दोहा :

रघुबर बरन बिलोकि बर बारि समेत समाज ।
होत मगन बारिधि बिरह चढ़े बिबेक जहाज ॥ २२० ॥

श्री रघुनाथजी के (श्याम) रंग का सुंदर जल देखकर सारे समाज सहित भरतजी (प्रेम विह्वल होकर) श्री रामजी के विरह रूपी समुद्र में डूबते-डूबते विवेक रूपी जहाज पर चढ़ गए (अर्थात् यमुनाजी का श्यामवर्ण जल देखकर सब लोग श्यामवर्ण भगवान के प्रेम में विह्वल हो गए और उन्हें न पाकर विरह व्यथा से पीड़ित हो गए, तब भरतजी को यह ध्यान आया कि जल्दी चलकर उनके साक्षात् दर्शन करेंगे, इस विवेक से वे फिर उत्साहित हो गए) ॥ २२० ॥

चौपाई :

जमुन तीर तेहि दिन करि बासू । भयउ समय सम सबहि सुपासू ॥
रातिहिं घाट घाट की तरनी । आईं अगनित जाहिं न बरनी ॥ १ ॥

उस दिन यमुनाजी के किनारे निवास किया । समयानुसार सबके लिए (खान-पान आदि की) सुंदर व्यवस्था हुई (निषादराज का संकेत पाकर) रात ही रात में घाट-घाट की अगणित नावें वहाँ आ गईं, जिनका वर्णन नहीं किया जा सकता ॥ १ ॥

प्रात पार भए एकहि खेवाँ । तोषे रामसखा की सेवाँ ॥
चले नहाइ नदिहि सिर नाई । साथ निषादनाथ दोउ भाई ॥ २ ॥

सबेरे एक ही खेवे में सब लोग पार हो गए और श्री रामचंद्रजी के सखा निषादराज की इस सेवा से संतुष्ट हुए । फिर स्नान करके और नदी को सिर नवाकर निषादराज के साथ दोनों भाई चले ॥ २ ॥

आगें मुनिबर बाहन आछें । राजसमाज जाइ सबु पाछें ॥
तेहि पाछें दोउ बंधु पयादें । भूषन बसन बेष सुठि सादें ॥ ३ ॥

आगे अच्छी-अच्छी सवारियों पर श्रेष्ठ मुनि हैं, उनके पीछे सारा राजसमाज जा रहा है । उसके पीछे दोनों भाई बहुत सादे भूषण-वस्त्र और वेष से पैदल चल रहे हैं ॥ ३ ॥

सेवक सुहृद सचिवसुत साथा । सुमिरत लखनु सीय रघुनाथा ॥
जहँ जहँ राम बास बिश्रामा । तहँ तहँ करहिं सप्रेम प्रनामा ॥ ४ ॥

सेवक, मित्र और मंत्री के पुत्र उनके साथ हैं । लक्ष्मण, सीताजी और श्री रघुनाथजी का स्मरण करते जा रहे हैं । जहाँ-जहाँ श्री रामजी ने निवास और विश्राम किया था, वहाँ-वहाँ वे प्रेमसहित प्रणाम करते हैं ॥ ४ ॥

दोहा :

मगबासी नर नारि सुनि धाम काम तजि धाइ ।
देखि सरूप सनेह सब मुदित जनम फलु पाइ ॥ २२१ ॥

मार्ग में रहने वाले स्त्री-पुरुष यह सुनकर घर और काम-काज छोड़कर दौड़ पड़ते हैं और उनके रूप (सौंदर्य) और प्रेम को देखकर वे सब जन्म लेने का फल पाकर आनंदित होते हैं ॥ २२१ ॥

चौपाई :

कहहिं सप्रेम एक एक पाहीं । रामु लखनु सखि होहिं कि नाहीं ॥
बय बपु बरन रूपु सोइ आली । सीलु सनेहु सरिस सम चाली ॥ १ ॥

गाँवों की स्त्रियाँ एक-दूसरे से प्रेमपूर्वक कहती हैं - सखी! ये राम-लक्ष्मण हैं कि नहीं? हे सखी! इनकी अवस्था, शरीर और रंग-रूप तो वही है । शील, स्नेह उन्हीं के सदृश है और चाल भी उन्हीं के समान है ॥ १ ॥

