दोहा :

गीधराज सै भेंट भइ बहु बिधि प्रीति बढ़ाइ ।
गोदावरी निकट प्रभु रहे परन गृह छाइ ॥ १३ ॥

वहाँ गृध्रराज जटायु से भेंट हुई । उसके साथ बहुत प्रकार से प्रेम बढ़ाकर प्रभु श्री रामचंद्रजी गोदावरीजी के समीप पर्णकुटी छाकर रहने लगे ॥ १३ ॥

चौपाई :

जब ते राम कीन्ह तहँ बासा । सुखी भए मुनि बीती त्रासा ॥
गिरि बन नदीं ताल छबि छाए । दिन दिन प्रति अति होहिं सुहाए ॥ १ ॥

जब से श्री रामजी ने वहाँ निवास किया, तब से मुनि सुखी हो गए, उनका डर जाता रहा । पर्वत, वन, नदी और तालाब शोभा से छा गए । वे दिनोंदिन अधिक सुहावने (मालूम) होने लगे ॥ १ ॥

खग मृग बृंद अनंदित रहहीं । मधुप मधुर गुंजत छबि लहहीं ॥
सो बन बरनि न सक अहिराजा । जहाँ प्रगट रघुबीर बिराजा ॥ २ ॥

पक्षी और पशुओं के समूह आनंदित रहते हैं और भौंरे मधुर गुंजार करते हुए शोभा पा रहे हैं । जहाँ प्रत्यक्ष श्री रामजी विराजमान हैं, उस वन का वर्णन सर्पराज शेषजी भी नहीं कर सकते ॥ २ ॥

एक बार प्रभु सुख आसीना । लछिमन बचन कहे छलहीना ॥
सुर नर मुनि सचराचर साईं । मैं पूछउँ निज प्रभु की नाईं ॥ ३ ॥

एक बार प्रभु श्री रामजी सुख से बैठे हुए थे । उस समय लक्ष्मणजी ने उनसे छलरहित (सरल) वचन कहे - हे देवता, मनुष्य, मुनि और चराचर के स्वामी! मैं अपने प्रभु की तरह (अपना स्वामी समझकर) आपसे पूछता हूँ ॥ ३ ॥

मोहि समुझाइ कहहु सोइ देवा । सब तजि करौं चरन रज सेवा ॥
कहहु ग्यान बिराग अरु माया । कहहु सो भगति करहु जेहिं दाया ॥ ४ ॥

हे देव! मुझे समझाकर वही कहिए, जिससे सब छोड़कर मैं आपकी चरणरज की ही सेवा करूँ । ज्ञान, वैराग्य और माया का वर्णन कीजिए और उस भक्ति को कहिए, जिसके कारण आप दया करते हैं ॥ ४ ॥

दोहा :

ईस्वर जीव भेद प्रभु सकल कहौ समुझाइ ।
जातें होइ चरन रति सोक मोह भ्रम जाइ ॥ १४ ॥

हे प्रभो! ईश्वर और जीव का भेद भी सब समझाकर कहिए, जिससे आपके चरणों में मेरी प्रीति हो और शोक, मोह तथा भ्रम नष्ट हो जाएँ ॥ १४ ॥

चौपाई :

थोरेहि महँ सब कहउँ बुझाई । सुनहु तात मति मन चित लाई ॥
मैं अरु मोर तोर तैं माया । जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया ॥ १ ॥

(श्री रामजी ने कहा - ) हे तात! मैं थोड़े ही में सब समझाकर कहे देता हूँ । तुम मन, चित्त और बुद्धि लगाकर सुनो! मैं और मेरा, तू और तेरा- यही माया है, जिसने समस्त जीवों को वश में कर रखा है ॥ १ ॥

गो गोचर जहँ लगि मन जाई । सो सब माया जानेहु भाई ॥
तेहि कर भेद सुनहु तुम्ह सोऊ । बिद्या अपर अबिद्या दोऊ ॥ २ ॥

इंद्रियों के विषयों को और जहाँ तक मन जाता है, हे भाई! उन सबको माया जानना । उसके भी एक विद्या और दूसरी अविद्या, इन दोनों भेदों को तुम सुनो- ॥ २ ॥

