दोहा :

भयउ निषादु बिषादबस देखत सचिव तुरंग ।
बोलि सुसेवक चारि तब दिए सारथी संग ॥ १४३ ॥

मंत्री और घोड़ों की यह दशा देखकर निषादराज विषाद के वश हो गया । तब उसने अपने चार उत्तम सेवक बुलाकर सारथी के साथ कर दिए ॥ १४३ ॥

चौपाई :

गुह सारथिहि फिरेउ पहुँचाई । बिरहु बिषादु बरनि नहिं जाई ॥
चले अवध लेइ रथहि निषादा । होहिं छनहिं छन मगन बिषादा ॥ १ ॥

निषादराज गुह सारथी (सुमंत्रजी) को पहुँचाकर (विदा करके) लौटा । उसके विरह और दुःख का वर्णन नहीं किया जा सकता । वे चारों निषाद रथ लेकर अवध को चले । (सुमंत्र और घोड़ों को देख-देखकर) वे भी क्षण-क्षणभर विषाद में डूबे जाते थे ॥ १ ॥

सोच सुमंत्र बिकल दुख दीना । धिग जीवन रघुबीर बिहीना ॥
रहिहि न अंतहुँ अधम सरीरू । जसु न लहेउ बिछुरत रघुबीरू ॥ २ ॥

व्याकुल और दुःख से दीन हुए सुमंत्रजी सोचते हैं कि श्री रघुवीर के बिना जीना धिक्कार है । आखिर यह अधम शरीर रहेगा तो है ही नहीं । अभी श्री रामचन्द्रजी के बिछुड़ते ही छूटकर इसने यश (क्यों) नहीं ले लिया ॥ २ ॥

भए अजस अघ भाजन प्राना । कवन हेतु नहिं करत पयाना ॥
अहह मंद मनु अवसर चूका । अजहुँ न हृदय होत दुइ टूका ॥ ३ ॥

ये प्राण अपयश और पाप के भाँडे हो गए । अब ये किस कारण कूच नहीं करते (निकलते नहीं)? हाय! नीच मन (बड़ा अच्छा) मौका चूक गया । अब भी तो हृदय के दो टुकड़े नहीं हो जाते! ॥ ३ ॥

मीजि हाथ सिरु धुनि पछिताई । मनहुँ कृपन धन रासि गवाँई ॥
बिरिद बाँधि बर बीरु कहाई । चलेउ समर जनु सुभट पराई ॥ ४ ॥

सुमंत्र हाथ मल-मलकर और सिर पीट-पीटकर पछताते हैं । मानो कोई कंजूस धन का खजाना खो बैठा हो । वे इस प्रकार चले मानो कोई बड़ा योद्धा वीर का बाना पहनकर और उत्तम शूरवीर कहलाकर युद्ध से भाग चला हो! ॥ ४ ॥

दोहा :

बिप्र बिबेकी बेदबिद संमत साधु सुजाति ।
जिमि धोखें मदपान कर सचिव सोच तेहि भाँति ॥ १४४ ॥

जैसे कोई विवेकशील, वेद का ज्ञाता, साधुसम्मत आचरणों वाला और उत्तम जाति का (कुलीन) ब्राह्मण धोखे से मदिरा पी ले और पीछे पछतावे, उसी प्रकार मंत्री सुमंत्र सोच कर रहे (पछता रहे) हैं ॥ १४४ ॥

चौपाई :

जिमि कुलीन तिय साधु सयानी । पतिदेवता करम मन बानी ॥
रहै करम बस परिहरि नाहू । सचिव हृदयँ तिमि दारुन दाहू ॥ १ ॥

जैसे किसी उत्तम कुलवाली, साधु स्वाभाव की, समझदार और मन, वचन, कर्म से पति को ही देवता मानने वाली पतिव्रता स्त्री को भाग्यवश पति को छोड़कर (पति से अलग) रहना पड़े, उस समय उसके हृदय में जैसे भयानक संताप होता है, वैसे ही मंत्री के हृदय में हो रहा है ॥ १ ॥

लोचन सजल डीठि भइ थोरी । सुनइ न श्रवन बिकल मति भोरी ॥
सूखहिं अधर लागि मुहँ लाटी । जिउ न जाइ उर अवधि कपाटी ॥ २ ॥

नेत्रों में जल भरा है, दृष्टि मंद हो गई है । कानों से सुनाई नहीं पड़ता, व्याकुल हुई बुद्धि बेठिकाने हो रही है । होठ सूख रहे हैं, मुँह में लाटी लग गई है, किन्तु (ये सब मृत्यु के लक्षण हो जाने पर भी) प्राण नहीं निकलते, क्योंकि हृदय में अवधि रूपी किवाड़ लगे हैं (अर्थात चौदह वर्ष बीत जाने पर भगवान फिर मिलेंगे, यही आशा रुकावट डाल रही है) ॥ २ ॥

