दोहा :

सुत सनेहु इत बचनु उत संकट परेउ नरेसु ।
सकहु त आयसु धरहु सिर मेटहु कठिन कलेसु ॥ ४० ॥

इधर तो पुत्र का स्नेह है और उधर वचन (प्रतिज्ञा), राजा इसी धर्मसंकट में पड़ गए हैं । यदि तुम कर सकते हो, तो राजा की आज्ञा शिरोधार्य करो और इनके कठिन क्लेश को मिटाओ ॥ ४० ॥

चौपाई :

निधरक बैठि कहइ कटु बानी । सुनत कठिनता अति अकुलानी ॥
जीभ कमान बचन सर नाना । मनहुँ महिप मृदु लच्छ समाना ॥ १ ॥

कैकेयी बेधड़क बैठी ऐसी कड़वी वाणी कह रही है, जिसे सुनकर स्वयं कठोरता भी अत्यन्त व्याकुल हो उठी । जीभ धनुष है, वचन बहुत से तीर हैं और मानो राजा ही कोमल निशाने के समान हैं ॥ १ ॥

जनु कठोरपनु धरें सरीरू । सिखइ धनुषबिद्या बर बीरू ॥
सबु प्रसंगु रघुपतिहि सुनाई । बैठि मनहुँ तनु धरि निठुराई ॥ २ ॥

(इस सारे साज-समान के साथ) मानो स्वयं कठोरपन श्रेष्ठ वीर का शरीर धारण करके धनुष विद्या सीख रहा है । श्री रघुनाथजी को सब हाल सुनाकर वह ऐसे बैठी है, मानो निष्ठुरता ही शरीर धारण किए हुए हो ॥ २ ॥

मन मुसुकाइ भानुकुल भानू । रामु सहज आनंद निधानू ॥
बोले बचन बिगत सब दूषन । मृदु मंजुल जनु बाग बिभूषन ॥ ३ ॥

सूर्यकुल के सूर्य, स्वाभाविक ही आनंदनिधान श्री रामचन्द्रजी मन में मुस्कुराकर सब दूषणों से रहित ऐसे कोमल और सुंदर वचन बोले जो मानो वाणी के भूषण ही थे- ॥ ३ ॥

सुनु जननी सोइ सुतु बड़भागी । जो पितु मातु बचन अनुरागी ॥
तनय मातु पितु तोषनिहारा । दुर्लभ जननि सकल संसारा ॥ ४ ॥

हे माता! सुनो, वही पुत्र बड़भागी है, जो पिता-माता के वचनों का अनुरागी (पालन करने वाला) है । (आज्ञा पालन द्वारा) माता-पिता को संतुष्ट करने वाला पुत्र, हे जननी! सारे संसार में दुर्लभ है ॥ ४ ॥

दोहा :

मुनिगन मिलनु बिसेषि बन सबहि भाँति हित मोर ।
तेहि महँ पितु आयसु बहुरि संमत जननी तोर ॥ ४१ ॥

वन में विशेष रूप से मुनियों का मिलाप होगा, जिसमें मेरा सभी प्रकार से कल्याण है । उसमें भी, फिर पिताजी की आज्ञा और हे जननी! तुम्हारी सम्मति है, ॥ ४१ ॥

चौपाई :

भरतु प्रानप्रिय पावहिं राजू । बिधि सब बिधि मोहि सनमुख आजू ॥
जौं न जाउँ बन ऐसेहु काजा । प्रथम गनिअ मोहि मूढ़ समाजा ॥ १ ॥

और प्राण प्रिय भरत राज्य पावेंगे । (इन सभी बातों को देखकर यह प्रतीत होता है कि) आज विधाता सब प्रकार से मुझे सम्मुख हैं (मेरे अनुकूल हैं) । यदि ऐसे काम के लिए भी मैं वन को न जाऊँ तो मूर्खों के समाज में सबसे पहले मेरी गिनती करनी चाहिए ॥ १ ॥

सेवहिं अरँडु कलपतरु त्यागी । परिहरि अमृत लेहिं बिषु मागी ॥
तेउ न पाइ अस समउ चुकाहीं । देखु बिचारि मातु मन माहीं ॥ २ ॥

