छंद :

सनमानि सुर मुनि बंदि बैठे उतर दिसि देखत भए ।
नभ धूरि खग मृग भूरि भागे बिकल प्रभु आश्रम गए ॥
तुलसी उठे अवलोकि कारनु काह चित सचकित रहे ।
सब समाचार किरात कोलन्हि आइ तेहि अवसर कहे ॥

देवताओं का सम्मान (पूजन) और मुनियों की वंदना करके श्री रामचंद्रजी बैठ गए और उत्तर दिशा की ओर देखने लगे । आकाश में धूल छा रही है, बहुत से पक्षी और पशु व्याकुल होकर भागे हुए प्रभु के आश्रम को आ रहे हैं । तुलसीदासजी कहते हैं कि प्रभु श्री रामचंद्रजी यह देखकर उठे और सोचने लगे कि क्या कारण है? वे चित्त में आश्चर्ययुक्त हो गए । उसी समय कोल-भीलों ने आकर सब समाचार कहे ।

सोरठा :

सुनत सुमंगल बैन मन प्रमोद तन पुलक भर ।
सरद सरोरुह नैन तुलसी भरे सनेह जल ॥ २२६ ॥

तुलसीदासजी कहते हैं कि सुंदर मंगल वचन सुनते ही श्री रामचंद्रजी के मन में बड़ा आनंद हुआ । शरीर में पुलकावली छा गई और शरद् ऋतु के कमल के समान नेत्र प्रेमाश्रुओं से भर गए ॥ २२६ ॥

चौपाई :

बहुरि सोचबस भे सियरवनू । कारन कवन भरत आगवनू ॥
एक आइ अस कहा बहोरी । सेन संग चतुरंग न थोरी ॥ १ ॥

सीतापति श्री रामचंद्रजी पुनः सोच के वश हो गए कि भरत के आने का क्या कारण है? फिर एक ने आकर ऐसा कहा कि उनके साथ में बड़ी भारी चतुरंगिणी सेना भी है ॥ १ ॥

सो सुनि रामहि भा अति सोचू । इत पितु बच इत बंधु सकोचू ॥
भरत सुभाउ समुझि मन माहीं । प्रभु चित हित थिति पावत नाहीं ॥ २ ॥

यह सुनकर श्री रामचंद्रजी को अत्यंत सोच हुआ । इधर तो पिता के वचन और उधर भाई भरतजी का संकोच! भरतजी के स्वभाव को मन में समझकर तो प्रभु श्री रामचंद्रजी चित्त को ठहराने के लिए कोई स्थान ही नहीं पाते हैं ॥ २ ॥

समाधान तब भा यह जाने । भरतु कहे महुँ साधु सयाने ॥
लखन लखेउ प्रभु हृदयँ खभारू । कहत समय सम नीति बिचारू ॥ ३ ॥

तब यह जानकर समाधान हो गया कि भरत साधु और सयाने हैं तथा मेरे कहने में (आज्ञाकारी) हैं । लक्ष्मणजी ने देखा कि प्रभु श्री रामजी के हृदय में चिंता है तो वे समय के अनुसार अपना नीतियुक्त विचार कहने लगे- ॥ ३ ॥

बिनु पूछें कछु कहउँ गोसाईं । सेवकु समयँ न ढीठ ढिठाईं ॥
तुम्ह सर्बग्य सिरोमनि स्वामी । आपनि समुझि कहउँ अनुगामी ॥ ४ ॥

हे स्वामी! आपके बिना ही पूछे मैं कुछ कहता हूँ, सेवक समय पर ढिठाई करने से ढीठ नहीं समझा जाता (अर्थात् आप पूछें तब मैं कहूँ, ऐसा अवसर नहीं है, इसलिए यह मेरा कहना ढिठाई नहीं होगा) । हे स्वामी! आप सर्वज्ञों में शिरोमणि हैं (सब जानते ही हैं) । मैं सेवक तो अपनी समझ की बात कहता हूँ ॥ ४ ॥

दोहा :

नाथ सुहृद सुठि सरल चित सील सनेह निधान ।
सब पर प्रीति प्रतीति जियँ जानिअ आपु समान ॥ २२७ ॥

हे नाथ! आप परम सुहृद् (बिना ही कारण परम हित करने वाले), सरल हृदय तथा शील और स्नेह के भंडार हैं, आपका सभी पर प्रेम और विश्वास है, और अपने हृदय में सबको अपने ही समान जानते हैं ॥ २२७ ॥

चौपाई :

बिषई जीव पाइ प्रभुताई । मूढ़ मोह बस होहिं जनाई ॥
भरतु नीति रत साधु सुजाना । प्रभु पद प्रेमु सकल जगु जाना ॥ १ ॥

परंतु मूढ़ विषयी जीव प्रभुता पाकर मोहवश अपने असली स्वरूप को प्रकट कर देते हैं । भरत नीतिपरायण, साधु और चतुर हैं तथा प्रभु (आप) के चरणों में उनका प्रेम है, इस बात को सारा जगत् जानता है ॥ १ ॥

