दोहा :

जरउ सो संपति सदन सुखु सुहृद मातु पितु भाइ ।
सनमुख होत जो राम पद करै न सहस सहाइ ॥ १८५ ॥

वह सम्पत्ति, घर, सुख, मित्र, माता, पिता, भाई जल जाए जो श्री रामजी के चरणों के सम्मुख होने में हँसते हुए (प्रसन्नतापूर्वक) सहायता न करे ॥ १८५ ॥

चौपाई :

घर घर साजहिं बाहन नाना । हरषु हृदयँ परभात पयाना ॥
भरत जाइ घर कीन्ह बिचारू । नगरु बाजि गज भवन भँडारू ॥ १ ॥

घर-घर लोग अनेकों प्रकार की सवारियाँ सजा रहे हैं । हृदय में (बड़ा) हर्ष है कि सबेरे चलना है । भरतजी ने घर जाकर विचार किया कि नगर घोड़े, हाथी, महल-खजाना आदि- ॥ १ ॥

संपति सब रघुपति कै आही । जौं बिनु जतन चलौं तजि ताही ॥
तौ परिनाम न मोरि भलाई । पाप सिरोमनि साइँ दोहाई ॥ २ ॥

सारी सम्पत्ति श्री रघुनाथजी की है । यदि उसकी (रक्षा की) व्यवस्था किए बिना उसे ऐसे ही छोड़कर चल दूँ, तो परिणाम में मेरी भलाई नहीं है, क्योंकि स्वामी का द्रोह सब पापों में शिरोमणि (श्रेष्ठ) है ॥ २ ॥

करइ स्वामि हित सेवकु सोई । दूषन कोटि देइ किन कोई ॥
अस बिचारि सुचि सेवक बोले । जे सपनेहुँ निज धरम न डोले ॥ ३ ॥

सेवक वही है, जो स्वामी का हित करे, चाहे कोई करोड़ों दोष क्यों न दे । भरतजी ने ऐसा विचारकर ऐसे विश्वासपात्र सेवकों को बुलाया, जो कभी स्वप्न में भी अपने धर्म से नहीं डिगे थे ॥ ३ ॥

कहि सबु मरमु धरमु भल भाषा । जो जेहि लायक सो तेहिं राखा ॥
करि सबु जतनु राखि रखवारे । राम मातु पहिं भरतु सिधारे ॥ ४ ॥

भरतजी ने उनको सब भेद समझाकर फिर उत्तम धर्म बतलाया और जो जिस योग्य था, उसे उसी काम पर नियुक्त कर दिया । सब व्यवस्था करके, रक्षकों को रखकर भरतजी राम माता कौसल्याजी के पास गए ॥ ४ ॥

दोहा :

आरत जननी जानि सब भरत सनेह सुजान ।
कहेउ बनावन पालकीं सजन सुखासन जान ॥ १८६ ॥

स्नेह के सुजान (प्रेम के तत्व को जानने वाले) भरतजी ने सब माताओं को आर्त (दुःखी) जानकर उनके लिए पालकियाँ तैयार करने तथा सुखासन यान (सुखपाल) सजाने के लिए कहा ॥ १८६ ॥

चौपाई :

चक्क चक्कि जिमि पुर नर नारी । चहत प्रात उर आरत भारी ॥
जागत सब निसि भयउ बिहाना । भरत बोलाए सचिव सुजाना ॥ १ ॥

नगर के नर-नारी चकवे-चकवी की भाँति हृदय में अत्यन्त आर्त होकर प्रातःकाल का होना चाहते हैं । सारी रात जागते-जागते सबेरा हो गया । तब भरतजी ने चतुर मंत्रियों को बुलवाया ॥ १ ॥

कहेउ लेहु सबु तिलक समाजू । बनहिं देब मुनि रामहि राजू ॥
बेगि चलहु सुनि सचिव जोहारे । तुरत तुरग रथ नाग सँवारे ॥ २ ॥

और कहा - तिलक का सब सामान ले चलो । वन में ही मुनि वशिष्ठजी श्री रामचन्द्रजी को राज्य देंगे, जल्दी चलो । यह सुनकर मंत्रियों ने वंदना की और तुरंत घोड़े, रथ और हाथी सजवा दिए ॥ २ ॥

अरुंधती अरु अगिनि समाऊ । रथ चढ़ि चले प्रथम मुनिराऊ ॥
बिप्र बृंद चढ़ि बाहन नाना । चले सकल तप तेज निधाना ॥ ३ ॥

