दोहा :

प्रेम मगन तेहि समय सब सुनि आवत मिथिलेसु ।
सहित सभा संभ्रम उठेउ रबिकुल कमल दिनेसु ॥ २७४ ॥

उस समय सब लोग प्रेम में मग्न हैं । इतने में ही मिथिलापति जनकजी को आते हुए सुनकर सूर्यकुल रूपी कमल के सूर्य श्री रामचन्द्रजी सभा सहित आदरपूर्वक जल्दी से उठ खड़े हुए ॥ २७४ ॥

चौपाई :

भाइ सचिव गुर पुरजन साथा । आगें गवनु कीन्ह रघुनाथा ॥
गिरिबरु दीख जनकपति जबहीं । करि प्रनामु रथ त्यागेउ तबहीं ॥ १ ॥

भाई, मंत्री, गुरु और पुरवासियों को साथ लेकर श्री रघुनाथजी आगे (जनकजी की अगवानी में) चले । जनकजी ने ज्यों ही पर्वत श्रेष्ठ कामदनाथ को देखा, त्यों ही प्रणाम करके उन्होंने रथ छोड़ दिया । (पैदल चलना शुरू कर दिया) ॥ १ ॥

राम दरस लालसा उछाहू । पथ श्रम लेसु कलेसु न काहू ॥
मन तहँ जहँ रघुबर बैदेही । बिनु मन तन दुख सुख सुधि केही ॥ २ ॥

श्री रामजी के दर्शन की लालसा और उत्साह के कारण किसी को रास्ते की थकावट और क्लेश जरा भी नहीं है । मन तो वहाँ है जहाँ श्री राम और जानकीजी हैं । बिना मन के शरीर के सुख-दुःख की सुध किसको हो? ॥ २ ॥

आवत जनकु चले एहि भाँती । सहित समाज प्रेम मति माती ॥
आए निकट देखि अनुरागे । सादर मिलन परसपर लागे ॥ ३ ॥

जनकजी इस प्रकार चले आ रहे हैं । समाज सहित उनकी बुद्धि प्रेम में मतवाली हो रही है । निकट आए देखकर सब प्रेम में भर गए और आदरपूर्वक आपस में मिलने लगे ॥ ३ ॥

लगे जनक मुनिजन पद बंदन । रिषिन्ह प्रनामु कीन्ह रघुनंदन ॥
भाइन्ह सहित रामु मिलि राजहि । चले लवाइ समेत समाजहि ॥ ४ ॥

जनकजी (वशिष्ठ आदि अयोध्यावासी) मुनियों के चरणों की वंदना करने लगे और श्री रामचन्द्रजी ने (शतानंद आदि जनकपुरवासी) ऋषियों को प्रणाम किया । फिर भाइयों समेत श्री रामजी राजा जनकजी से मिलकर उन्हें समाज सहित अपने आश्रम को लिवा चले ॥ ४ ॥

दोहा :

आश्रम सागर सांत रस पूरन पावन पाथु ।
सेन मनहुँ करुना सरित लिएँ जाहिं रघुनाथु ॥ २७५ ॥

श्री रामजी का आश्रम शांत रस रूपी पवित्र जल से परिपूर्ण समुद्र है । जनकजी की सेना (समाज) मानो करुणा (करुण रस) की नदी है, जिसे श्री रघुनाथजी (उस आश्रम रूपी शांत रस के समुद्र में मिलाने के लिए) लिए जा रहे हैं ॥ २७५ ॥

चौपाई :

बोरति ग्यान बिराग करारे । बचन ससोक मिलत नद नारे ॥
सोच उसास समीर तरंगा । धीरज तट तरुबर कर भंगा ॥ १ ॥

यह करुणा की नदी (इतनी बढ़ी हुई है कि) ज्ञान-वैराग्य रूपी किनारों को डुबाती जाती है । शोक भरे वचन नद और नाले हैं, जो इस नदी में मिलते हैं और सोच की लंबी साँसें (आहें) ही वायु के झकोरों से उठने वाली तरंगें हैं, जो धैर्य रूपी किनारे के उत्तम वृक्षों को तोड़ रही हैं ॥ १ ॥

बिषम बिषाद तोरावति धारा । भय भ्रम भवँर अबर्त अपारा ॥
केवट बुध बिद्या बड़ि नावा । सकहिं न खेइ ऐक नहिं आवा ॥ २ ॥