बेषु न सो सखि सीय न संगा । आगें अनी चली चतुरंगा ॥
नहिं प्रसन्न मुख मानस खेदा । सखि संदेहु होइ एहिं भेदा ॥ २ ॥

परन्तु सखी! इनका न तो वह वेष (वल्कल वस्त्रधारी मुनिवेष) है, न सीताजी ही संग हैं और इनके आगे चतुरंगिणी सेना चली जा रही है । फिर इनके मुख प्रसन्न नहीं हैं, इनके मन में खेद है । हे सखी! इसी भेद के कारण संदेह होता है ॥ २ ॥

तासु तरक तियगन मन मानी । कहहिं सकल तेहि सम न सयानी ॥
तेहि सराहि बानी फुरि पूजी । बोली मधुर बचन तिय दूजी ॥ ३ ॥

उसका तर्क (युक्ति) अन्य स्त्रियों के मन भाया । सब कहती हैं कि इसके समान सयानी (चतुर) कोई नहीं है । उसकी सराहना करके और ‘तेरी वाणी सत्य है’ इस प्रकार उसका सम्मान करके दूसरी स्त्री मीठे वचन बोली ॥ ३ ॥

कहि सप्रेम बस कथाप्रसंगू । जेहि बिधि राम राज रस भंगू ॥
भरतहि बहुरि सराहन लागी । सील सनेह सुभाय सुभागी ॥ ४ ॥

श्री रामजी के राजतिलक का आनंद जिस प्रकार से भंग हुआ था, वह सब कथाप्रसंग प्रेमपूर्वक कहकर फिर वह भाग्यवती स्त्री श्री भरतजी के शील, स्नेह और स्वभाव की सराहना करने लगी ॥ ४ ॥

दोहा :

चलत पयादें खात फल पिता दीन्ह तजि राजु ।
जात मनावन रघुबरहि भरत सरिस को आजु ॥ २२२ ॥

(वह बोली-) देखो, ये भरतजी पिता के दिए हुए राज्य को त्यागकर पैदल चलते और फलाहार करते हुए श्री रामजी को मनाने के लिए जा रहे हैं । इनके समान आज कौन है? ॥ २२२ ॥ ।

चौपाई :

भायप भगति भरत आचरनू । कहत सुनत दुख दूषन हरनू ॥
जो किछु कहब थोर सखि सोई । राम बंधु अस काहे न होई ॥ १ ॥

भरतजी का भाईपना, भक्ति और इनके आचरण कहने और सुनने से दुःख और दोषों के हरने वाले हैं । हे सखी! उनके संबंध में जो कुछ भी कहा जाए, वह थोड़ा है । श्री रामचंद्रजी के भाई ऐसे क्यों न हों ॥ १ ॥

हम सब सानुज भरतहि देखें । भइन्ह धन्य जुबती जन लेखें ॥
सुनि गुन देखि दसा पछिताहीं । कैकइ जननि जोगु सुतु नाहीं ॥ २ ॥

छोटे भाई शत्रुघ्न सहित भरतजी को देखकर हम सब भी आज धन्य (बड़भागिनी) स्त्रियों की गिनती में आ गईं । इस प्रकार भरतजी के गुण सुनकर और उनकी दशा देखकर स्त्रियाँ पछताती हैं और कहती हैं - यह पुत्र कैकयी जैसी माता के योग्य नहीं है ॥ २ ॥

कोउ कह दूषनु रानिहि नाहिन । बिधि सबु कीन्ह हमहि जो दाहिन ॥
कहँ हम लोक बेद बिधि हीनी । लघु तिय कुल करतूति मलीनी ॥ ३ ॥

कोई कहती है - इसमें रानी का भी दोष नहीं है । यह सब विधाता ने ही किया है, जो हमारे अनुकूल है । कहाँ तो हम लोक और वेद दोनों की विधि (मर्यादा) से हीन, कुल और करतूत दोनों से मलिन तुच्छ स्त्रियाँ, ॥ ३ ॥

बसहिं कुदेस कुगाँव कुबामा । कहँ यह दरसु पुन्य परिनामा ॥
अस अनंदु अचिरिजु प्रति ग्रामा । जनु मरुभूमि कलपतरु जामा ॥ ४ ॥

