ॥

होइ बिबेकु मोह भ्रम भागा । तब रघुनाथ चरन अनुरागा ॥
सखा परम परमारथु एहू । मन क्रम बचन राम पद नेहू ॥ ३ ॥

विवेक होने पर मोह रूपी भ्रम भाग जाता है, तब (अज्ञान का नाश होने पर) श्री रघुनाथजी के चरणों में प्रेम होता है । हे सखा! मन, वचन और कर्म से श्री रामजी के चरणों में प्रेम होना, यही सर्वश्रेष्ठ परमार्थ (पुरुषार्थ) है ॥ ३ ॥

राम ब्रह्म परमारथ रूपा । अबिगत अलख अनादि अनूपा ॥
सकल बिकार रहित गतभेदा । कहि नित नेति निरूपहिं बेदा ॥ ४ ॥

श्री रामजी परमार्थस्वरूप (परमवस्तु) परब्रह्म हैं । वे अविगत (जानने में न आने वाले) अलख (स्थूल दृष्टि से देखने में न आने वाले), अनादि (आदिरहित), अनुपम (उपमारहित) सब विकारों से रहति और भेद शून्य हैं, वेद जिनका नित्य ‘नेति-नेति’ कहकर निरूपण करते हैं ॥ ४ ॥

दोहा :

भगत भूमि भूसुर सुरभि सुर हित लागि कृपाल ।
करत चरित धरि मनुज तनु सुनत मिटहिं जग जाल ॥ ९३ ॥

वही कृपालु श्री रामचन्द्रजी भक्त, भूमि, ब्राह्मण, गो और देवताओं के हित के लिए मनुष्य शरीर धारण करके लीलाएँ करते हैं, जिनके सुनने से जगत के जंजाल मिट जाते हैं ॥ ९३ ॥

मासपारायण, पंद्रहवाँ विश्राम

चौपाई :

सखा समुझि अस परिहरि मोहू । सिय रघुबीर चरन रत होहू ॥
कहत राम गुन भा भिनुसारा । जागे जग मंगल सुखदारा ॥ १ ॥

हे सखा! ऐसा समझ, मोह को त्यागकर श्री सीतारामजी के चरणों में प्रेम करो । इस प्रकार श्री रामचन्द्रजी के गुण कहते-कहते सबेरा हो गया! तब जगत का मंगल करने वाले और उसे सुख देने वाले श्री रामजी जागे ॥ १ ॥

सकल सौच करि राम नहावा । सुचि सुजान बट छीर मगावा ॥
अनुज सहित सिर जटा बनाए । देखि सुमंत्र नयन जल छाए ॥

शौच के सब कार्य करके (नित्य) पवित्र और सुजान श्री रामचन्द्रजी ने स्नान किया । फिर बड़ का दूध मँगाया और छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित उस दूध से सिर पर जटाएँ बनाईं । यह देखकर सुमंत्रजी के नेत्रों में जल छा गया ॥ २ ॥

हृदयँ दाहु अति बदन मलीना । कह कर जोर बचन अति दीना ॥
नाथ कहेउ अस कोसलनाथा । लै रथु जाहु राम कें साथा ॥ ३ ॥

उनका हृदय अत्यंत जलने लगा, मुँह मलिन (उदास) हो गया । वे हाथ जोड़कर अत्यंत दीन वचन बोले - हे नाथ! मुझे कौसलनाथ दशरथजी ने ऐसी आज्ञा दी थी कि तुम रथ लेकर श्री रामजी के साथ जाओ, ॥ ३ ॥

बनु देखाइ सुरसरि अन्हवाई । आनेहु फेरि बेगि दोउ भाई ॥
लखनु रामु सिय आनेहु फेरी । संसय सकल सँकोच निबेरी ॥ ४ ॥

वन दिखाकर, गंगा स्नान कराकर दोनों भाइयों को तुरंत लौटा लाना । सब संशय और संकोच को दूर करके लक्ष्मण, राम, सीता को फिरा लाना ॥ ४ ॥

दोहा :

नृप अस कहेउ गोसाइँ जस कहइ करौं बलि सोइ ।
करि बिनती पायन्ह परेउ दीन्ह बाल जिमि रोइ ॥ ९४ ॥

महाराज ने ऐसा कहा था, अब प्रभु जैसा कहें, मैं वही करूँ, मैं आपकी बलिहारी हूँ । इस प्रकार से विनती करके वे श्री रामचन्द्रजी के चरणों में गिर पड़े और बालक की तरह रो दिए ॥ ९४ ॥

चौपाई :

तात कृपा करि कीजिअ सोई । जातें अवध अनाथ न होई ॥
मंत्रिहि राम उठाइ प्रबोधा । तात धरम मतु तुम्ह सबु सोधा ॥ १ ॥

