दोहा :

बड़ कुघातु करि पातकिनि कहेसि कोपगृहँ जाहु ।
काजु सँवारेहु सजग सबु सहसा जनि पतिआहु ॥ २२ ॥ ॥

पापिनी मन्थरा ने बड़ी बुरी घात लगाकर कहा - कोपभवन में जाओ । सब काम बड़ी सावधानी से बनाना, राजा पर सहसा विश्वास न कर लेना (उनकी बातों में न आ जाना) ॥ २२ ॥

चौपाई :

कुबरिहि रानि प्रानप्रिय जानी । बार बार बुद्धि बखानी ॥
तोहि सम हित न मोर संसारा । बहे जात कई भइसि अधारा ॥ १ ॥

कुबरी को रानी ने प्राणों के समान प्रिय समझकर बार-बार उसकी बड़ी बुद्धि का बखान किया और बोली- संसार में मेरा तेरे समान हितकारी और कोई नहीं है । तू मुझे बही जाती हुई के लिए सहारा हुई है ॥ १ ॥

जौं बिधि पुरब मनोरथु काली । करौं तोहि चख पूतरि आली ॥
बहुबिधि चेरिहि आदरु देई । कोपभवन गवनी कैकेई ॥ २ ॥

यदि विधाता कल मेरा मनोरथ पूरा कर दें तो हे सखी! मैं तुझे आँखों की पुतली बना लूँ । इस प्रकार दासी को बहुत तरह से आदर देकर कैकेयी कोपभवन में चली गई ॥ । २ ॥

बिपति बीजु बरषा रितु चेरी । भुइँ भइ कुमति कैकई केरी ॥
पाइ कपट जलु अंकुर जामा । बर दोउ दल दुख फल परिनामा ॥ ३ ॥

विपत्ति (कलह) बीज है, दासी वर्षा ऋतु है, कैकेयी की कुबुद्धि (उस बीज के बोने के लिए) जमीन हो गई । उसमें कपट रूपी जल पाकर अंकुर फूट निकला । दोनों वरदान उस अंकुर के दो पत्ते हैं और अंत में इसके दुःख रूपी फल होगा ॥ ३ ॥

कोप समाजु साजि सबु सोई । राजु करत निज कुमति बिगोई ॥
राउर नगर कोलाहलु होई । यह कुचालि कछु जान न कोई ॥ ४ ॥

कैकेयी कोप का सब साज सजकर (कोपभवन में) जा सोई । राज्य करती हुई वह अपनी दुष्ट बुद्धि से नष्ट हो गई । राजमहल और नगर में धूम-धाम मच रही है । इस कुचाल को कोई कुछ नहीं जानता ॥ ४ ॥

दोहा :

प्रमुदित पुर नर नारि सब सजहिं सुमंगलचार ।
एक प्रबिसहिं एक निर्गमहिं भीर भूप दरबार ॥ २३ ।

बड़े ही आनन्दित होकर नगर के सब स्त्री-पुरुष शुभ मंगलाचार के साथ सज रहे हैं । कोई भीतर जाता है, कोई बाहर निकलता है, राजद्वार में बड़ी भीड़ हो रही है ॥ २३ ॥

चौपाई :

बाल सखा सुनि हियँ हरषाहीं । मिलि दस पाँच राम पहिं जाहीं ॥
प्रभु आदरहिं प्रेमु पहिचानी । पूँछहिं कुसल खेम मृदु बानी ॥ १ ॥

श्री रामचन्द्रजी के बाल सखा राजतिलक का समाचार सुनकर हृदय में हर्षित होते हैं । वे दस-पाँच मिलकर श्री रामचन्द्रजी के पास जाते हैं । प्रेम पहचानकर प्रभु श्री रामचन्द्रजी उनका आदर करते हैं और कोमल वाणी से कुशल क्षेम पूछते हैं ॥ १ ॥

फिरहिं भवन प्रिय आयसु पाई । करत परसपर राम बड़ाई ॥
को रघुबीर सरिस संसारा । सीलु सनेहु निबाहनिहारा ॥ २ ॥