जो बुरे देश (जंगली प्रान्त) और बुरे गाँव में बसती हैं और (स्त्रियों में भी) नीच स्त्रियाँ हैं! और कहाँ यह महान् पुण्यों का परिणामस्वरूप इनका दर्शन! ऐसा ही आनंद और आश्चर्य गाँव-गाँव में हो रहा है । मानो मरुभूमि में कल्पवृक्ष उग गया हो ॥ ४ ॥

दोहा :

भरत दरसु देखत खुलेउ मग लोगन्ह कर भागु ।
जनु सिंघलबासिन्ह भयउ बिधि बस सुलभ प्रयागु ॥ २२३ ॥

भरतजी का स्वरूप देखते ही रास्ते में रहने वाले लोगों के भाग्य खुल गए! मानो दैवयोग से सिंहलद्वीप के बसने वालों को तीर्थराज प्रयाग सुलभ हो गया हो! ॥ २२३ ॥

चौपाई :

निज गुन सहित राम गुन गाथा । सुनत जाहिं सुमिरत रघुनाथा ॥
तीरथ मुनि आश्रम सुरधामा । निरखि निमज्जहिं करहिं प्रनामा ॥ १ ॥

(इस प्रकार) अपने गुणों सहित श्री रामचंद्रजी के गुणों की कथा सुनते और श्री रघुनाथजी को स्मरण करते हुए भरतजी चले जा रहे हैं । वे तीर्थ देखकर स्नान और मुनियों के आश्रम तथा देवताओं के मंदिर देखकर प्रणाम करते हैं ॥ १ ॥

मनहीं मन मागहिं बरु एहू । सीय राम पद पदुम सनेहू ॥
मिलहिं किरात कोल बनबासी । बैखानस बटु जती उदासी ॥ २ ॥

और मन ही मन यह वरदान माँगते हैं कि श्री सीता-रामजी के चरण कमलों में प्रेम हो । मार्ग में भील, कोल आदि वनवासी तथा वानप्रस्थ, ब्रह्मचारी, संन्यासी और विरक्त मिलते हैं ॥ २ ॥

करि प्रनामु पूँछहिं जेहि तेही । केहि बन लखनु रामु बैदेही ॥
ते प्रभु समाचार सब कहहीं । भरतहि देखि जनम फलु लहहीं ॥ ३ ॥

उनमें से जिस-तिस से प्रणाम करके पूछते हैं कि लक्ष्मणजी, श्री रामजी और जानकीजी किस वन में हैं? वे प्रभु के सब समाचार कहते हैं और भरतजी को देखकर जन्म का फल पाते हैं ॥ ३ ॥

जे जन कहहिं कुसल हम देखे । ते प्रिय राम लखन सम लेखे ॥
एहि बिधि बूझत सबहि सुबानी । सुनत राम बनबास कहानी ॥ ४ ॥

जो लोग कहते हैं कि हमने उनको कुशलपूर्वक देखा है, उनको ये श्री राम-लक्ष्मण के समान ही प्यारे मानते हैं । इस प्रकार सबसे सुंदर वाणी से पूछते और श्री रामजी के वनवास की कहानी सुनते जाते हैं ॥ ४ ॥

दोहा :

तेहि बासर बसि प्रातहीं चले सुमिरि रघुनाथ ।
राम दरस की लालसा भरत सरिस सब साथ ॥ २२४ ॥

उस दिन वहीं ठहरकर दूसरे दिन प्रातःकाल ही श्री रघुनाथजी का स्मरण करके चले । साथ के सब लोगों को भी भरतजी के समान ही श्री रामजी के दर्शन की लालसा (लगी हुई) है ॥ २२४ ॥

चौपाई :

मंगल सगुन होहिं सब काहू । फरकहिं सुखद बिलोचन बाहू ॥
भरतहि सहित समाज उछाहू । मिलिहहिं रामु मिटिहि दुख दाहू ॥ १ ॥

सबको मंगलसूचक शकुन हो रहे हैं । सुख देने वाले (पुरुषों के दाहिने और स्त्रियों के बाएँ) नेत्र और भुजाएँ फड़क रही हैं । समाज सहित भरतजी को उत्साह हो रहा है कि श्री रामचंद्रजी मिलेंगे और दुःख का दाह मिट जाएगा ॥ १ ॥

करत मनोरथ जस जियँ जाके । जाहिं सनेह सुराँ सब छाके ।
सिथिल अंग पग मग डगि डोलहिं । बिहबल बचन प्रेम बस बोलहिं ॥ २ ॥