तेऊ आजु राम पदु पाई । चले धरम मरजाद मेटाई ॥
कुटिल कुबंधु कुअवसरु ताकी । जानि राम बनबास एकाकी ॥ २ ॥

वे भरतजी आज श्री रामजी (आप) का पद (सिंहासन या अधिकार) पाकर धर्म की मर्यादा को मिटाकर चले हैं । कुटिल खोटे भाई भरत कुसमय देखकर और यह जानकर कि रामजी (आप) वनवास में अकेले (असहाय) हैं, ॥ २ ॥

करि कुमंत्रु मन साजि समाजू । आए करै अकंटक राजू ॥
कोटि प्रकार कलपि कुटिलाई । आए दल बटोरि दोउ भाई ॥ ३ ॥

अपने मन में बुरा विचार करके, समाज जोड़कर राज्यों को निष्कण्टक करने के लिए यहाँ आए हैं । करोड़ों (अनेकों) प्रकार की कुटिलताएँ रचकर सेना बटोरकर दोनों भाई आए हैं ॥ ३ ॥

जौं जियँ होति न कपट कुचाली । केहि सोहाति रथ बाजि गजाली ॥
भरतहि दोसु देइ को जाएँ । जग बौराइ राज पदु पाएँ ॥ ४ ॥

यदि इनके हृदय में कपट और कुचाल न होती, तो रथ, घोड़े और हाथियों की कतार (ऐसे समय) किसे सुहाती? परन्तु भरत को ही व्यर्थ कौन दोष दे? राजपद पा जाने पर सारा जगत् ही पागल (मतवाला) हो जाता है ॥ ४ ॥

दोहा :

ससि गुर तिय गामी नघुषु चढ़ेउ भूमिसुर जान ।
लोक बेद तें बिमुख भा अधम न बेन समान ॥ २२८ ॥

चंद्रमा गुरुपत्नी गामी हुआ, राजा नहुष ब्राह्मणों की पालकी पर चढ़ा और राजा वेन के समान नीच तो कोई नहीं होगा, जो लोक और वेद दोनों से विमुख हो गया ॥ २२८ ॥

चौपाई :

सहसबाहु सुरनाथु त्रिसंकू । केहि न राजमद दीन्ह कलंकू ॥
भरत कीन्ह यह उचित उपाऊ । रिपु रिन रंच न राखब काउ ॥ १ ॥

सहस्रबाहु, देवराज इंद्र और त्रिशंकु आदि किसको राजमद ने कलंक नहीं दिया? भरत ने यह उपाय उचित ही किया है, क्योंकि शत्रु और ऋण को कभी जरा भी शेष नहीं रखना चाहिए ॥ १ ॥

एक कीन्हि नहिं भरत भलाई । निदरे रामु जानि असहाई ॥
समुझि परिहि सोउ आजु बिसेषी । समर सरोष राम मुखु पेखी ॥ २ ॥

हाँ, भरत ने एक बात अच्छी नहीं की, जो रामजी (आप) को असहाय जानकर उनका निरादर किया! पर आज संग्राम में श्री रामजी (आप) का क्रोधपूर्ण मुख देखकर यह बात भी उनकी समझ में विशेष रूप से आ जाएगी (अर्थात् इस निरादर का फल भी वे अच्छी तरह पा जाएँगे) ॥ २ ॥

एतना कहत नीति रस भूला । रन रस बिटपु पुलक मिस फूला ॥
प्रभु पद बंदि सीस रज राखी । बोले सत्य सहज बलु भाषी ॥ ३ ॥

इतना कहते ही लक्ष्मणजी नीतिरस भूल गए और युद्धरस रूपी वृक्ष पुलकावली के बहाने से फूल उठा (अर्थात् नीति की बात कहते-कहते उनके शरीर में वीर रस छा गया) । वे प्रभु श्री रामचंद्रजी के चरणों की वंदना करके, चरण रज को सिर पर रखकर सच्चा और स्वाभाविक बल कहते हुए बोले ॥ ३ ॥

अनुचित नाथ न मानब मोरा । भरत हमहि उपचार न थोरा ॥
कहँ लगि सहिअ रहिअ मनु मारें । नाथ साथ धनु हाथ हमारें ॥ ४ ॥

हे नाथ! मेरा कहना अनुचित न मानिएगा । भरत ने हमें कम नहीं प्रचारा है (हमारे साथ कम छेड़छाड़ नहीं की है) । आखिर कहाँ तक सहा जाए और मन मारे रहा जाए, जब स्वामी हमारे साथ हैं और धनुष हमारे हाथ में है! ॥ ४ ॥

दोहा :

छत्रि जाति रघुकुल जनमु राम अनुग जगु जान ।
लातहुँ मारें चढ़ति सिर नीच को धूरि समान ॥ २२९ ॥

क्षत्रिय जाति, रघुकुल में जन्म और फिर मैं श्री रामजी (आप) का अनुगामी (सेवक) हूँ, यह जगत् जानता है । (फिर भला कैसे सहा जाए?) धूल के समान नीच कौन है, परन्तु वह भी लात मारने पर सिर ही चढ़ती है ॥ २२९ ॥