(और कहा -) हे तात ! कृपा करके वही कीजिए जिससे अयोध्या अनाथ न हो श्री रामजी ने मंत्री को उठाकर धैर्य बँधाते हुए समझाया कि हे तात ! आपने तो धर्म के सभी सिद्धांतों को छान डाला है ॥ १ ॥

सिबि दधीच हरिचंद नरेसा । सहे धरम हित कोटि कलेसा ॥
रंतिदेव बलि भूप सुजाना । धरमु धरेउ सहि संकट नाना ॥ २ ॥

शिबि, दधीचि और राजा हरिश्चन्द्र ने धर्म के लिए करोड़ों (अनेकों) कष्ट सहे थे । बुद्धिमान राजा रन्तिदेव और बलि बहुत से संकट सहकर भी धर्म को पकड़े रहे (उन्होंने धर्म का परित्याग नहीं किया) ॥ २ ॥

धरमु न दूसर सत्य समाना । आगम निगम पुरान बखाना ॥
मैं सोइ धरमु सुलभ करि पावा । तजें तिहूँ पुर अपजसु छावा ॥ ३ ॥

वेद, शास्त्र और पुराणों में कहा गया है कि सत्य के समान दूसरा धर्म नहीं है । मैंने उस धर्म को सहज ही पा लिया है । इस (सत्य रूपी धर्म) का त्याग करने से तीनों लोकों में अपयश छा जाएगा ॥ ३ ॥

संभावित कहुँ अपजस लाहू । मरन कोटि सम दारुन दाहू ॥
तुम्ह सन तात बहुत का कहउँ । दिएँ उतरु फिरि पातकु लहऊँ ॥ ४ ॥

प्रतिष्ठित पुरुष के लिए अपयश की प्राप्ति करोड़ों मृत्यु के समान भीषण संताप देने वाली है । हे तात! मैं आप से अधिक क्या कहूँ! लौटकर उत्तर देने में भी पाप का भागी होता हूँ ॥ ४ ॥

दोहा :

पितु पद गहि कहि कोटि नति बिनय करब कर जोरि ।
चिंता कवनिहु बात कै तात करिअ जनि मोरि ॥ ९५ ॥

आप जाकर पिताजी के चरण पकड़कर करोड़ों नमस्कार के साथ ही हाथ जोड़कर बिनती करिएगा कि हे तात! आप मेरी किसी बात की चिन्ता न करें ॥ ९५ ॥

चौपाई :

तुम्ह पुनि पितु सम अति हित मोरें । बिनती करउँ तात कर जोरें ॥
सब बिधि सोइ करतब्य तुम्हारें । दुख न पाव पितु सोच हमारें ॥ १ ॥

आप भी पिता के समान ही मेरे बड़े हितैषी हैं । हे तात! मैं हाथ जोड़कर आप से विनती करता हूँ कि आपका भी सब प्रकार से वही कर्तव्य है, जिसमें पिताजी हम लोगों के सोच में दुःख न पावें ॥ १ ॥

सुनि रघुनाथ सचिव संबादू । भयउ सपरिजन बिकल निषादू ॥
पुनि कछु लखन कही कटु बानी । प्रभु बरजे बड़ अनुचित जानी ॥ २ ॥

श्री रघुनाथजी और सुमंत्र का यह संवाद सुनकर निषादराज कुटुम्बियों सहित व्याकुल हो गया । फिर लक्ष्मणजी ने कुछ कड़वी बात कही । प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने उसे बहुत ही अनुचित जानकर उनको मना किया ॥ २ ॥

सकुचि राम निज सपथ देवाई । लखन सँदेसु कहिअ जनि जाई ॥
कह सुमंत्रु पुनि भूप सँदेसू । सहि न सकिहि सिय बिपिन कलेसू ॥ ३ ॥

श्री रामचन्द्रजी ने सकुचाकर, अपनी सौगंध दिलाकर सुमंत्रजी से कहा कि आप जाकर लक्ष्मण का यह संदेश न कहिएगा । सुमंत्र ने फिर राजा का संदेश कहा कि सीता वन के क्लेश न सह सकेंगी ॥ ३ ॥

जेहि बिधि अवध आव फिरि सीया । होइ रघुबरहि तुम्हहि करनीया ॥
नतरु निपट अवलंब बिहीना । मैं न जिअब जिमि जल बिनु मीना ॥ ४ ॥

अतएव जिस तरह सीता अयोध्या को लौट आवें, तुमको और श्री रामचन्द्र को वही उपाय करना चाहिए । नहीं तो मैं बिल्कुल ही बिना सहारे का होकर वैसे ही नहीं जीऊँगा जैसे बिना जल के मछली नहीं जीती ॥ ४ ॥