बिबरन भयउ न जाइ निहारी । मारेसि मनहुँ पिता महतारी ॥
हानि गलानि बिपुल मन ब्यापी । जमपुर पंथ सोच जिमि पापी ॥ ३ ॥

सुमंत्रजी के मुख का रंग बदल गया है, जो देखा नहीं जाता । ऐसा मालूम होता है मानो इन्होंने माता-पिता को मार डाला हो । उनके मन में रामवियोग रूपी हानि की महान ग्लानि (पीड़ा) छा रही है, जैसे कोई पापी मनुष्य नरक को जाता हुआ रास्ते में सोच कर रहा हो ॥ ३ ॥

बचनु न आव हृदयँ पछिताई । अवध काह मैं देखब जाई ॥
राम रहित रथ देखिहि जोई । सकुचिहि मोहि बिलोकत सोई ॥ ४ ॥

मुँह से वचन नहीं निकलते । हृदय में पछताते हैं कि मैं अयोध्या में जाकर क्या देखूँगा? श्री रामचन्द्रजी से शून्य रथ को जो भी देखेगा, वही मुझे देखने में संकोच करेगा (अर्थात मेरा मुँह नहीं देखना चाहेगा) ॥ ४ ॥

दोहा :

धाइ पूँछिहहिं मोहि जब बिकल नगर नर नारि ।
उतरु देब मैं सबहि तब हृदयँ बज्रु बैठारि ॥ १४५ ॥

नगर के सब व्याकुल स्त्री-पुरुष जब दौड़कर मुझसे पूछेंगे, तब मैं हृदय पर वज्र रखकर सबको उत्तर दूँगा ॥ १४५ ॥

चौपाई :

पुछिहहिं दीन दुखित सब माता । कहब काह मैं तिन्हहि बिधाता ।
पूछिहि जबहिं लखन महतारी । कहिहउँ कवन सँदेस सुखारी ॥ १ ॥

जब दीन-दुःखी सब माताएँ पूछेंगी, तब हे विधाता! मैं उन्हें क्या कहूँगा? जब लक्ष्मणजी की माता मुझसे पूछेंगी, तब मैं उन्हें कौन सा सुखदायी सँदेसा कहूँगा? ॥ १ ॥

राम जननि जब आइहि धाई । सुमिरि बच्छु जिमि धेनु लवाई ॥
पूँछत उतरु देब मैं तेही । गे बनु राम लखनु बैदेही ॥ २ ॥

श्री रामजी की माता जब इस प्रकार दौड़ी आवेंगी जैसे नई ब्यायी हुई गौ बछड़े को याद करके दौड़ी आती है, तब उनके पूछने पर मैं उन्हें यह उत्तर दूँगा कि श्री राम, लक्ष्मण, सीता वन को चले गए! ॥ २ ॥

जोई पूँछिहि तेहि ऊतरु देबा । जाइ अवध अब यहु सुखु लेबा ॥
पूँछिहि जबहिं राउ दुख दीना । जिवनु जासु रघुनाथ अधीना ॥ ३ ॥

जो भी पूछेगा उसे यही उत्तर देना पड़ेगा! हाय! अयोध्या जाकर अब मुझे यही सुख लेना है! जब दुःख से दीन महाराज, जिनका जीवन श्री रघुनाथजी के (दर्शन के) ही अधीन है, मुझसे पूछेंगे, ॥ ३ ॥

देहउँ उतरु कौनु मुहु लाई । आयउँ कुसल कुअँर पहुँचाई ॥
सुनत लखन सिय राम सँदेसू । तृन जिमि तनु परिहरिहि नरेसू ॥ ४ ॥

तब मैं कौन सा मुँह लेकर उन्हें उत्तर दूँगा कि मैं राजकुमारों को कुशल पूर्वक पहुँचा आया हूँ! लक्ष्मण, सीता और श्रीराम का समाचार सुनते ही महाराज तिनके की तरह शरीर को त्याग देंगे ॥ ४ ॥

दोहा :

हृदउ न बिदरेउ पंक जिमि बिछुरत प्रीतमु नीरु ।
जानत हौं मोहि दीन्ह बिधि यहु जातना सरीरु ॥ १४६ ॥

प्रियतम (श्री रामजी) रूपी जल के बिछुड़ते ही मेरा हृदय कीचड़ की तरह फट नहीं गया, इससे मैं जानता हूँ कि विधाता ने मुझे यह ‘यातना शरीर’ ही दिया है (जो पापी जीवों को नरक भोगने के लिए मिलता है) ॥ १४६ ॥

चौपाई :

एहि बिधि करत पंथ पछितावा । तमसा तीर तुरत रथु आवा ॥
बिदा किए करि बिनय निषादा । फिरे पायँ परि बिकल बिषादा ॥ १ ॥