चौपाई :

उठि कर जोरि रजायसु मागा । मनहुँ बीर रस सोवत जागा ॥
बाँधि जटा सिर कसि कटि भाथा । साजि सरासनु सायकु हाथा ॥ १ ॥

यों कहकर लक्ष्मणजी ने उठकर, हाथ जोड़कर आज्ञा माँगी । मानो वीर रस सोते से जाग उठा हो । सिर पर जटा बाँधकर कमर में तरकस कस लिया और धनुष को सजाकर तथा बाण को हाथ में लेकर कहा - ॥ १ ॥

आजु राम सेवक जसु लेऊँ । भरतहि समर सिखावन देऊँ ॥
राम निरादर कर फलु पाई । सोवहुँ समर सेज दोउ भाई ॥ २ ॥

आज मैं श्री राम (आप) का सेवक होने का यश लूँ और भरत को संग्राम में शिक्षा दूँ । श्री रामचंद्रजी (आप) के निरादर का फल पाकर दोनों भाई (भरत-शत्रुघ्न) रण शय्या पर सोवें ॥ २ ॥

आइ बना भल सकल समाजू । प्रगट करउँ रिस पाछिल आजू ॥
जिमि करि निकर दलइ मृगराजू । लेइ लपेटि लवा जिमि बाजू ॥ ३ ॥

अच्छा हुआ जो सारा समाज आकर एकत्र हो गया । आज मैं पिछला सब क्रोध प्रकट करूँगा । जैसे सिंह हाथियों के झुंड को कुचल डालता है और बाज जैसे लवे को लपेट में ले लेता है ॥ ३ ॥

तैसेहिं भरतहि सेन समेता । सानुज निदरि निपातउँ खेता ॥
जौं सहाय कर संकरु आई । तौ मारउँ रन राम दोहाई ॥ ४ ॥

वैसे ही भरत को सेना समेत और छोटे भाई सहित तिरस्कार करके मैदान में पछाड़ूँगा । यदि शंकरजी भी आकर उनकी सहायता करें, तो भी, मुझे रामजी की सौगंध है, मैं उन्हें युद्ध में (अवश्य) मार डालूँगा (छोड़ूँगा नहीं) ॥ ४ ॥

दोहा :

अति सरोष माखे लखनु लखि सुनि सपथ प्रवान ।
सभय लोक सब लोकपति चाहत भभरि भगान ॥ २३० ॥

लक्ष्मणजी को अत्यंत क्रोध से तमतमाया हुआ देखकर और उनकी प्रामाणिक (सत्य) सौगंध सुनकर सब लोग भयभीत हो जाते हैं और लोकपाल घबड़ाकर भागना चाहते हैं ॥ २३० ।

चौपाई :

जगु भय मगन गगन भइ बानी । लखन बाहुबलु बिपुल बखानी ॥
तात प्रताप प्रभाउ तुम्हारा । को कहि सकइ को जाननिहारा ॥ १ ॥

सारा जगत् भय में डूब गया । तब लक्ष्मणजी के अपार बाहुबल की प्रशंसा करती हुई आकाशवाणी हुई- हे तात! तुम्हारे प्रताप और प्रभाव को कौन कह सकता है और कौन जान सकता है? ॥ १ ॥

अनुचित उचित काजु किछु होऊ । समुझि करिअ भल कह सबु कोऊ ।
सहसा करि पाछे पछिताहीं । कहहिं बेद बुध ते बुध नाहीं ॥ २ ॥

परन्तु कोई भी काम हो, उसे अनुचित-उचित खूब समझ-बूझकर किया जाए तो सब कोई अच्छा कहते हैं । वेद और विद्वान कहते हैं कि जो बिना विचारे जल्दी में किसी काम को करके पीछे पछताते हैं, वे बुद्धिमान् नहीं हैं ॥ २ ॥

सुनि सुर बचन लखन सकुचाने । राम सीयँ सादर सनमाने ॥
कही तात तुम्ह नीति सुहाई । सब तें कठिन राजमदु भाई ॥ ३ ॥

देववाणी सुनकर लक्ष्मणजी सकुचा गए । श्री रामचंद्रजी और सीताजी ने उनका आदर के साथ सम्मान किया (और कहा - ) हे तात! तुमने बड़ी सुंदर नीति कही । हे भाई! राज्य का मद सबसे कठिन मद है ॥ ३ ॥

जो अचवँत नृप मातहिं तेई । नाहिन साधुसभा जेहिं सेई ॥
सुनहू लखन भल भरत सरीसा । बिधि प्रपंच महँ सुना न दीसा ॥ ४ ॥

जिन्होंने साधुओं की सभा का सेवन (सत्संग) नहीं किया, वे ही राजा राजमद रूपी मदिरा का आचमन करते ही (पीते ही) मतवाले हो जाते हैं । हे लक्ष्मण! सुनो, भरत सरीखा उत्तम पुरुष ब्रह्मा की सृष्टि में न तो कहीं सुना गया है, न देखा ही गया है ॥ ४ ॥