दोहा :

मइकें ससुरें सकल सुख जबहिं जहाँ मनु मान ।
तहँ तब रहिहि सुखेन सिय जब लगि बिपति बिहान ॥ ९६ ॥

सीता के मायके (पिता के घर) और ससुराल में सब सुख हैं । जब तक यह विपत्ति दूर नहीं होती, तब तक वे जब जहाँ जी चाहें, वहीं सुख से रहेंगी ॥ ९६ ॥

चौपाई :

बिनती भूप कीन्ह जेहि भाँती । आरति प्रीति न सो कहि जाती ॥
पितु सँदेसु सुनि कृपानिधाना । सियहि दीन्ह सिख कोटि बिधाना ॥ १ ॥

राजा ने जिस तरह (जिस दीनता और प्रेम से) विनती की है, वह दीनता और प्रेम कहा नहीं जा सकता । कृपानिधान श्री रामचन्द्रजी ने पिता का संदेश सुनकर सीताजी को करोड़ों (अनेकों) प्रकार से सीख दी ॥ १ ॥

सासु ससुर गुर प्रिय परिवारू । फिरहु त सब कर मिटै खभारू ॥
सुनि पति बचन कहति बैदेही । सुनहु प्रानपति परम सनेही ॥ २ ॥

(उन्होंने कहा - ) जो तुम घर लौट जाओ, तो सास, ससुर, गुरु, प्रियजन एवं कुटुम्बी सबकी चिन्ता मिट जाए । पति के वचन सुनकर जानकीजी कहती हैं - हे प्राणपति! हे परम स्नेही! सुनिए ॥ २ ॥

प्रभु करुनामय परम बिबेकी । तनु तजि रहति छाँह किमि छेंकी ॥
प्रभा जाइ कहँ भानु बिहाई । कहँ चंद्रिका चंदु तजि जाई ॥ ३ ॥

हे प्रभो! आप करुणामय और परम ज्ञानी हैं । (कृपा करके विचार तो कीजिए) शरीर को छोड़कर छाया अलग कैसे रोकी रह सकती है? सूर्य की प्रभा सूर्य को छोड़कर कहाँ जा सकती है? और चाँदनी चन्द्रमा को त्यागकर कहाँ जा सकती है? ॥ ३ ॥

पतिहि प्रेममय बिनय सुनाई । कहति सचिव सन गिरा सुहाई ॥
तुम्ह पितु ससुर सरिस हितकारी । उतरु देउँ फिरि अनुचित भारी ॥ ४ ॥

इस प्रकार पति को प्रेममयी विनती सुनाकर सीताजी मंत्री से सुहावनी वाणी कहने लगीं- आप मेरे पिताजी और ससुरजी के समान मेरा हित करने वाले हैं । आपको मैं बदले में उत्तर देती हूँ, यह बहुत ही अनुचित है ॥ ४ ॥

दोहा :

आरति बस सनमुख भइउँ बिलगु न मानब तात ।
आरजसुत पद कमल बिनु बादि जहाँ लगि नात ॥ ९७ ॥

किन्तु हे तात! मैं आर्त्त होकर ही आपके सम्मुख हुई हूँ, आप बुरा न मानिएगा । आर्यपुत्र (स्वामी) के चरणकमलों के बिना जगत में जहाँ तक नाते हैं, सभी मेरे लिए व्यर्थ हैं ॥ ९७ ॥

चौपाई :

पितु बैभव बिलास मैं डीठा । नृप मनि मुकुट मिलित पद पीठा ॥
सुखनिधान अस पितु गृह मोरें । पिय बिहीन मन भाव न भोरें ॥ १ ॥

मैंने पिताजी के ऐश्वर्य की छटा देखी है, जिनके चरण रखने की चौकी से सर्वशिरोमणि राजाओं के मुकुट मिलते हैं (अर्थात बड़े-बड़े राजा जिनके चरणों में प्रणाम करते हैं) ऐसे पिता का घर भी, जो सब प्रकार के सुखों का भंडार है, पति के बिना मेरे मन को भूलकर भी नहीं भाता ॥ १ ॥

ससुर चक्कवइ कोसल राऊ । भुवन चारिदस प्रगट प्रभाऊ ॥
आगें होइ जेहि सुरपति लेई । अरध सिंघासन आसनु देई ॥ २ ॥

मेरे ससुर कोसलराज चक्रवर्ती सम्राट हैं, जिनका प्रभाव चौदहों लोकों में प्रकट है, इन्द्र भी आगे होकर जिनका स्वागत करता है और अपने आधे सिंहासन पर बैठने के लिए स्थान देता है, ॥ २ ॥

