दोहा :
देखि सचिवँ जय जीव कहि कीन्हेउ दंड प्रनामु ।
सुनत उठेउ ब्याकुल नृपति कहु सुमंत्र कहँ रामु ॥ १४८ ॥
मंत्री ने देखकर ‘जयजीव’ कहकर दण्डवत् प्रणाम किया । सुनते ही राजा व्याकुल होकर उठे और बोले - सुमंत्र! कहो, राम कहाँ हैं ? ॥ १४८ ॥
चौपाई :
भूप सुमंत्रु लीन्ह उर लाई । बूड़त कछु अधार जनु पाई ॥
सहित सनेह निकट बैठारी । पूँछत राउ नयन भरि बारी ॥ १ ॥
राजा ने सुमंत्र को हृदय से लगा लिया । मानो डूबते हुए आदमी को कुछ सहारा मिल गया हो । मंत्री को स्नेह के साथ पास बैठाकर नेत्रों में जल भरकर राजा पूछने लगे- ॥ १ ॥
राम कुसल कहु सखा सनेही । कहँ रघुनाथु लखनु बैदेही ॥
आने फेरि कि बनहि सिधाए । सुनत सचिव लोचन जल छाए ॥ २ ॥
हे मेरे प्रेमी सखा! श्री राम की कुशल कहो । बताओ, श्री राम, लक्ष्मण और जानकी कहाँ हैं? उन्हें लौटा लाए हो कि वे वन को चले गए? यह सुनते ही मंत्री के नेत्रों में जल भर आया ॥ २ ॥
सोक बिकल पुनि पूँछ नरेसू । कहु सिय राम लखन संदेसू ॥
राम रूप गुन सील सुभाऊ । सुमिरि सुमिरि उर सोचत राऊ ॥ ३ ॥
शोक से व्याकुल होकर राजा फिर पूछने लगे- सीता, राम और लक्ष्मण का संदेसा तो कहो । श्री रामचन्द्रजी के रूप, गुण, शील और स्वभाव को याद कर-करके राजा हृदय में सोच करते हैं ॥ ३ ॥
राउ सुनाइ दीन्ह बनबासू । सुनि मन भयउ न हरषु हराँसू ॥
सो सुत बिछुरत गए न प्राना । को पापी बड़ मोहि समाना ॥ ४ ॥
(और कहते हैं - ) मैंने राजा होने की बात सुनाकर वनवास दे दिया, यह सुनकर भी जिस (राम) के मन में हर्ष और विषाद नहीं हुआ, ऐसे पुत्र के बिछुड़ने पर भी मेरे प्राण नहीं गए, तब मेरे समान बड़ा पापी कौन होगा ? ॥ ४ ॥
दोहा :
सखा रामु सिय लखनु जहँ तहाँ मोहि पहुँचाउ ।
नाहिं त चाहत चलन अब प्रान कहउँ सतिभाउ ॥ १४९ ॥
हे सखा! श्री राम, जानकी और लक्ष्मण जहाँ हैं, मुझे भी वहीं पहुँचा दो । नहीं तो मैं सत्य भाव से कहता हूँ कि मेरे प्राण अब चलना ही चाहते हैं ॥ १४९ ॥
चौपाई :
पुनि पुनि पूँछत मंत्रिहि राऊ । प्रियतम सुअन सँदेस सुनाऊ ॥
करहि सखा सोइ बेगि उपाऊ । रामु लखनु सिय नयन देखाऊ ॥ १ ॥
राजा बार-बार मंत्री से पूछते हैं - मेरे प्रियतम पुत्रों का संदेसा सुनाओ । हे सखा! तुम तुरंत वही उपाय करो जिससे श्री राम, लक्ष्मण और सीता को मुझे आँखों दिखा दो ॥ १ ॥
सचिव धीर धरि कह मृदु बानी । महाराज तुम्ह पंडित ग्यानी ॥
बीर सुधीर धुरंधर देवा । साधु समाजु सदा तुम्ह सेवा ॥ २ ॥
मंत्री धीरज धरकर कोमल वाणी बोले - महाराज! आप पंडित और ज्ञानी हैं । हे देव! आप शूरवीर तथा उत्तम धैर्यवान पुरुषों में श्रेष्ठ हैं । आपने सदा साधुओं के समाज की सेवा की है ॥ २ ॥
जनम मरन सब दुख सुख भोगा । हानि लाभु प्रिय मिलन बियोगा ॥
काल करम बस होहिं गोसाईं । बरबस राति दिवस की नाईं ॥ ३ ॥