एक दुष्ट अतिसय दुखरूपा । जा बस जीव परा भवकूपा ॥
एक रचइ जग गुन बस जाकें । प्रभु प्रेरित नहिं निज बल ताकें ॥ ३ ॥

एक (अविद्या) दुष्ट (दोषयुक्त) है और अत्यंत दुःखरूप है, जिसके वश होकर जीव संसार रूपी कुएँ में पड़ा हुआ है और एक (विद्या) जिसके वश में गुण है और जो जगत् की रचना करती है, वह प्रभु से ही प्रेरित होती है, उसके अपना बल कुछ भी नही है ॥ ३ ॥

ग्यान मान जहँ एकउ नाहीं । देख ब्रह्म समान सब माहीं ॥
कहिअ तात सो परम बिरागी । तृन सम सिद्धि तीनि गुन त्यागी ॥ ४ ॥

ज्ञान वह है, जहाँ (जिसमें) मान आदि एक भी (दोष) नहीं है और जो सबसे समान रूप से ब्रह्म को देखता है । हे तात! उसी को परम वैराग्यवान् कहना चाहिए, जो सारी सिद्धियों को और तीनों गुणों को तिनके के समान त्याग चुका हो ॥ ४ ॥

(जिसमें मान, दम्भ, हिंसा, क्षमाराहित्य, टेढ़ापन, आचार्य सेवा का अभाव, अपवित्रता, अस्थिरता, मन का निगृहीत न होना, इंद्रियों के विषय में आसक्ति, अहंकार, जन्म-मृत्यु-जरा-व्याधिमय जगत् में सुख-बुद्धि, स्त्री-पुत्र-घर आदि में आसक्ति तथा ममता, इष्ट और अनिष्ट की प्राप्ति में हर्ष-शोक, भक्ति का अभाव, एकान्त में मन न लगना, विषयी मनुष्यों के संग में प्रेम- ये अठारह न हों और नित्य अध्यात्म (आत्मा) में स्थिति तथा तत्त्व ज्ञान के अर्थ (तत्त्वज्ञान के द्वारा जानने योग्य) परमात्मा का नित्य दर्शन हो, वही ज्ञान कहलाता है । देखिए गीता अध्याय १३/ ७ से ११)

दोहा :

माया ईस न आपु कहुँ जान कहिअ सो जीव ।
बंध मोच्छ प्रद सर्बपर माया प्रेरक सीव ॥ १५ ॥

जो माया को, ईश्वर को और अपने स्वरूप को नहीं जानता, उसे जीव कहना चाहिए । जो (कर्मानुसार) बंधन और मोक्ष देने वाला, सबसे परे और माया का प्रेरक है, वह ईश्वर है ॥ १५ ॥

चौपाई :

धर्म तें बिरति जोग तें ग्याना । ग्यान मोच्छप्रद बेद बखाना ॥
जातें बेगि द्रवउँ मैं भाई । सो मम भगति भगत सुखदाई ॥ १ ॥

धर्म (के आचरण) से वैराग्य और योग से ज्ञान होता है तथा ज्ञान मोक्ष का देने वाला है - ऐसा वेदों ने वर्णन किया है । और हे भाई! जिससे मैं शीघ्र ही प्रसन्न होता हूँ, वह मेरी भक्ति है जो भक्तों को सुख देने वाली है ॥ १ ॥

सो सुतंत्र अवलंब न आना । तेहि आधीन ग्यान बिग्याना ॥
भगति तात अनुपम सुखमूला । मिलइ जो संत होइँ अनुकूला ॥ २ ॥

वह भक्ति स्वतंत्र है, उसको (ज्ञान-विज्ञान आदि किसी) दूसरे साधन का सहारा (अपेक्षा) नहीं है । ज्ञान और विज्ञान तो उसके अधीन हैं । हे तात! भक्ति अनुपम एवं सुख की मूल है और वह तभी मिलती है, जब संत अनुकूल (प्रसन्न) होते हैं ॥ २ ॥

भगति कि साधन कहउँ बखानी । सुगम पंथ मोहि पावहिं प्रानी ॥
प्रथमहिं बिप्र चरन अति प्रीती । निज निज कर्म निरत श्रुति रीती ॥ ३ ॥