भयानक विषाद (शोक) ही उस नदी की तेज धारा है । भय और भ्रम (मोह) ही उसके असंख्य भँवर और चक्र हैं । विद्वान मल्लाह हैं, विद्या ही बड़ी नाव है, परन्तु वे उसे खे नहीं सकते हैं, (उस विद्या का उपयोग नहीं कर सकते हैं) किसी को उसकी अटकल ही नहीं आती है ॥ २ ॥

बनचर कोल किरात बिचारे । थके बिलोकि पथिक हियँ हारे ॥
आश्रम उदधि मिली जब जाई । मनहुँ उठेउ अंबुधि अकुलाई ॥ ३ ॥

वन में विचरने वाले बेचारे कोल-किरात ही यात्री हैं, जो उस नदी को देखकर हृदय में हारकर थक गए हैं । यह करुणा नदी जब आश्रम-समुद्र में जाकर मिली, तो मानो वह समुद्र अकुला उठा (खौल उठा) ॥ ३ ॥

सोक बिकल दोउ राज समाजा । रहा न ग्यानु न धीरजु लाजा ॥
भूप रूप गुन सील सराही । रोवहिं सोक सिंधु अवगाही ॥ ४ ॥

दोनों राज समाज शोक से व्याकुल हो गए । किसी को न ज्ञान रहा, न धीरज और न लाज ही रही । राजा दशरथजी के रूप, गुण और शील की सराहना करते हुए सब रो रहे हैं और शोक समुद्र में डुबकी लगा रहे हैं ॥ ४ ॥

छन्द :

अवगाहि सोक समुद्र सोचहिं नारि नर ब्याकुल महा ।
दै दोष सकल सरोष बोलहिं बाम बिधि कीन्हो कहा ॥
सुर सिद्ध तापस जोगिजन मुनि देखि दसा बिदेह की ।
तुलसी न समरथु कोउ जो तरि सकै सरित सनेह की ॥

शोक समुद्र में डुबकी लगाते हुए सभी स्त्री-पुरुष महान व्याकुल होकर सोच (चिंता) कर रहे हैं । वे सब विधाता को दोष देते हुए क्रोधयुक्त होकर कह रहे हैं कि प्रतिकूल विधाता ने यह क्या किया? तुलसीदासजी कहते हैं कि देवता, सिद्ध, तपस्वी, योगी और मुनिगणों में कोई भी समर्थ नहीं है, जो उस समय विदेह (जनकराज) की दशा देखकर प्रेम की नदी को पार कर सके (प्रेम में मग्न हुए बिना रह सके) ।

सोरठा :

किए अमित उपदेस जहँ तहँ लोगन्ह मुनिबरन्ह ।
धीरजु धरिअ नरेस कहेउ बसिष्ठ बिदेह सन ॥ २७६ ॥

जहाँ-तहाँ श्रेष्ठ मुनियों ने लोगों को अपरिमित उपदेश दिए और वशिष्ठजी ने विदेह (जनकजी) से कहा - हे राजन्! आप धैर्य धारण कीजिए ॥ २७६ ॥

चौपाई :

जासु ग्यान रबि भव निसि नासा । बचन किरन मुनि कमल बिकासा ॥
तेहि कि मोह ममता निअराई । यह सिय राम सनेह बड़ाई ॥ १ ॥

जिन राजा जनक का ज्ञान रूपी सूर्य भव (आवागमन) रूपी रात्रि का नाश कर देता है और जिनकी वचन रूपी किरणें मुनि रूपी कमलों को खिला देती हैं (आनंदित करती हैं), क्या मोह और ममता उनके निकट भी आ सकते हैं? यह तो श्री सीता-रामजी के प्रेम की महिमा है! (अर्थात राजा जनक की यह दशा श्री सीता-रामजी के अलौकिक प्रेम के कारण हुई, लौकिक मोह-ममता के कारण नहीं । जो लौकिक मोह-ममता को पार कर चुके हैं, उन पर भी श्री सीता-रामजी का प्रेम अपना प्रभाव दिखाए बिना नहीं रहता) ॥ १ ॥

बिषई साधक सिद्ध सयाने । त्रिबिध जीव जग बेद बखाने ॥
राम सनेह सरस मन जासू । साधु सभाँ बड़ आदर तासू ॥ २ ॥

विषयी, साधक और ज्ञानवान सिद्ध पुरुष- जगत में तीन प्रकार के जीव वेदों ने बताए हैं । इन तीनों में जिसका चित्त श्री रामजी के स्नेह से सरस (सराबोर) रहता है, साधुओं की सभा में उसी का बड़ा आदर होता है ॥ २ ॥