सबसे पहले मुनिराज वशिष्ठजी अरुंधती और अग्निहोत्र की सब सामग्री सहित रथ पर सवार होकर चले । फिर ब्राह्मणों के समूह, जो सब के सब तपस्या और तेज के भंडार थे, अनेकों सवारियों पर चढ़कर चले ॥ ३ ॥

नगर लोग सब सजि सजि जाना । चित्रकूट कहँ कीन्ह पयाना ॥
सिबिका सुभग न जाहिं बखानी । चढ़ि चढ़ि चलत भईं सब रानी ॥ ४ ॥

नगर के सब लोग रथों को सजा-सजाकर चित्रकूट को चल पड़े । जिनका वर्णन नहीं हो सकता, ऐसी सुंदर पालकियों पर चढ़-चढ़कर सब रानियाँ चलीं ॥ ४ ॥

दोहा :

सौंपि नगर सुचि सेवकनि सादर सकल चलाइ ।
सुमिरि राम सिय चरन तब चले भरत दोउ भाइ ॥ १८७ ॥

विश्वासपात्र सेवकों को नगर सौंपकर और सबको आदरपूर्वक रवाना करके, तब श्री सीता-रामजी के चरणों को स्मरण करके भरत-शत्रुघ्न दोनों भाई चले ॥ १८७ ॥

चौपाई :

राम दरस बस सब नर नारी । जनु करि करिनि चले तकि बारी ॥
बन सिय रामु समुझि मन माहीं । सानुज भरत पयादेहिं जाहीं ॥ १ ॥

श्री रामचन्द्रजी के दर्शन के वश में हुए (दर्शन की अनन्य लालसा से) सब नर-नारी ऐसे चले मानो प्यासे हाथी-हथिनी जल को तककर (बड़ी तेजी से बावले से हुए) जा रहे हों । श्री सीताजी-रामजी (सब सुखों को छोड़कर) वन में हैं, मन में ऐसा विचार करके छोटे भाई शत्रुघ्नजी सहित भरतजी पैदल ही चले जा रहे हैं ॥ १ ॥

देखि सनेहु लोग अनुरागे । उतरि चले हय गय रथ त्यागे ॥
जाइ समीप राखि निज डोली । राम मातु मृदु बानी बोली ॥ २ ॥

उनका स्नेह देखकर लोग प्रेम में मग्न हो गए और सब घोड़े, हाथी, रथों को छोड़कर उनसे उतरकर पैदल चलने लगे । तब श्री रामचन्द्रजी की माता कौसल्याजी भरत के पास जाकर और अपनी पालकी उनके समीप खड़ी करके कोमल वाणी से बोलीं - ॥ २ ॥

तात चढ़हु रथ बलि महतारी । होइहि प्रिय परिवारु दुखारी ॥
तुम्हरें चलत चलिहि सबु लोगू । सकल सोक कृस नहिं मग जोगू ॥ ३ ॥

हे बेटा! माता बलैया लेती है, तुम रथ पर चढ़ जाओ । नहीं तो सारा परिवार दुःखी हो जाएगा । तुम्हारे पैदल चलने से सभी लोग पैदल चलेंगे । शोक के मारे सब दुबले हो रहे हैं, पैदल रास्ते के (पैदल चलने के) योग्य नहीं हैं ॥ ३ ॥

सिर धरि बचन चरन सिरु नाई । रथ चढ़ि चलत भए दोउ भाई ॥
तमसा प्रथम दिवस करि बासू । दूसर गोमति तीर निवासू ॥ ४ ॥

माता की आज्ञा को सिर चढ़ाकर और उनके चरणों में सिर नवाकर दोनों भाई रथ पर चढ़कर चलने लगे । पहले दिन तमसा पर वास (मुकाम) करके दूसरा मुकाम गोमती के तीर पर किया ॥ ४ ॥

दोहा :

पय अहार फल असन एक निसि भोजन एक लोग ।
करत राम हित नेम ब्रत परिहरि भूषन भोग ॥ १८८ ॥

कोई दूध ही पीते, कोई फलाहार करते और कुछ लोग रात को एक ही बार भोजन करते हैं । भूषण और भोग-विलास को छोड़कर सब लोग श्री रामचन्द्रजी के लिए नियम और व्रत करते हैं ॥ १८८ ॥