दोहा :

तब गनपति सिव सुमिरि प्रभु नाइ सुरसरिहि माथ ।
सखा अनुज सिय सहित बन गवनु कीन्ह रघुनाथ ॥ १०४ ॥

तब प्रभु श्री रघुनाथजी गणेशजी और शिवजी का स्मरण करके तथा गंगाजी को मस्तक नवाकर सखा निषादराज, छोटे भाई लक्ष्मणजी और सीताजी सहित वन को चले ॥ १०४ ॥

चौपाई :

तेहि दिन भयउ बिटप तर बासू । लखन सखाँ सब कीन्ह सुपासू ॥
प्रात प्रातकृत करि रघुराई । तीरथराजु दीख प्रभु जाई ॥ १ ॥

उस दिन पेड़ के नीचे निवास हुआ । लक्ष्मणजी और सखा गुह ने (विश्राम की) सब सुव्यवस्था कर दी । प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने सबेरे प्रातःकाल की सब क्रियाएँ करके जाकर तीर्थों के राजा प्रयाग के दर्शन किए ॥ १ ॥

सचिव सत्य श्रद्धा प्रिय नारी । माधव सरिस मीतु हितकारी ॥
चारि पदारथ भरा भँडारू । पुन्य प्रदेस देस अति चारू ॥ २ ॥

उस राजा का सत्य मंत्री है, श्रद्धा प्यारी स्त्री है और श्री वेणीमाधवजी सरीखे हितकारी मित्र हैं । चार पदार्थों (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) से भंडार भरा है और वह पुण्यमय प्रांत ही उस राजा का सुंदर देश है ॥ २ ॥

छेत्रु अगम गढ़ु गाढ़ सुहावा । सपनेहुँ नहिं प्रतिपच्छिन्ह पावा ॥
सेन सकल तीरथ बर बीरा । कलुष अनीक दलन रनधीरा ॥ ३ ॥

प्रयाग क्षेत्र ही दुर्गम, मजबूत और सुंदर गढ़ (किला) है, जिसको स्वप्न में भी (पाप रूपी) शत्रु नहीं पा सके हैं । संपूर्ण तीर्थ ही उसके श्रेष्ठ वीर सैनिक हैं, जो पाप की सेना को कुचल डालने वाले और बड़े रणधीर हैं ॥ ३ ॥

संगमु सिंहासनु सुठि सोहा । छत्रु अखयबटु मुनि मनु मोहा ॥
चवँर जमुन अरु गंग तरंगा । देखि होहिं दुख दारिद भंगा ॥ ४ ॥

((गंगा, यमुना और सरस्वती का) संगम ही उसका अत्यन्त सुशोभित सिंहासन है । अक्षयवट छत्र है, जो मुनियों के भी मन को मोहित कर लेता है । यमुनाजी और गंगाजी की तरंगें उसके (श्याम और श्वेत) चँवर हैं, जिनको देखकर ही दुःख और दरिद्रता नष्ट हो जाती है ॥ ४ ॥

दोहा :

सेवहिं सुकृती साधु सुचि पावहिं सब मनकाम ।
बंदी बेद पुरान गन कहहिं बिमल गुन ग्राम ॥ १०५ ॥

पुण्यात्मा, पवित्र साधु उसकी सेवा करते हैं और सब मनोरथ पाते हैं । वेद और पुराणों के समूह भाट हैं, जो उसके निर्मल गुणगणों का बखान करते हैं ॥ १०५ ॥

चौपाई :

को कहि सकइ प्रयाग प्रभाऊ । कलुष पुंज कुंजर मृगराऊ ॥
अस तीरथपति देखि सुहावा । सुख सागर रघुबर सुखु पावा ॥ १ ॥

पापों के समूह रूपी हाथी के मारने के लिए सिंह रूप प्रयागराज का प्रभाव (महत्व-माहात्म्य) कौन कह सकता है । ऐसे सुहावने तीर्थराज का दर्शन कर सुख के समुद्र रघुकुल श्रेष्ठ श्री रामजी ने भी सुख पाया ॥ १ ॥

कहि सिय लखनहि सखहि सुनाई । श्री मुख तीरथराज बड़ाई ॥
करि प्रनामु देखत बन बागा । कहत महातम अति अनुरागा ॥ २ ॥