जन्म-मरण, सुख-दुःख के भोग, हानि-लाभ, प्यारों का मिलना-बिछुड़ना, ये सब हे स्वामी! काल और कर्म के अधीन रात और दिन की तरह बरबस होते रहते हैं ॥ ३ ॥
सुख हरषहिं जड़ दुख बिलखाहीं । दोउ सम धीर धरहिं मन माहीं ॥
धीरज धरहु बिबेकु बिचारी । छाड़िअ सोच सकल हितकारी ॥ ४ ॥
मूर्ख लोग सुख में हर्षित होते और दुःख में रोते हैं, पर धीर पुरुष अपने मन में दोनों को समान समझते हैं । हे सबके हितकारी (रक्षक)! आप विवेक विचारकर धीरज धरिए और शोक का परित्याग कीजिए ॥ ४ ॥
दोहा :
प्रथम बासु तमसा भयउ दूसर सुरसरि तीर ।
न्हाइ रहे जलपानु करि सिय समेत दोउ बीर ॥ १५० ॥
श्री रामजी का पहला निवास (मुकाम) तमसा के तट पर हुआ, दूसरा गंगातीर पर । सीताजी सहित दोनों भाई उस दिन स्नान करके जल पीकर ही रहे ॥ १५० ॥
चौपाई :
केवट कीन्हि बहुत सेवकाई । सो जामिनि सिंगरौर गवाँई ॥
होत प्रात बट छीरु मगावा । जटा मुकुट निज सीस बनावा ॥ १ ॥
केवट (निषादराज) ने बहुत सेवा की । वह रात सिंगरौर (श्रृंगवेरपुर) में ही बिताई । दूसरे दिन सबेरा होते ही बड़ का दूध मँगवाया और उससे श्री राम-लक्ष्मण ने अपने सिरों पर जटाओं के मुकुट बनाए ॥ १ ॥
राम सखाँ तब नाव मगाई । प्रिया चढ़ाई चढ़े रघुराई ॥
लखन बान धनु धरे बनाई । आपु चढ़े प्रभु आयसु पाई ॥ २ ॥
तब श्री रामचन्द्रजी के सखा निषादराज ने नाव मँगवाई । पहले प्रिया सीताजी को उस पर चढ़ाकर फिर श्री रघुनाथजी चढ़े । फिर लक्ष्मणजी ने धनुष-बाण सजाकर रखे और प्रभु श्री रामचन्द्रजी की आज्ञा पाकर स्वयं चढ़े ॥ २ ॥
बिकल बिलोकि मोहि रघुबीरा । बोले मधुर बचन धरि धीरा ॥
तात प्रनामु तात सन कहेहू । बार बार पद पंकज गहेहू ॥ ३ ॥
मुझे व्याकुल देखकर श्री रामचन्द्रजी धीरज धरकर मधुर वचन बोले - हे तात! पिताजी से मेरा प्रणाम कहना और मेरी ओर से बार-बार उनके चरण कमल पकड़ना ॥ ३ ॥
करबि पायँ परि बिनय बहोरी । तात करिअ जनि चिंता मोरी ॥
बन मग मंगल कुसल हमारें । कृपा अनुग्रह पुन्य तुम्हारें ॥ ४ ॥
फिर पाँव पकड़कर विनती करना कि हे पिताजी! आप मेरी चिंता न कीजिए । आपकी कृपा, अनुग्रह और पुण्य से वन में और मार्ग में हमारा कुशल-मंगल होगा ॥ ४ ॥
छन्द :
तुम्हरें अनुग्रह तात कानन जात सब सुखु पाइहौं ।
प्रतिपालि आयसु कुसल देखन पाय पुनि फिरि आइहौं ॥
जननीं सकल परितोषि परि परि पायँ करि बिनती घनी ।
तुलसी करहु सोइ जतनु जेहिं कुसली रहहिं कोसलधनी ॥
हे पिताजी! आपके अनुग्रह से मैं वन जाते हुए सब प्रकार का सुख पाऊँगा । आज्ञा का भलीभाँति पालन करके चरणों का दर्शन करने कुशल पूर्वक फिर लौट आऊँगा । सब माताओं के पैरों पड़-पड़कर उनका समाधान करके और उनसे बहुत विनती करके तुलसीदास कहते हैं - तुम वही प्रयत्न करना, जिसमें कोसलपति पिताजी कुशल रहें ।
सोरठा :
गुर सन कहब सँदेसु बार बार पद पदुम गहि ।