सोह न राम पेम बिनु ग्यानू । करनधार बिनु जिमि जलजानू ॥
मुनि बहुबिधि बिदेहु समुझाए । राम घाट सब लोग नहाए ॥ ३ ॥

श्री रामजी के प्रेम के बिना ज्ञान शोभा नहीं देता, जैसे कर्णधार के बिना जहाज । वशिष्ठजी ने विदेहराज (जनकजी) को बहुत प्रकार से समझाया । तदनंतर सब लोगों ने श्री रामजी के घाट पर स्नान किया ॥ ३ ॥

सकल सोक संकुल नर नारी । सो बासरु बीतेउ बिनु बारी ॥
पसु खग मृगन्ह न कीन्ह अहारू । प्रिय परिजन कर कौन बिचारू ॥ ४ ॥

स्त्री-पुरुष सब शोक से पूर्ण थे । वह दिन बिना ही जल के बीत गया (भोजन की बात तो दूर रही, किसी ने जल तक नहीं पिया) । पशु-पक्षी और हिरनों तक ने कुछ आहार नहीं किया । तब प्रियजनों एवं कुटुम्बियों का तो विचार ही क्या किया जाए? ॥ ४ ॥

दोहा :

दोउ समाज निमिराजु रघुराजु नहाने प्रात ।
बैठे सब बट बिटप तर मन मलीन कृस गात ॥ २७७ ॥

निमिराज जनकजी और रघुराज रामचन्द्रजी तथा दोनों ओर के समाज ने दूसरे दिन सबेरे स्नान किया और सब बड़ के वृक्ष के नीचे जा बैठे । सबके मन उदास और शरीर दुबले हैं ॥ २७७ ॥

चौपाई :

जे महिसुर दसरथ पुर बासी । जे मिथिलापति नगर निवासी ॥
हंस बंस गुर जनक पुरोधा । जिन्ह जग मगु परमारथु सोधा ॥ १ ॥

जो दशरथजी की नगरी अयोध्या के रहने वाले और जो मिथिलापति जनकजी के नगर जनकपुर के रहने वाले ब्राह्मण थे तथा सूर्यवंश के गुरु वशिष्ठजी तथा जनकजी के पुरोहित शतानंदजी, जिन्होंने सांसारिक अभ्युदय का मार्ग तथा परमार्थ का मार्ग छान डाला था, ॥ १ ॥

लगे कहन उपदेस अनेका । सहित धरम नय बिरति बिबेका ॥
कौसिक कहि कहि कथा पुरानीं । समुझाई सब सभा सुबानीं ॥ २ ॥

वे सब धर्म, नीति वैराग्य तथा विवेकयुक्त अनेकों उपदेश देने लगे । विश्वामित्रजी ने पुरानी कथाएँ (इतिहास) कह-कहकर सारी सभा को सुंदर वाणी से समझाया ॥ २ ॥

तब रघुनाथ कौसिकहि कहेऊ । नाथ कालि जल बिनु सुब रहेऊ ॥
मुनि कह उचित कहत रघुराई । गयउ बीति दिन पहर अढ़ाई ॥ ३ ॥

तब श्री रघुनाथजी ने विश्वामित्रजी से कहा कि हे नाथ! कल सब लोग बिना जल पिए ही रह गए थे । (अब कुछ आहार करना चाहिए) । विश्वामित्रजी ने कहा कि श्री रघुनाथजी उचित ही कह रहे हैं । ढाई पहर दिन (आज भी) बीत गया ॥ ३ ॥

रिषि रुख लखि कह तेरहुतिराजू । इहाँ उचित नहिं असन अनाजू ॥
कहा भूप भल सबहि सोहाना । पाइ रजायसु चले नहाना ॥ ४ ॥

विश्वामित्रजी का रुख देखकर तिरहुत राज जनकजी ने कहा - यहाँ अन्न खाना उचित नहीं है । राजा का सुंदर कथन सबके मन को अच्छा लगा । सब आज्ञा पाकर नहाने चले ॥ ४ ॥

दोहा :

तेहि अवसर फल फूल दल मूल अनेक प्रकार ।
लइ आए बनचर बिपुल भरि भरि काँवरि भार ॥ २७८ ॥

उसी समय अनेकों प्रकार के बहुत से फल, फूल, पत्ते, मूल आदि बहँगियों और बोझों में भर-भरकर वनवासी (कोल-किरात) लोग ले आए ॥ २७८ ॥

चौपाई :

कामद भे गिरि राम प्रसादा । अवलोकत अपहरत बिषादा ॥
सर सरिता बन भूमि बिभागा । जनु उमगत आनँद अनुरागा ॥ १ ॥