सुमंत्र इस प्रकार मार्ग में पछतावा कर रहे थे, इतने में ही रथ तुरंत तमसा नदी के तट पर आ पहुँचा । मंत्री ने विनय करके चारों निषादों को विदा किया । वे विषाद से व्याकुल होते हुए सुमंत्र के पैरों पड़कर लौटे ॥ १ ॥

पैठत नगर सचिव सकुचाई । जनु मारेसि गुर बाँभन गाई ॥
बैठि बिटप तर दिवसु गवाँवा । साँझ समय तब अवसरु पावा ॥ २ ॥

नगर में प्रवेश करते मंत्री (ग्लानि के कारण) ऐसे सकुचाते हैं, मानो गुरु, ब्राह्मण या गौ को मारकर आए हों । सारा दिन एक पेड़ के नीचे बैठकर बिताया । जब संध्या हुई तब मौका मिला ॥ २ ॥

अवध प्रबेसु कीन्ह अँधिआरें । पैठ भवन रथु राखि दुआरें ॥
जिन्ह जिन्ह समाचार सुनि पाए । भूप द्वार रथु देखन आए ॥ ३ ॥

अँधेरा होने पर उन्होंने अयोध्या में प्रवेश किया और रथ को दरवाजे पर खड़ा करके वे (चुपके से) महल में घुसे । जिन-जिन लोगों ने यह समाचार सुना पाया, वे सभी रथ देखने को राजद्वार पर आए ॥ ३ ॥

रथु पहिचानि बिकल लखि घोरे । गरहिं गात जिमि आतप ओरे ॥
नगर नारि नर ब्याकुल कैसें । निघटत नीर मीनगन जैसें ॥ ४ ॥

रथ को पहचानकर और घोड़ों को व्याकुल देखकर उनके शरीर ऐसे गले जा रहे हैं (क्षीण हो रहे हैं) जैसे घाम में ओले! नगर के स्त्री-पुरुष कैसे व्याकुल हैं, जैसे जल के घटने पर मछलियाँ (व्याकुल होती हैं) ॥ ४ ॥

दोहा :

सचिव आगमनु सुनत सबु बिकल भयउ रनिवासु ।
भवनु भयंकरु लाग तेहि मानहुँ प्रेत निवासु ॥ १४७ ॥

मंत्री का (अकेले ही) आना सुनकर सारा रनिवास व्याकुल हो गया । राजमहल उनको ऐसा भयानक लगा मानो प्रेतों का निवास स्थान (श्मशान) हो ॥ १४७ ॥

चौपाई :

अति आरति सब पूँछहिं रानी । उतरु न आव बिकल भइ बानी ॥
सुनइ न श्रवन नयन नहिं सूझा । कहहु कहाँ नृपु तेहि तेहि बूझा ॥ १ ॥

अत्यन्त आर्त होकर सब रानियाँ पूछती हैं, पर सुमंत्र को कुछ उत्तर नहीं आता, उनकी वाणी विकल हो गई (रुक गई) है । न कानों से सुनाई पड़ता है और न आँखों से कुछ सूझता है । वे जो भी सामने आता है उस-उससे पूछते हैं कहो, राजा कहाँ हैं ? ॥ १ ॥

दासिन्ह दीख सचिव बिकलाई । कौसल्या गृहँ गईं लवाई ॥
जाइ सुमंत्र दीख कस राजा । अमिअ रहित जनु चंदु बिराजा ॥ २ ॥

दासियाँ मंत्री को व्याकुल देखकर उन्हें कौसल्याजी के महल में लिवा गईं । सुमंत्र ने जाकर वहाँ राजा को कैसा (बैठे) देखा मानो बिना अमृत का चन्द्रमा हो ॥ २ ॥

आसन सयन बिभूषन हीना । परेउ भूमितल निपट मलीना ॥
लेइ उसासु सोच एहि भाँती । सुरपुर तें जनु खँसेउ जजाती ॥ ३ ॥

राजा आसन, शय्या और आभूषणों से रहित बिलकुल मलिन (उदास) पृथ्वी पर पड़े हुए हैं । वे लंबी साँसें लेकर इस प्रकार सोच करते हैं, मानो राजा ययाति स्वर्ग से गिरकर सोच कर रहे हों ॥ ३ ॥

लेत सोच भरि छिनु छिनु छाती । जनु जरि पंख परेउ संपाती ॥
राम राम कह राम सनेही । पुनि कह राम लखन बैदेही ॥ ४ ॥

राजा क्षण-क्षण में सोच से छाती भर लेते हैं । ऐसी विकल दशा है मानो (गीध राज जटायु का भाई) सम्पाती पंखों के जल जाने पर गिर पड़ा हो । राजा (बार-बार) ‘राम, राम’ ‘हा स्नेही (प्यारे) राम!’ कहते हैं, फिर ‘हा राम, हा लक्ष्मण, हा जानकी’ ऐसा कहने लगते हैं ॥ ४ ॥