करब सोइ उपदेसु जेहिं न सोच मोहि अवधपति ॥ १५१ ॥
बार-बार चरण कमलों को पकड़कर गुरु वशिष्ठजी से मेरा संदेसा कहना कि वे वही उपदेश दें, जिससे अवधपति पिताजी मेरा सोच न करें ॥ १५१ ॥
चौपाई :
पुरजन परिजन सकल निहोरी । तात सुनाएहु बिनती मोरी ॥
सोइ सब भाँति मोर हितकारी । जातें रह नरनाहु सुखारी ॥ १ ॥
हे तात! सब पुरवासियों और कुटुम्बियों से निहोरा (अनुरोध) करके मेरी विनती सुनाना कि वही मनुष्य मेरा सब प्रकार से हितकारी है, जिसकी चेष्टा से महाराज सुखी रहें ॥ १ ॥
कहब सँदेसु भरत के आएँ । नीति न तजिअ राजपदु पाएँ ॥
पालेहु प्रजहि करम मन बानी । सेएहु मातु सकल सम जानी ॥ २ ॥
भरत के आने पर उनको मेरा संदेसा कहना कि राजा का पद पा जाने पर नीति न छोड़ देना, कर्म, वचन और मन से प्रजा का पालन करना और सब माताओं को समान जानकर उनकी सेवा करना ॥ २ ॥
ओर निबाहेहु भायप भाई । करि पितु मातु सुजन सेवकाई ॥
तात भाँति तेहि राखब राऊ । सोच मोर जेहिं करै न काऊ ॥ ३ ॥
और हे भाई! पिता, माता और स्वजनों की सेवा करके भाईपन को अंत तक निबाहना । हे तात! राजा (पिताजी) को उसी प्रकार से रखना जिससे वे कभी (किसी तरह भी) मेरा सोच न करें ॥ ३ ॥
लखन कहे कछु बचन कठोरा । बरजि राम पुनि मोहि निहोरा ॥
बार बार निज सपथ देवाई । कहबि न तात लखन लारिकाई ॥ ४ ॥
लक्ष्मणजी ने कुछ कठोर वचन कहे, किन्तु श्री रामजी ने उन्हें बरजकर फिर मुझसे अनुरोध किया और बार-बार अपनी सौगंध दिलाई (और कहा) हे तात! लक्ष्मण का लड़कपन वहाँ न कहना ॥ ४ ॥
दोहा :
कहि प्रनामु कछु कहन लिय सिय भइ सिथिल सनेह ।
थकित बचन लोचन सजल पुलक पल्लवित देह ॥ १५२ ॥
प्रणाम कर सीताजी भी कुछ कहने लगी थीं, परन्तु स्नेहवश वे शिथिल हो गईं । उनकी वाणी रुक गई, नेत्रों में जल भर आया और शरीर रोमांच से व्याप्त हो गया ॥ १५२ ॥
चौपाई :
तेहि अवसर रघुबर रुख पाई । केवट पारहि नाव चलाई ॥
रघुकुलतिलक चले एहि भाँती । देखउँ ठाढ़ कुलिस धरि छाती ॥ १ ॥
उसी समय श्री रामचन्द्रजी का रुख पाकर केवट ने पार जाने के लिए नाव चला दी । इस प्रकार रघुवंश तिलक श्री रामचन्द्रजी चल दिए और मैं छाती पर वज्र रखकर खड़ा-खड़ा देखता रहा ॥ १ ॥
मैं आपन किमि कहौं कलेसू । जिअत फिरेउँ लेइ राम सँदेसू ॥
अस कहि सचिव बचन रहि गयऊ । हानि गलानि सोच बस भयऊ ॥ २ ॥
मैं अपने क्लेश को कैसे कहूँ, जो श्री रामजी का यह संदेसा लेकर जीता ही लौट आया! ऐसा कहकर मंत्री की वाणी रुक गई (वे चुप हो गए) और वे हानि की ग्लानि और सोच के वश हो गए ॥ २ ॥
सूत बचन सुनतहिं नरनाहू । परेउ धरनि उर दारुन दाहू ॥
तलफत बिषम मोह मन मापा । माजा मनहुँ मीन कहुँ ब्यापा ॥ ३ ॥
सारथी सुमंत्र के वचन सुनते ही राजा पृथ्वी पर गिर पड़े, उनके हृदय में भयानक जलन होने लगी । वे तड़पने लगे, उनका मन भीषण मोह से व्याकुल हो गया । मानो मछली को माँजा व्याप गया हो (पहली वर्षा का जल लग गया हो) ॥ ३ ॥