ससुरु एतादृस अवध निवासू । प्रिय परिवारु मातु सम सासू ॥
बिनु रघुपति पद पदुम परागा । मोहि केउ सपनेहुँ सुखद न लागा ॥ ३ ॥

ऐसे (ऐश्वर्य और प्रभावशाली) ससुर, (उनकी राजधानी) अयोध्या का निवास, प्रिय कुटुम्बी और माता के समान सासुएँ- ये कोई भी श्री रघुनाथजी के चरण कमलों की रज के बिना मुझे स्वप्न में भी सुखदायक नहीं लगते ॥ ३ ॥

अगम पंथ बनभूमि पहारा । करि केहरि सर सरित अपारा ॥
कोल किरात कुरंग बिहंगा । मोहि सब सुखद प्रानपति संगा ॥ ४ ॥

दुर्गम रास्ते, जंगली धरती, पहाड़, हाथी, सिंह, अथाह तालाब एवं नदियाँ, कोल, भील, हिरन और पक्षी- प्राणपति (श्री रघुनाथजी) के साथ रहते ये सभी मुझे सुख देने वाले होंगे ॥ ४ ॥

दोहा :

सासु ससुर सन मोरि हुँति बिनय करबि परि पायँ ।
मोर सोचु जनि करिअ कछु मैं बन सुखी सुभायँ ॥ ९८ ॥

अतः सास और ससुर के पाँव पड़कर, मेरी ओर से विनती कीजिएगा कि वे मेरा कुछ भी सोच न करें, मैं वन में स्वभाव से ही सुखी हूँ ॥ ९८ ॥

चौपाई :

प्राननाथ प्रिय देवर साथा । बीर धुरीन धरें धनु भाथा ॥
नहिं मग श्रमु भ्रमु दुख मन मोरें । मोहि लगि सोचु करिअ जनि भोरें ॥ १ ॥

वीरों में अग्रगण्य तथा धनुष और (बाणों से भरे) तरकश धारण किए मेरे प्राणनाथ और प्यारे देवर साथ हैं । इससे मुझे न रास्ते की थकावट है, न भ्रम है और न मेरे मन में कोई दुःख ही है । आप मेरे लिए भूलकर भी सोच न करें ॥ १ ॥

सुनि सुमंत्रु सिय सीतलि बानी । भयउ बिकल जनु फनि मनि हानी ॥
नयन सूझ नहिं सुनइ न काना । कहि न सकइ कछु अति अकुलाना ॥ २ ॥

सुमंत्र सीताजी की शीतल वाणी सुनकर ऐसे व्याकुल हो गए जैसे साँप मणि खो जाने पर । नेत्रों से कुछ सूझता नहीं, कानों से सुनाई नहीं देता । वे बहुत व्याकुल हो गए, कुछ कह नहीं सकते ॥ २ ॥

राम प्रबोधु कीन्ह बहु भाँती । तदपि होति नहिं सीतलि छाती ॥
जतन अनेक साथ हित कीन्हे । उचित उतर रघुनंदन दीन्हे ॥ ३ ॥

श्री रामचन्द्रजी ने उनका बहुत प्रकार से समाधान किया । तो भी उनकी छाती ठंडी न हुई । साथ चलने के लिए मंत्री ने अनेकों यत्न किए (युक्तियाँ पेश कीं), पर रघुनंदन श्री रामजी (उन सब युक्तियों का) यथोचित उत्तर देते गए ॥ ३ ॥

मेटि जाइ नहिं राम रजाई । कठिन करम गति कछु न बसाई ॥
राम लखन सिय पद सिरु नाई । फिरेउ बनिक जिमि मूर गवाँई ॥ ४ ॥

श्री रामजी की आज्ञा मेटी नहीं जा सकती । कर्म की गति कठिन है, उस पर कुछ भी वश नहीं चलता । श्री राम, लक्ष्मण और सीताजी के चरणों में सिर नवाकर सुमंत्र इस तरह लौटे जैसे कोई व्यापारी अपना मूलधन (पूँजी) गँवाकर लौटे ॥ ४ ॥

दोहा :

रथु हाँकेउ हय राम तन हेरि हेरि हिहिनाहिं ।
देखि निषाद बिषाद बस धुनहिं सीस पछिताहिं ॥ ९९ ॥

सुमंत्र ने रथ को हाँका, घोड़े श्री रामचन्द्रजी की ओर देख-देखकर हिनहिनाते हैं । यह देखकर निषाद लोग विषाद के वश होकर सिर धुन-धुनकर (पीट-पीटकर) पछताते हैं ॥ ९९ ॥