उन्होंने अपने श्रीमुख से सीताजी, लक्ष्मणजी और सखा गुह को तीर्थराज की महिमा कहकर सुनाई । तदनन्तर प्रणाम करके, वन और बगीचों को देखते हुए और बड़े प्रेम से माहात्म्य कहते हुए- ॥ २ ॥

एहि बिधि आइ बिलोकी बेनी । सुमिरत सकल सुमंगल देनी ॥
मुदित नहाइ कीन्हि सिव सेवा । पूजि जथाबिधि तीरथ देवा ॥ ३ ॥

इस प्रकार श्री राम ने आकर त्रिवेणी का दर्शन किया, जो स्मरण करने से ही सब सुंदर मंगलों को देने वाली है । फिर आनंदपूर्वक (त्रिवेणी में) स्नान करके शिवजी की सेवा (पूजा) की और विधिपूर्वक तीर्थ देवताओं का पूजन किया ॥ ३ ॥

तब प्रभु भरद्वाज पहिं आए । करत दंडवत मुनि उर लाए ॥
मुनि मन मोद न कछु कहि जाई । ब्रह्मानंद रासि जनु पाई ॥ ४ ॥

(स्नान, पूजन आदि सब करके) तब प्रभु श्री रामजी भरद्वाजजी के पास आए । उन्हें दण्डवत करते हुए ही मुनि ने हृदय से लगा लिया । मुनि के मन का आनंद कुछ कहा नहीं जाता । मानो उन्हें ब्रह्मानन्द की राशि मिल गई हो ॥ ४ ॥

दोहा :

दीन्हि असीस मुनीस उर अति अनंदु अस जानि ।
लोचन गोचर सुकृत फल मनहुँ किए बिधि आनि ॥ १०६ ॥

मुनीश्वर भरद्वाजजी ने आशीर्वाद दिया । उनके हृदय में ऐसा जानकर अत्यन्त आनंद हुआ कि आज विधाता ने (श्री सीताजी और लक्ष्मणजी सहित प्रभु श्री रामचन्द्रजी के दर्शन कराकर) मानो हमारे सम्पूर्ण पुण्यों के फल को लाकर आँखों के सामने कर दिया ॥ १०६ ॥

चौपाई :

कुसल प्रस्न करि आसन दीन्हे । पूजि प्रेम परिपूरन कीन्हे ॥
कंद मूल फल अंकुर नीके । दिए आनि मुनि मनहुँ अमी के ॥ १ ॥

कुशल पूछकर मुनिराज ने उनको आसन दिए और प्रेम सहित पूजन करके उन्हें संतुष्ट कर दिया । फिर मानो अमृत के ही बने हों, ऐसे अच्छे-अच्छे कन्द, मूल, फल और अंकुर लाकर दिए ॥ १ ॥

सीय लखन जन सहित सुहाए । अति रुचि राम मूल फल खाए ॥
भए बिगतश्रम रामु सुखारे । भरद्वाज मृदु बचन उचारे ॥ २ ॥

सीताजी, लक्ष्मणजी और सेवक गुह सहित श्री रामचन्द्रजी ने उन सुंदर मूल-फलों को बड़ी रुचि के साथ खाया । थकावट दूर होने से श्री रामचन्द्रजी सुखी हो गए । तब भरद्वाजजी ने उनसे कोमल वचन कहे - ॥ २ ॥

आजु सफल तपु तीरथ त्यागू । आजु सुफल जप जोग बिरागू ॥
सफल सकल सुभ साधन साजू । राम तुम्हहि अवलोकत आजू ॥ ३ ॥

हे राम! आपका दर्शन करते ही आज मेरा तप, तीर्थ सेवन और त्याग सफल हो गया । आज मेरा जप, योग और वैराग्य सफल हो गया और आज मेरे सम्पूर्ण शुभ साधनों का समुदाय भी सफल हो गया ॥ ३ ॥

लाभ अवधि सुख अवधि न दूजी । तुम्हरें दरस आस सब पूजी ॥
अब करि कृपा देहु बर एहू । निज पद सरसिज सहज सनेहू ॥ ४ ॥

लाभ की सीमा और सुख की सीमा (प्रभु के दर्शन को छोड़कर) दूसरी कुछ भी नहीं है । आपके दर्शन से मेरी सब आशाएँ पूर्ण हो गईं । अब कृपा करके यह वरदान दीजिए कि आपके चरण कमलों में मेरा स्वाभाविक प्रेम हो ॥ ४ ॥