करि बिलाप सब रोवहिं रानी । महा बिपति किमि जाइ बखानी ॥
सुनि बिलाप दुखहू दुखु लागा । धीरजहू कर धीरजु भागा ॥ ४ ॥
सब रानियाँ विलाप करके रो रही हैं । उस महान विपत्ति का कैसे वर्णन किया जाए? उस समय के विलाप को सुनकर दुःख को भी दुःख लगा और धीरज का भी धीरज भाग गया! ॥ ४ ॥
दोहा :
भयउ कोलाहलु अवध अति सुनि नृप राउर सोरु ।
बिपुल बिहग बन परेउ निसि मानहुँ कुलिस कठोरु ॥ १५३ ॥
राजा के रावले (रनिवास) में (रोने का) शोर सुनकर अयोध्या भर में बड़ा भारी कुहराम मच गया! (ऐसा जान पड़ता था) मानो पक्षियों के विशाल वन में रात के समय कठोर वज्र गिरा हो ॥ १५३ ॥
चौपाई :
प्रान कंठगत भयउ भुआलू । मनि बिहीन जनु ब्याकुल ब्यालू ॥
इंद्रीं सकल बिकल भइँ भारी । जनु सर सरसिज बनु बिनु बारी ॥ १ ॥
राजा के प्राण कंठ में आ गए । मानो मणि के बिना साँप व्याकुल (मरणासन्न) हो गया हो । इन्द्रियाँ सब बहुत ही विकल हो गईं, मानो बिना जल के तालाब में कमलों का वन मुरझा गया हो ॥ १ ॥
कौसल्याँ नृपु दीख मलाना । रबिकुल रबि अँथयउ जियँ जाना ॥
उर धरि धीर राम महतारी । बोली बचन समय अनुसारी ॥ २ ॥
कौसल्याजी ने राजा को बहुत दुःखी देखकर अपने हृदय में जान लिया कि अब सूर्यकुल का सूर्य अस्त हो चला! तब श्री रामचन्द्रजी की माता कौसल्या हृदय में धीरज धरकर समय के अनुकूल वचन बोलीं - ॥ २ ॥
नाथ समुझि मन करिअ बिचारू । राम बियोग पयोधि अपारू ॥
करनधार तुम्ह अवध जहाजू । चढ़ेउ सकल प्रिय पथिक समाजू ॥ ३ ॥
हे नाथ! आप मन में समझ कर विचार कीजिए कि श्री रामचन्द्र का वियोग अपार समुद्र है । अयोध्या जहाज है और आप उसके कर्णधार (खेने वाले) हैं । सब प्रियजन (कुटुम्बी और प्रजा) ही यात्रियों का समाज है, जो इस जहाज पर चढ़ा हुआ है ॥ ३ ॥
धीरजु धरिअ त पाइअ पारू । नाहिं त बूड़िहि सबु परिवारू ॥
जौं जियँ धरिअ बिनय पिय मोरी । रामु लखनु सिय मिलहिं बहोरी ॥ ४ ॥
आप धीरज धरिएगा, तो सब पार पहुँच जाएँगे । नहीं तो सारा परिवार डूब जाएगा । हे प्रिय स्वामी! यदि मेरी विनती हृदय में धारण कीजिएगा तो श्री राम, लक्ष्मण, सीता फिर आ मिलेंगे ॥ ४ ॥
दोहा :
प्रिया बचन मृदु सुनत नृपु चितयउ आँखि उघारि ।
तलफत मीन मलीन जनु सींचत सीतल बारि ॥ १५४ ॥
प्रिय पत्नी कौसल्या के कोमल वचन सुनते हुए राजा ने आँखें खोलकर देखा! मानो तड़पती हुई दीन मछली पर कोई शीतल जल छिड़क रहा हो ॥ १५४ ॥
चौपाई :
धरि धीरजु उठि बैठ भुआलू । कहु सुमंत्र कहँ राम कृपालू ॥
कहाँ लखनु कहँ रामु सनेही । कहँ प्रिय पुत्रबधू बैदेही ॥ १ ॥
धीरज धरकर राजा उठ बैठे और बोले - सुमंत्र! कहो, कृपालु श्री राम कहाँ हैं? लक्ष्मण कहाँ हैं? स्नेही राम कहाँ हैं? और मेरी प्यारी बहू जानकी कहाँ है? ॥ १ ॥