अब मैं भक्ति के साधन विस्तार से कहता हूँ- यह सुगम मार्ग है, जिससे जीव मुझको सहज ही पा जाते हैं । पहले तो ब्राह्मणों के चरणों में अत्यंत प्रीति हो और वेद की रीति के अनुसार अपने-अपने (वर्णाश्रम के) कर्मों में लगा रहे ॥ ३ ॥

एहि कर फल पुनि बिषय बिरागा । तब मम धर्म उपज अनुरागा ॥
श्रवनादिक नव भक्ति दृढ़ाहीं । मम लीला रति अति मन माहीं ॥ ४ ॥

इसका फल, फिर विषयों से वैराग्य होगा । तब (वैराग्य होने पर) मेरे धर्म (भागवत धर्म) में प्रेम उत्पन्न होगा । तब श्रवण आदि नौ प्रकार की भक्तियाँ दृढ़ होंगी और मन में मेरी लीलाओं के प्रति अत्यंत प्रेम होगा ॥ ४ ॥

संत चरन पंकज अति प्रेमा । मन क्रम बचन भजन दृढ़ नेमा ॥
गुरु पितु मातु बंधु पति देवा । सब मोहि कहँ जानै दृढ़ सेवा ॥ ५ ॥

जिसका संतों के चरणकमलों में अत्यंत प्रेम हो, मन, वचन और कर्म से भजन का दृढ़ नियम हो और जो मुझको ही गुरु, पिता, माता, भाई, पति और देवता सब कुछ जाने और सेवा में दृढ़ हो, ॥ ५ ॥

मम गुन गावत पुलक सरीरा । गदगद गिरा नयन बह नीरा ॥
काम आदि मद दंभ न जाकें । तात निरंतर बस मैं ताकें ॥ ६ ॥

मेरा गुण गाते समय जिसका शरीर पुलकित हो जाए, वाणी गदगद हो जाए और नेत्रों से (प्रेमाश्रुओं का) जल बहने लगे और काम, मद और दम्भ आदि जिसमें न हों, हे भाई! मैं सदा उसके वश में रहता हूँ ॥ ६ ॥

दोहा :

बचन कर्म मन मोरि गति भजनु करहिं निःकाम ।
तिन्ह के हृदय कमल महुँ करउँ सदा बिश्राम ॥ १६ ॥

जिनको कर्म, वचन और मन से मेरी ही गति है और जो निष्काम भाव से मेरा भजन करते हैं, उनके हृदय कमल में मैं सदा विश्राम किया करता हूँ ॥ १६ ॥

चौपाई :

भगति जोग सुनि अति सुख पावा । लछिमन प्रभु चरनन्हि सिरु नावा ॥
एहि बिधि कछुक दिन बीती । कहत बिराग ग्यान गुन नीती ॥ १ ॥

इस भक्ति योग को सुनकर लक्ष्मणजी ने अत्यंत सुख पाया और उन्होंने प्रभु श्री रामचंद्रजी के चरणों में सिर नवाया । इस प्रकार वैराग्य, ज्ञान, गुण और नीति कहते हुए कुछ दिन बीत गए ॥ १ ॥

सूपनखा रावन कै बहिनी । दुष्ट हृदय दारुन जस अहिनी ॥
पंचबटी सो गइ एक बारा । देखि बिकल भइ जुगल कुमारा ॥ २ ॥

शूर्पणखा नामक रावण की एक बहिन थी, जो नागिन के समान भयानक और दुष्ट हृदय की थी । वह एक बार पंचवटी में गई और दोनों राजकुमारों को देखकर विकल (काम से पीड़ित) हो गई ॥ २ ॥

भ्राता पिता पुत्र उरगारी । पुरुष मनोहर निरखत नारी ॥
होइ बिकल सक मनहि न रोकी । जिमि रबिमनि द्रव रबिहि बिलोकी ॥ ३ ॥

(काकभुशुण्डिजी कहते हैं - ) हे गरुड़जी! (शूर्पणखा- जैसी राक्षसी, धर्मज्ञान शून्य कामान्ध) स्त्री मनोहर पुरुष को देखकर, चाहे वह भाई, पिता, पुत्र ही हो, विकल हो जाती है और मन को नहीं रोक सकती । जैसे सूर्यकान्तमणि सूर्य को देखकर द्रवित हो जाती है (ज्वाला से पिघल जाती है) ॥ ३ ॥