दोहा :

करम बचन मन छाड़ि छलु जब लगि जनु न तुम्हार ।
तब लगि सुखु सपनेहुँ नहीं किएँ कोटि उपचार ॥ १०७ ॥

जब तक कर्म, वचन और मन से छल छोड़कर मनुष्य आपका दास नहीं हो जाता, तब तक करोड़ों उपाय करने से भी, स्वप्न में भी वह सुख नहीं पाता ॥ १०७ ॥

चौपाई :

सुनि मुनि बचन रामु सकुचाने । भाव भगति आनंद अघाने ॥
तब रघुबर मुनि सुजसु सुहावा । कोटि भाँति कहि सबहि सुनावा ॥ १ ॥

मुनि के वचन सुनकर, उनकी भाव-भक्ति के कारण आनंद से तृप्त हुए भगवान श्री रामचन्द्रजी (लीला की दृष्टि से) सकुचा गए । तब (अपने ऐश्वर्य को छिपाते हुए) श्री रामचन्द्रजी ने भरद्वाज मुनि का सुंदर सुयश करोड़ों (अनेकों) प्रकार से कहकर सबको सुनाया ॥ १ ॥

सो बड़ सो सब गुन गन गेहू । जेहि मुनीस तुम्ह आदर देहू ॥
मुनि रघुबीर परसपर नवहीं । बचन अगोचर सुखु अनुभवहीं ॥ २ ॥

(उन्होंने कहा - ) हे मुनीश्वर! जिसको आप आदर दें, वही बड़ा है और वही सब गुण समूहों का घर है । इस प्रकार श्री रामजी और मुनि भरद्वाजजी दोनों परस्पर विनम्र हो रहे हैं और अनिर्वचनीय सुख का अनुभव कर रहे हैं ॥ २ ॥

यह सुधि पाइ प्रयाग निवासी । बटु तापस मुनि सिद्ध उदासी ॥
भरद्वाज आश्रम सब आए । देखन दसरथ सुअन सुहाए ॥ ३ ॥

यह (श्री राम, लक्ष्मण और सीताजी के आने की) खबर पाकर प्रयाग निवासी ब्रह्मचारी, तपस्वी, मुनि, सिद्ध और उदासी सब श्री दशरथजी के सुंदर पुत्रों को देखने के लिए भरद्वाजजी के आश्रम पर आए ॥ ३ ॥

राम प्रनाम कीन्ह सब काहू । मुदित भए लहि लोयन लाहू ॥
देहिं असीस परम सुखु पाई । फिरे सराहत सुंदरताई ॥ ४ ॥

श्री रामचन्द्रजी ने सब किसी को प्रणाम किया । नेत्रों का लाभ पाकर सब आनंदित हो गए और परम सुख पाकर आशीर्वाद देने लगे । श्री रामजी के सौंदर्य की सराहना करते हुए वे लौटे ॥ ४ ॥

दोहा :

राम कीन्ह बिश्राम निसि प्रात प्रयाग नहाइ ।
चले सहितसिय लखन जन मुदित मुनिहि सिरु नाइ ॥ १०८ ॥

श्री रामजी ने रात को वहीं विश्राम किया और प्रातःकाल प्रयागराज का स्नान करके और प्रसन्नता के साथ मुनि को सिर नवाकर श्री सीताजी, लक्ष्मणजी और सेवक गुह के साथ वे चले ॥ १०८ ॥

चौपाई :

राम सप्रेम कहेउ मुनि पाहीं । नाथ कहिअ हम केहि मग जाहीं ॥
मुनि मन बिहसि राम सन कहहीं । सुगम सकल मग तुम्ह कहुँ अहहीं ॥ १ ॥

(चलते समय) बड़े प्रेम से श्री रामजी ने मुनि से कहा - हे नाथ! बताइए हम किस मार्ग से जाएँ । मुनि मन में हँसकर श्री रामजी से कहते हैं कि आपके लिए सभी मार्ग सुगम हैं ॥ १ ॥

साथ लागि मुनि सिष्य बोलाए । सुनि मन मुदित पचासक आए ॥
सबन्हि राम पर प्रेम अपारा । सकल कहहिं मगु दीख हमारा ॥ २ ॥

फिर उनके साथ के लिए मुनि ने शिष्यों को बुलाया । (साथ जाने की बात) सुनते ही चित्त में हर्षित हो कोई पचास शिष्य आ गए । सभी का श्री रामजी पर अपार प्रेम है । सभी कहते हैं कि मार्ग हमारा देखा हुआ है ॥ २ ॥