बिलपत राउ बिकल बहु भाँती । भइ जुग सरिस सिराति न राती ॥
तापस अंध साप सुधि आई । कौसल्यहि सब कथा सुनाई ॥ २ ॥
राजा व्याकुल होकर बहुत प्रकार से विलाप कर रहे हैं । वह रात युग के समान बड़ी हो गई, बीतती ही नहीं । राजा को अंधे तपस्वी (श्रवणकुमार के पिता) के शाप की याद आ गई । उन्होंने सब कथा कौसल्या को कह सुनाई ॥ २ ॥
भयउ बिकल बरनत इतिहासा । राम रहित धिग जीवन आसा ॥
सो तनु राखि करब मैं काहा । जेहिं न प्रेम पनु मोर निबाहा ॥ ३ ॥
उस इतिहास का वर्णन करते-करते राजा व्याकुल हो गए और कहने लगे कि श्री राम के बिना जीने की आशा को धिक्कार है । मैं उस शरीर को रखकर क्या करूँगा, जिसने मेरा प्रेम का प्रण नहीं निबाहा? ॥ ३ ॥
हा रघुनंदन प्रान पिरीते । तुम्ह बिनु जिअत बहुत दिन बीते ॥
हा जानकी लखन हा रघुबर । हा पितु हित चित चातक जलधर ॥ ४ ॥
हा रघुकुल को आनंद देने वाले मेरे प्राण प्यारे राम! तुम्हारे बिना जीते हुए मुझे बहुत दिन बीत गए । हा जानकी, लक्ष्मण! हा रघुवीर! हा पिता के चित्त रूपी चातक के हित करने वाले मेघ! ॥ ४ ॥
दोहा :
राम राम कहि राम कहि राम राम कहि राम ।
तनु परिहरि रघुबर बिरहँ राउ गयउ सुरधाम ॥ १५५ ॥
राम-राम कहकर, फिर राम कहकर, फिर राम-राम कहकर और फिर राम कहकर राजा श्री राम के विरह में शरीर त्याग कर सुरलोक को सिधार गए ॥ १५५ ॥
चौपाई :
जिअन मरन फलु दसरथ पावा । अंड अनेक अमल जसु छावा ॥
जिअत राम बिधु बदनु निहारा । राम बिरह करि मरनु सँवारा ॥ १ ॥
जीने और मरने का फल तो दशरथजी ने ही पाया, जिनका निर्मल यश अनेकों ब्रह्मांडों में छा गया । जीते जी तो श्री रामचन्द्रजी के चन्द्रमा के समान मुख को देखा और श्री राम के विरह को निमित्त बनाकर अपना मरण सुधार लिया ॥ १ ॥
सोक बिकल सब रोवहिं रानी । रूपु सीलु बलु तेजु बखानी ॥
करहिं बिलाप अनेक प्रकारा । परहिं भूमितल बारहिं बारा ॥ २ ॥
सब रानियाँ शोक के मारे व्याकुल होकर रो रही हैं । वे राजा के रूप, शील, बल और तेज का बखान कर-करके अनेकों प्रकार से विलाप कर रही हैं और बार-बार धरती पर गिर-गिर पड़ती हैं ॥ २ ॥
बिलपहिं बिकल दास अरु दासी । घर घर रुदनु करहिं पुरबासी ॥
अँथयउ आजु भानुकुल भानू । धरम अवधि गुन रूप निधानू ॥ ३ ॥
दास-दासीगण व्याकुल होकर विलाप कर रहे हैं और नगर निवासी घर-घर रो रहे हैं । कहते हैं कि आज धर्म की सीमा, गुण और रूप के भंडार सूर्यकुल के सूर्य अस्त हो गए? ॥ ३ ॥
गारीं सकल कैकइहि देहीं । नयन बिहीन कीन्ह जग जेहीं ॥
एहि बिधि बिलपत रैनि बिहानी । आए सकल महामुनि ग्यानी ॥ ४ ॥
सब कैकेयी को गालियाँ देते हैं, जिसने संसार भर को बिना नेत्रों का (अंधा) कर दिया! इस प्रकार विलाप करते रात बीत गई । प्रातःकाल सब बड़े-बड़े ज्ञानी मुनि आए ॥ ४ ॥