रुचिर रूप धरि प्रभु पहिं जाई । बोली बचन बहुत मुसुकाई ॥
तुम्ह सम पुरुष न मो सम नारी । यह सँजोग बिधि रचा बिचारी ॥ ४ ॥

वह सुन्दर रूप धरकर प्रभु के पास जाकर और बहुत मुस्कुराकर वचन बोली- न तो तुम्हारे समान कोई पुरुष है, न मेरे समान स्त्री । विधाता ने यह संयोग (जोड़ा) बहुत विचार कर रचा है ॥ ४ ॥

मम अनुरूप पुरुष जग माहीं । देखेउँ खोजि लोक तिहु नाहीं ॥
तातें अब लगि रहिउँ कुमारी । मनु माना कछु तुम्हहि निहारी ॥ ५ ॥

मेरे योग्य पुरुष (वर) जगत्भर में नहीं है, मैंने तीनों लोकों को खोज देखा । इसी से मैं अब तक कुमारी (अविवाहित) रही । अब तुमको देखकर कुछ मन माना (चित्त ठहरा) है ॥ ५ ॥

सीतहि चितइ कही प्रभु बाता । अहइ कुआर मोर लघु भ्राता ॥
गइ लछिमन रिपु भगिनी जानी । प्रभु बिलोकि बोले मृदु बानी ॥ ६ ॥

सीताजी की ओर देखकर प्रभु श्री रामजी ने यह बात कही कि मेरा छोटा भाई कुमार है । तब वह लक्ष्मणजी के पास गई । लक्ष्मणजी ने उसे शत्रु की बहिन समझकर और प्रभु की ओर देखकर कोमल वाणी से बोले - ॥ ६ ॥

सुंदरि सुनु मैं उन्ह कर दासा । पराधीन नहिं तोर सुपासा ॥
प्रभु समर्थ कोसलपुर राजा । जो कछु करहिं उनहि सब छाजा ॥ ७ ॥

हे सुंदरी! सुन, मैं तो उनका दास हूँ । मैं पराधीन हूँ, अतः तुम्हे सुभीता (सुख) न होगा । प्रभु समर्थ हैं, कोसलपुर के राजा है, वे जो कुछ करें, उन्हें सब फबता है ॥ ७ ॥

सेवक सुख चह मान भिखारी । ब्यसनी धन सुभ गति बिभिचारी ॥
लोभी जसु चह चार गुमानी । नभ दुहि दूध चहत ए प्रानी ॥ ८ ॥

सेवक सुख चाहे, भिखारी सम्मान चाहे, व्यसनी (जिसे जुए, शराब आदि का व्यसन हो) धन और व्यभिचारी शुभ गति चाहे, लोभी यश चाहे और अभिमानी चारों फल- अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष चाहे, तो ये सब प्राणी आकाश को दुहकर दूध लेना चाहते हैं (अर्थात् असंभव बात को संभव करना चाहते हैं) ॥ ८ ॥

पुनि फिरि राम निकट सो आई । प्रभु लछिमन पहिं बहुरि पठाई ॥
लछिमन कहा तोहि सो बरई । जो तृन तोरि लाज परिहरई ॥ ९ ॥

वह लौटकर फिर श्री रामजी के पास आई, प्रभु ने उसे फिर लक्ष्मणजी के पास भेज दिया । लक्ष्मणजी ने कहा - तुम्हें वही वरेगा, जो लज्जा को तृण तोड़कर (अर्थात् प्रतिज्ञा करके) त्याग देगा (अर्थात् जो निपट निर्लज्ज होगा) ॥ ९ ॥

तब खिसिआनि राम पहिं गई । रूप भयंकर प्रगटत भई ॥
सीतहि सभय देखि रघुराई । कहा अनुज सन सयन बुझाई ॥ १० ॥

तब वह खिसियायी हुई (क्रुद्ध होकर) श्री रामजी के पास गई और उसने अपना भयंकर रूप प्रकट किया । सीताजी को भयभीत देखकर श्री रघुनाथजी ने लक्ष्मण को इशारा देकर कहा ॥ १० ॥