मुनि बटु चारि संग तब दीन्हे । जिन्ह बहु जनम सुकृत सब कीन्हे ॥
करि प्रनामु रिषि आयसु पाई । प्रमुदित हृदयँ चले रघुराई ॥ ३ ॥

तब मुनि ने (चुनकर) चार ब्रह्मचारियों को साथ कर दिया, जिन्होंने बहुत जन्मों तक सब सुकृत (पुण्य) किए थे । श्री रघुनाथजी प्रणाम कर और ऋषि की आज्ञा पाकर हृदय में बड़े ही आनंदित होकर चले ॥ ३ ॥

ग्राम निकट जब निकसहिं जाई । देखहिं दरसु नारि नर धाई ॥
होहिं सनाथ जनम फलु पाई । फिरहिं दुखित मनु संग पठाई ॥ ४ ॥

जब वे किसी गाँव के पास होकर निकलते हैं, तब स्त्री-पुरुष दौड़कर उनके रूप को देखने लगते हैं । जन्म का फल पाकर वे (सदा के अनाथ) सनाथ हो जाते हैं और मन को नाथ के साथ भेजकर (शरीर से साथ न रहने के कारण) दुःखी होकर लौट आते हैं ॥ ४ ॥

दोहा :

बिदा किए बटु बिनय करि फिरे पाइ मन काम ।
उतरि नहाए जमुन जल जो सरीर सम स्याम ॥ १०९ ॥

तदनन्तर श्री रामजी ने विनती करके चारों ब्रह्मचारियों को विदा किया, वे मनचाही वस्तु (अनन्य भक्ति) पाकर लौटे । यमुनाजी के पार उतरकर सबने यमुनाजी के जल में स्नान किया, जो श्री रामचन्द्रजी के शरीर के समान ही श्याम रंग का था ॥ १०९ ॥

चौपाई :

सुनत तीरबासी नर नारी । धाए निज निज काज बिसारी ॥
लखन राम सिय सुंदरताई । देखि करहिं निज भाग्य बड़ाई ॥ १ ॥

यमुनाजी के किनारे पर रहने वाले स्त्री-पुरुष (यह सुनकर कि निषाद के साथ दो परम सुंदर सुकुमार नवयुवक और एक परम सुंदरी स्त्री आ रही है) सब अपना-अपना काम भूलकर दौड़े और लक्ष्मणजी, श्री रामजी और सीताजी का सौंदर्य देखकर अपने भाग्य की बड़ाई करने लगे ॥ १ ॥

अति लालसा बसहिं मन माहीं । नाउँ गाउँ बूझत सकुचाहीं ॥
जे तिन्ह महुँ बयबिरिध सयाने । तिन्ह करि जुगुति रामु पहिचाने ॥ २ ॥

उनके मन में (परिचय जानने की) बहुत सी लालसाएँ भरी हैं । पर वे नाम-गाँव पूछते सकुचाते हैं । उन लोगों में जो वयोवृद्ध और चतुर थे, उन्होंने युक्ति से श्री रामचन्द्रजी को पहचान लिया ॥ २ ॥

सकल कथा तिन्ह सबहि सुनाई । बनहि चले पितु आयसु पाई ॥
सुनि सबिषाद सकल पछिताहीं । रानी रायँ कीन्ह भल नाहीं ॥ ३ ॥

उन्होंने सब कथा सब लोगों को सुनाई कि पिता की आज्ञा पाकर ये वन को चले हैं । यह सुनकर सब लोग दुःखित हो पछता रहे हैं कि रानी और राजा ने अच्छा नहीं किया ॥ ३ ॥

तेहि अवसर एक तापसु आवा । तेजपुंज लघुबयस सुहावा ॥
कबि अलखित गति बेषु बिरागी । मन क्रम बचन राम अनुरागी ॥ ४ ॥

उसी अवसर पर वहाँ एक तपस्वी आया, जो तेज का पुंज, छोटी अवस्था का और सुंदर था । उसकी गति कवि नहीं जानते (अथवा वह कवि था जो अपना परिचय नहीं देना चाहता) । वह वैरागी के वेष में था और मन, वचन तथा कर्म से श्री रामचन्द्रजी का प्रेमी था ॥ ४ ॥