श्री रामचन्द्रजी की कृपा से सब पर्वत मनचाही वस्तु देने वाले हो गए । वे देखने मात्र से ही दुःखों को सर्वथा हर लेते थे । वहाँ के तालाबों, नदियों, वन और पृथ्वी के सभी भागों में मानो आनंद और प्रेम उमड़ रहा है ॥ १ ॥

बेलि बिटप सब सफल सफूला । बोलत खग मृग अलि अनुकूला ॥
तेहि अवसर बन अधिक उछाहू । त्रिबिध समीर सुखद सब काहू ॥ २ ॥

बेलें और वृक्ष सभी फल और फूलों से युक्त हो गए । पक्षी, पशु और भौंरें अनुकूल बोलने लगे । उस अवसर पर वन में बहुत उत्साह (आनंद) था, सब किसी को सुख देने वाली शीतल, मंद, सुगंध हवा चल रही थी ॥ २ ॥

जाइ न बरनि मनोहरताई । जनु महि करति जनक पहुनाई ॥
तब सब लोग नहाइ नहाई । राम जनक मुनि आयसु पाई ॥ ३ ॥
देखि देखि तरुबर अनुरागे । जहँ तहँ पुरजन उतरन लागे ॥
दल फल मूल कंद बिधि नाना । पावन सुंदर सुधा समाना ॥ ४ ॥

वन की मनोहरता वर्णन नहीं की जा सकती, मानो पृथ्वी जनकजी की पहुनाई कर रही है । तब जनकपुर वासी सब लोग नहा-नहाकर श्री रामचन्द्रजी, जनकजी और मुनि की आज्ञा पाकर, सुंदर वृक्षों को देख-देखकर प्रेम में भरकर जहाँ-तहाँ उतरने लगे । पवित्र, सुंदर और अमृत के समान (स्वादिष्ट) अनेकों प्रकार के पत्ते, फल, मूल और कंद- ॥ ३-४ ॥

दोहा :

सादर सब कहँ रामगुर पठए भरि भरि भार ।
पूजि पितर सुर अतिथि गुर लगे करन फरहार ॥ २७९ ॥

श्री रामजी के गुरु वशिष्ठजी ने सबके पास बोझे भर-भरकर आदरपूर्वक भेजे । तब वे पितर-देवता, अतिथि और गुरु की पूजा करके फलाहार करने लगे ॥ २७९ ॥

चौपाई :

एहि बिधि बासर बीते चारी । रामु निरखि नर नारि सुखारी ॥
दुहु समाज असि रुचि मन माहीं । बिनु सिय राम फिरब भल नाहीं ॥ १ ॥

इस प्रकार चार दिन बीत गए । श्री रामचन्द्रजी को देखकर सभी नर-नारी सुखी हैं । दोनों समाजों के मन में ऐसी इच्छा है कि श्री सीता-रामजी के बिना लौटना अच्छा नहीं है ॥ १ ॥

सीता राम संग बनबासू । कोटि अमरपुर सरिस सुपासू ॥
परिहरि लखन रामु बैदेही । जेहि घरु भाव बाम बिधि तेही ॥ २ ॥

श्री सीता-रामजी के साथ वन में रहना करोड़ों देवलोकों के (निवास के) समान सुखदायक है । श्री लक्ष्मणजी, श्री रामजी और श्री जानकीजी को छोड़कर जिसको घर अच्छा लगे, विधाता उसके विपरीत हैं ॥ २ ॥

दाहिन दइउ होइ जब सबही । राम समीप बसिअ बन तबही ॥
मंदाकिनि मज्जनु तिहु काला । राम दरसु मुद मंगल माला ॥ ३ ॥

जब दैव सबके अनुकूल हो, तभी श्री रामजी के पास वन में निवास हो सकता है । मंदाकिनीजी का तीनों समय स्नान और आनंद तथा मंगलों की माला (समूह) रूप श्री राम का दर्शन, ॥ ३ ॥

अटनु राम गिरि बन तापस थल । असनु अमिअ सम कंद मूल फल ॥
सुख समेत संबत दुइ साता । पल सम होहिं न जनिअहिं जाता ॥ ४ ॥

श्री रामजी के पर्वत (कामदनाथ), वन और तपस्वियों के स्थानों में घूमना और अमृत के समान कंद, मूल, फलों का भोजन । चौदह वर्ष सुख के साथ पल के समान हो जाएँगे (बीत जाएँगे), जाते हुए जान ही न पड़ेंगे ॥ ४ ॥