जिसके जी में जैसा है, वह वैसा ही मनोरथ करता है । सब स्नेही रूपी मदिरा से छके (प्रेम में मतवाले हुए) चले जा रहे हैं । अंग शिथिल हैं, रास्ते में पैर डगमगा रहे हैं और प्रेमवश विह्वल वचन बोल रहे हैं ॥ २ ॥

रामसखाँ तेहि समय देखावा । सैल सिरोमनि सहज सुहावा ॥
जासु समीप सरित पय तीरा । सीय समेत बसहिं दोउ बीरा ॥ ३ ॥

रामसखा निषादराज ने उसी समय स्वाभाविक ही सुहावना पर्वतशिरोमणि कामदगिरि दिखलाया, जिसके निकट ही पयस्विनी नदी के तट पर सीताजी समेत दोनों भाई निवास करते हैं ॥ ३ ॥

देखि करहिं सब दंड प्रनामा । कहि जय जानकि जीवन रामा ॥
प्रेम मगन अस राज समाजू । जनु फिरि अवध चले रघुराजू ॥ ४ ॥

सब लोग उस पर्वत को देखकर ‘जानकी जीवन श्री रामचंद्रजी की जय हो । ’ ऐसा कहकर दण्डवत प्रणाम करते हैं । राजसमाज प्रेम में ऐसा मग्न है मानो श्री रघुनाथजी अयोध्या को लौट चले हों ॥ ४ ॥

दोहा :

भरत प्रेमु तेहि समय जस तस कहि सकइ न सेषु ।
कबिहि अगम जिमि ब्रह्मसुखु अह मम मलिन जनेषु ॥ २२५ ॥

भरतजी का उस समय जैसा प्रेम था, वैसा शेषजी भी नहीं कह सकते । कवि के लिए तो वह वैसा ही अगम है, जैसा अहंता और ममता से मलिन मनुष्यों के लिए ब्रह्मानंद! ॥ २२५ ॥

चौपाई :

सकल सनेह सिथिल रघुबर कें । गए कोस दुइ दिनकर ढरकें ॥
जलु थलु देखि बसे निसि बीतें । कीन्ह गवन रघुनाथ पिरीतें ॥ १ ॥

सब लोग श्री रामचंद्रजी के प्रेम के मारे शिथिल होने के कारण सूर्यास्त होने तक (दिनभर में) दो ही कोस चल पाए और जल-स्थल का सुपास देखकर रात को वहीं (बिना खाए-पीए ही) रह गए । रात बीतने पर श्री रघुनाथजी के प्रेमी भरतजी ने आगे गमन किया ॥ १ ॥

उहाँ रामु रजनी अवसेषा । जागे सीयँ सपन अस देखा ॥
सहित समाज भरत जनु आए । नाथ बियोग ताप तन ताए ॥ २ ॥

उधर श्री रामचंद्रजी रात शेष रहते ही जागे । रात को सीताजी ने ऐसा स्वप्न देखा (जिसे वे श्री रामचंद्रजी को सुनाने लगीं) मानो समाज सहित भरतजी यहाँ आए हैं । प्रभु के वियोग की अग्नि से उनका शरीर संतप्त है ॥ २ ॥

सकल मलिन मन दीन दुखारी । देखीं सासु आन अनुहारी ॥
सुनि सिय सपन भरे जल लोचन । भए सोचबस सोच बिमोचन ॥ ३ ॥

सभी लोग मन में उदास, दीन और दुःखी हैं । सासुओं को दूसरी ही सूरत में देखा । सीताजी का स्वप्न सुनकर श्री रामचंद्रजी के नेत्रों में जल भर गया और सबको सोच से छुड़ा देने वाले प्रभु स्वयं (लीला से) सोच के वश हो गए ॥ ३ ॥

लखन सपन यह नीक न होई । कठिन कुचाह सुनाइहि कोई ॥
अस कहि बंधु समेत नहाने पूजि पुरारि साधु सनमाने ॥ ४ ॥

(और बोले - ) लक्ष्मण! यह स्वप्न अच्छा नहीं है । कोई भीषण कुसमाचार (बहुत ही बुरी खबर) सुनावेगा । ऐसा कहकर उन्होंने भाई सहित स्नान किया और त्रिपुरारी महादेवजी का पूजन करके साधुओं का सम्मान किया ॥ ४ ॥