अपने प्रिय सखा श्री रामचन्द्रजी की आज्ञा पाकर वे आपस में एक-दूसरे से श्री रामचन्द्रजी की बड़ाई करते हुए घर लौटते हैं और कहते हैं - संसार में श्री रघुनाथजी के समान शील और स्नेह को निबाहने वाला कौन है? ॥ २ ॥

जेहिं-जेहिं जोनि करम बस भ्रमहीं । तहँ तहँ ईसु देउ यह हमहीं ॥
सेवक हम स्वामी सियनाहू । होउ नात यह ओर निबाहू ॥ ३ ॥

भगवान हमें यही दें कि हम अपने कर्मवश भ्रमते हुए जिस-जिस योनि में जन्में, वहाँ-वहाँ (उस-उस योनि में) हम तो सेवक हों और सीतापति श्री रामचन्द्रजी हमारे स्वामी हों और यह नाता अन्त तक निभ जाए ॥

अस अभिलाषु नगर सब काहू । कैकयसुता हृदयँ अति दाहू ॥
को न कुसंगति पाइ नसाई । रहइ न नीच मतें चतुराई ॥ ४ ॥

नगर में सबकी ऐसी ही अभिलाषा है, परन्तु कैकेयी के हृदय में बड़ी जलन हो रही है । कुसंगति पाकर कौन नष्ट नहीं होता । नीच के मत के अनुसार चलने से चतुराई नहीं रह जाती ॥ ४ ॥

दोहा :

साँझ समय सानंद नृपु गयउ कैकई गेहँ ।
गवनु निठुरता निकट किय जनु धरि देह सनेहँ ॥ २४ ॥

संध्या के समय राजा दशरथ आनंद के साथ कैकेयी के महल में गए । मानो साक्षात स्नेह ही शरीर धारण कर निष्ठुरता के पास गया हो! ॥ २४ ॥

चौपाई :

कोपभवन सुनि सकुचेउ राऊ । भय बस अगहुड़ परइ न पाऊ ॥
सुरपति बसइ बाहँबल जाकें । नरपति सकल रहहिं रुख ताकें ॥ १ ॥

कोप भवन का नाम सुनकर राजा सहम गए । डर के मारे उनका पाँव आगे को नहीं पड़ता । स्वयं देवराज इन्द्र जिनकी भुजाओं के बल पर (राक्षसों से निर्भय होकर) बसता है और सम्पूर्ण राजा लोग जिनका रुख देखते रहते हैं ॥ १ ॥

सो सुनि तिय रिस गयउ सुखाई । देखहु काम प्रताप बड़ाई ॥
सूल कुलिस असि अँगवनिहारे । ते रतिनाथ सुमन सर मारे ॥ २ ॥

वही राजा दशरथ स्त्री का क्रोध सुनकर सूख गए । कामदेव का प्रताप और महिमा तो देखिए । जो त्रिशूल, वज्र और तलवार आदि की चोट अपने अंगों पर सहने वाले हैं, वे रतिनाथ कामदेव के पुष्पबाण से मारे गए ॥ २ ॥

सभय नरेसु प्रिया पहिं गयऊ । देखि दसा दुखु दारुन भयऊ ॥
भूमि सयन पटु मोट पुराना । दिए डारि तन भूषन नाना ॥ ३ ॥

राजा डरते-डरते अपनी प्यारी कैकेयी के पास गए । उसकी दशा देखकर उन्हें बड़ा ही दुःख हुआ । कैकेयी जमीन पर पड़ी है । पुराना मोटा कपड़ा पहने हुए है । शरीर के नाना आभूषणों को उतारकर फेंक दिया है ।

कुमतिहि कसि कुबेषता फाबी । अनअहिवातु सूच जनु भाबी ॥
जाइ निकट नृपु कह मृदु बानी । प्रानप्रिया केहि हेतु रिसानी ॥ ४ ॥

उस दुर्बुद्धि कैकेयी को यह कुवेषता (बुरा वेष) कैसी फब रही है, मानो भावी विधवापन की सूचना दे रही हो । राजा उसके पास जाकर कोमल वाणी से बोले - हे प्राणप्रिये! किसलिए रिसाई (रूठी) हो? ॥ ४ ॥