जो कल्पवृक्ष को छोड़कर रेंड की सेवा करते हैं और अमृत त्याग कर विष माँग लेते हैं, हे माता! तुम मन में विचार कर देखो, वे (महामूर्ख) भी ऐसा मौका पाकर कभी न चूकेंगे ॥ २ ॥

अंब एक दुखु मोहि बिसेषी । निपट बिकल नरनायकु देखी ॥
थोरिहिं बात पितहि दुख भारी । होति प्रतीति न मोहि महतारी ॥ ३ ॥

हे माता! मुझे एक ही दुःख विशेष रूप से हो रहा है, वह महाराज को अत्यन्त व्याकुल देखकर । इस थोड़ी सी बात के लिए ही पिताजी को इतना भारी दुःख हो, हे माता! मुझे इस बात पर विश्वास नहीं होता ॥ ३ ॥

राउ धीर गुन उदधि अगाधू । भा मोहि तें कछु बड़ अपराधू ॥
जातें मोहि न कहत कछु राऊ । मोरि सपथ तोहि कहु सतिभाऊ ॥ ४ ॥

क्योंकि महाराज तो बड़े ही धीर और गुणों के अथाह समुद्र हैं । अवश्य ही मुझसे कोई बड़ा अपराध हो गया है, जिसके कारण महाराज मुझसे कुछ नहीं कहते । तुम्हें मेरी सौगंध है, माता! तुम सच-सच कहो ॥ ४ ॥

दोहा :

सहज सकल रघुबर बचन कुमति कुटिल करि जान ।
चलइ जोंक जल बक्रगति जद्यपि सलिलु समान ॥ ४२ ॥

रघुकुल में श्रेष्ठ श्री रामचन्द्रजी के स्वभाव से ही सीधे वचनों को दुर्बुद्धि कैकेयी टेढ़ा ही करके जान रही है, जैसे यद्यपि जल समान ही होता है, परन्तु जोंक उसमें टेढ़ी चाल से ही चलती है ॥ ४२ ॥

चौपाई :

रहसी रानि राम रुख पाई । बोली कपट सनेहु जनाई ॥
सपथ तुम्हार भरत कै आना । हेतु न दूसर मैं कछु जाना ॥ १ ॥

रानी कैकेयी श्री रामचन्द्रजी का रुख पाकर हर्षित हो गई और कपटपूर्ण स्नेह दिखाकर बोली- तुम्हारी शपथ और भरत की सौगंध है, मुझे राजा के दुःख का दूसरा कुछ भी कारण विदित नहीं है ॥ १ ॥

तुम्ह अपराध जोगु नहिं ताता । जननी जनक बंधु सुखदाता ॥
राम सत्य सबु जो कछु कहहू । तुम्ह पितु मातु बचन रत अहहू ॥ २ ॥

हे तात! तुम अपराध के योग्य नहीं हो (तुमसे माता-पिता का अपराध बन पड़े यह संभव नहीं) । तुम तो माता-पिता और भाइयों को सुख देने वाले हो । हे राम! तुम जो कुछ कह रहे हो, सब सत्य है । तुम पिता-माता के वचनों (के पालन) में तत्पर हो ॥ २ ॥

पितहि बुझाइ कहहु बलि सोई । चौथेंपन जेहिं अजसु न होई ॥
तुम्ह सम सुअन सुकृत जेहिं दीन्हे । उचित न तासु निरादरु कीन्हे ॥ ३ ॥

मैं तुम्हारी बलिहारी जाती हूँ, तुम पिता को समझाकर वही बात कहो, जिससे चौथेपन (बुढ़ापे) में इनका अपयश न हो । जिस पुण्य ने इनको तुम जैसे पुत्र दिए हैं, उसका निरादर करना उचित नहीं ॥ ३ ॥

लागहिं कुमुख बचन सुभ कैसे । मगहँ गयादिक तीरथ जैसे ॥
रामहि मातु बचन सब भाए । जिमि सुरसरि गत सलिल सुहाए ॥ ४ ॥

कैकेयी के बुरे मुख में ये शुभ वचन कैसे लगते हैं जैसे मगध देश में गया आदिक तीर्थ! श्री रामचन्द्रजी को माता कैकेयी के सब वचन ऐसे अच्छे लगे जैसे गंगाजी में जाकर (अच्छे-बुरे सभी प्रकार के) जल शुभ, सुंदर हो जाते हैं ॥ ४ ॥