दोहा :

तब बसिष्ठ मुनि समय सम कहि अनेक इतिहास ।
सोक नेवारेउ सबहि कर निज बिग्यान प्रकास ॥ १५६ ॥

तब वशिष्ठ मुनि ने समय के अनुकूल अनेक इतिहास कहकर अपने विज्ञान के प्रकाश से सबका शोक दूर किया ॥ १५६ ॥

चौपाई :

तेल नावँ भरि नृप तनु राखा । दूत बोलाइ बहुरि अस भाषा ॥
धावहु बेगि भरत पहिं जाहू । नृप सुधि कतहुँ कहहु जनि काहू ॥ १ ॥

वशिष्ठजी ने नाव में तेल भरवाकर राजा के शरीर को उसमें रखवा दिया । फिर दूतों को बुलवाकर उनसे ऐसा कहा - तुम लोग जल्दी दौड़कर भरत के पास जाओ । राजा की मृत्यु का समाचार कहीं किसी से न कहना ॥ १ ॥

एतनेइ कहेहु भरत सन जाई । गुर बोलाइ पठयउ दोउ भाई ॥
सुनि मुनि आयसु धावन धाए । चले बेग बर बाजि लजाए ॥ २ ॥

जाकर भरत से इतना ही कहना कि दोनों भाइयों को गुरुजी ने बुलवा भेजा है । मुनि की आज्ञा सुनकर धावन (दूत) दौड़े । वे अपने वेग से उत्तम घोड़ों को भी लजाते हुए चले ॥ २ ॥

अनरथु अवध अरंभेउ जब तें । कुसगुन होहिं भरत कहुँ तब तें ॥
देखहिं राति भयानक सपना । जागि करहिं कटु कोटि कलपना ॥ ३ ॥

जब से अयोध्या में अनर्थ प्रारंभ हुआ, तभी से भरतजी को अपशकुन होने लगे । वे रात को भयंकर स्वप्न देखते थे और जागने पर (उन स्वप्नों के कारण) करोड़ों (अनेकों) तरह की बुरी-बुरी कल्पनाएँ किया करते थे ॥ ३ ॥

बिप्र जेवाँइ देहिं दिन दाना । सिव अभिषेक करहिं बिधि नाना ॥
मागहिं हृदयँ महेस मनाई । कुसल मातु पितु परिजन भाई ॥ ४ ॥

(अनिष्टशान्ति के लिए) वे प्रतिदिन ब्राह्मणों को भोजन कराकर दान देते थे । अनेकों विधियों से रुद्राभिषेक करते थे । महादेवजी को हृदय में मनाकर उनसे माता-पिता, कुटुम्बी और भाइयों का कुशल-क्षेम माँगते थे ॥ ४ ॥

दोहा :

एहि बिधि सोचत भरत मन धावन पहुँचे आइ ।
गुर अनुसासन श्रवन सुनि चले गनेसु मनाई ॥ १५७ ॥

भरतजी इस प्रकार मन में चिंता कर रहे थे कि दूत आ पहुँचे । गुरुजी की आज्ञा कानों से सुनते ही वे गणेशजी को मनाकर चल पड़े । १५७ ॥

चौपाई :

चले समीर बेग हय हाँके । नाघत सरित सैल बन बाँके ॥
हृदयँ सोचु बड़ कछु न सोहाई । अस जानहिं जियँ जाउँ उड़ाई ॥ १ ॥

हवा के समान वेग वाले घोड़ों को हाँकते हुए वे विकट नदी, पहाड़ तथा जंगलों को लाँघते हुए चले । उनके हृदय में बड़ा सोच था, कुछ सुहाता न था । मन में ऐसा सोचते थे कि उड़कर पहुँच जाऊँ ॥ १ ॥

एक निमेष बरष सम जाई । एहि बिधि भरत नगर निअराई ॥
असगुन होहिं नगर पैठारा । रटहिं कुभाँति कुखेत करारा ॥ २ ॥

एक-एक निमेष वर्ष के समान बीत रहा था । इस प्रकार भरतजी नगर के निकट पहुँचे । नगर में प्रवेश करते समय अपशकुन होने लगे । कौए बुरी जगह बैठकर बुरी तरह से काँव-काँव कर रहे हैं ॥ २ ॥

खर सिआर बोलहिं प्रतिकूला । सुनि सुनि होइ भरत मन सूला ॥
श्रीहत सर सरिता बन बागा । नगरु बिसेषि भयावनु लागा ॥ ३ ॥

गदहे और सियार विपरीत बोल रहे हैं । यह सुन-सुनकर भरत के मन में बड़ी पीड़ा हो रही है । तालाब, नदी, वन, बगीचे सब शोभाहीन हो रहे हैं । नगर बहुत ही भयानक लग रहा है ॥ ३ ॥

खग मृग हय गय जाहिं न जोए । राम बियोग कुरोग बिगोए ॥
नगर नारि नर निपट दुखारी । मनहुँ सबन्हि सब संपति हारी ॥ ४ ॥

श्री रामजी के वियोग रूपी बुरे रोग से सताए हुए पक्षी-पशु, घोड़े-हाथी (ऐसे दुःखी हो रहे हैं कि) देखे नहीं जाते । नगर के स्त्री-पुरुष अत्यन्त दुःखी हो रहे हैं । मानो सब अपनी सारी सम्पत्ति हार बैठे हों ॥ ४ ॥

पुरजन मिलहिं न कहहिं कछु गवँहि जोहारहिं जाहिं ।
भरत कुसल पूँछि न सकहिं भय बिषाद मन माहिं ॥ १५८ ॥

नगर के लोग मिलते हैं, पर कुछ कहते नहीं, गौं से (चुपके से) जोहार (वंदना) करके चले जाते हैं । भरतजी भी किसी से कुशल नहीं पूछ सकते, क्योंकि उनके मन में भय और विषाद छा रहा है ॥ १५८ ॥