दोहा :

दीख जाइ उपबन बर सर बिगसित बहु कंज ।
मंदिर एक रुचिर तहँ बैठि नारि तप पुंज ॥ २४ ॥

अंदर जाकर उन्होंने एक उत्तम उपवन (बगीचा) और तालाब देखा, जिसमें बहुत से कमल खिले हुए हैं । वहीं एक सुंदर मंदिर है, जिसमें एक तपोमूर्ति स्त्री बैठी है ॥ २४ ॥

चौपाई :

दूरि ते ताहि सबन्हि सिरु नावा । पूछें निज बृत्तांत सुनावा ॥
तेहिं तब कहा करहु जल पाना । खाहु सुरस सुंदर फल नाना ॥ १ ॥

दूर से ही सबने उसे सिर नवाया और पूछने पर अपना सब वृत्तांत कह सुनाया । तब उसने कहा - जलपान करो और भाँति-भाँति के रसीले सुंदर फल खाओ ॥ १ ॥

मज्जनु कीन्ह मधुर फल खाए । तासु निकट पुनि सब चलि आए ॥
तेहिं सब आपनि कथा सुनाई । मैं अब जाब जहाँ रघुराई ॥ २ ॥

(आज्ञा पाकर) सबने स्नान किया, मीठे फल खाए और फिर सब उसके पास चले आए । तब उसने अपनी सब कथा कह सुनाई (और कहा - ) मैं अब वहाँ जाऊँगी जहाँ श्री रघुनाथजी हैं ॥ २ ॥

मूदहु नयन बिबर तजि जाहू । पैहहु सीतहि जनि पछिताहू ॥
नयन मूदि पुनि देखहिं बीरा । ठाढ़े सकल सिंधु कें तीरा ॥ ३ ॥

तुम लोग आँखें मूँद लो और गुफा को छोड़कर बाहर जाओ । तुम सीताजी को पा जाओगे, पछताओ नहीं (निराश न होओ) । आँखें मूँदकर फिर जब आँखें खोलीं तो सब वीर क्या देखते हैं कि सब समुद्र के तीर पर खड़े हैं ॥ ३ ॥

सो पुनि गई जहाँ रघुनाथा । जाइ कमल पद नाएसि माथा ॥
नाना भाँति बिनय तेहिं कीन्हीं । अनपायनी भगति प्रभु दीन्हीं ॥ ४ ॥

और वह स्वयं वहाँ गई जहाँ श्री रघुनाथजी थे । उसने जाकर प्रभु के चरण कमलों में मस्तक नवाया और बहुत प्रकार से विनती की । प्रभु ने उसे अपनी अनपायिनी (अचल) भक्ति दी ॥ ४ ॥

दोहा :

बदरीबन कहुँ सो गई प्रभु अग्या धरि सीस ।
उर धरि राम चरन जुग जे बंदत अज ईस ॥ २५ ॥

प्रभु की आज्ञा सिर पर धारण कर और श्री रामजी के युगल चरणों को, जिनकी ब्रह्मा और महेश भी वंदना करते हैं, हृदय में धारण कर वह (स्वयंप्रभा) बदरिकाश्रम को चली गई ॥ २५ ॥

चौपाई :

इहाँ बिचारहिं कपि मन माहीं । बीती अवधि काज कछु नाहीं ॥
सब मिलि कहहिं परस्पर बाता । बिनु सुधि लएँ करब का भ्राता ॥ १ ॥

यहाँ वानरगण मन में विचार कर रहे हैं कि अवधि तो बीत गई, पर काम कुछ न हुआ । सब मिलकर आपस में बात करने लगे कि हे भाई! अब तो सीताजी की खबर लिए बिना लौटकर भी क्या करेंगे! ॥ १ ॥

कह अंगद लोचन भरि बारी । दुहुँ प्रकार भइ मृत्यु हमारी ॥
इहाँ न सुधि सीता कै पाई । उहाँ गएँ मारिहि कपिराई ॥ २ ॥

अंगद ने नेत्रों में जल भरकर कहा कि दोनों ही प्रकार से हमारी मृत्यु हुई । यहाँ तो सीताजी की सुध नहीं मिली और वहाँ जाने पर वानरराज सुग्रीव मार डालेंगे ॥ २ ॥

पिता बधे पर मारत मोही । राखा राम निहोर न ओही ॥
पुनि पुनि अंगद कह सब पाहीं । मरन भयउ कछु संसय नाहीं ॥ ३ ॥

वे तो पिता के वध होने पर ही मुझे मार डालते । श्री रामजी ने ही मेरी रक्षा की, इसमें सुग्रीव का कोई एहसान नहीं है । अंगद बार-बार सबसे कह रहे हैं कि अब मरण हुआ, इसमें कुछ भी संदेह नहीं है ॥ ३ ॥

अंगद बचन सुन कपि बीरा । बोलि न सकहिं नयन बह नीरा ॥
छन एक सोच मगन होइ रहे । पुनि अस बचन कहत सब भए ॥ ४ ॥

वानर वीर अंगद के वचन सुनते हैं, किंतु कुछ बोल नहीं सकते । उनके नेत्रों से जल बह रहा है । एक क्षण के लिए सब सोच में मग्न हो रहे । फिर सब ऐसा वचन कहने लगे- ॥ ४ ॥

हम सीता कै सुधि लीन्हें बिना । नहिं जैहैं जुबराज प्रबीना ॥
अस कहि लवन सिंधु तट जाई । बैठे कपि सब दर्भ डसाई ॥ ५ ॥

हे सुयोग्य युवराज! हम लोग सीताजी की खोज लिए बिना नहीं लौटेंगे । ऐसा कहकर लवणसागर के तट पर जाकर सब वानर कुश बिछाकर बैठ गए ॥ ५ ॥

जामवंत अंगद दुख देखी । कहीं कथा उपदेस बिसेषी ॥
तात राम कहुँ नर जनि मानहु । निर्गुन ब्रह्म अजित अज जानहु ॥ ६ ॥

जाम्बवान् ने अंगद का दुःख देखकर विशेष उपदेश की कथाएँ कहीं । (वे बोले - ) हे तात! श्री रामजी को मनुष्य न मानो, उन्हें निर्गुण ब्रह्म, अजेय और अजन्मा समझो ॥ ६ ॥

हम सब सेवक अति बड़भागी । संतत सगुन ब्रह्म अनुरागी ॥ ७ ॥

हम सब सेवक अत्यंत बड़भागी हैं, जो निरंतर सगुण ब्रह्म (श्री रामजी) में प्रीति रखते हैं ॥ ७ ॥

दोहा :

निज इच्छाँ प्रभु अवतरइ सुर मह गो ‍िद्वज लागि ।
सगुन उपासक संग तहँ रहहिं मोच्छ सब त्यागि ॥ २६ ॥

देवता, पृथ्वी, गो और ब्राह्मणों के लिए प्रभु अपनी इच्छा से (किसी कर्मबंधन से नहीं) अवतार लेते हैं । वहाँ सगुणोपासक (भक्तगण सालोक्य, सामीप्य, सारुप्य, सार्ष्टि और सायुज्य) सब प्रकार के मोक्षों को त्यागकर उनकी सेवा में साथ रहते हैं ॥ २६ ॥

चौपाई :

एहि बिधि कथा कहहिं बहु भाँती । गिरि कंदराँ सुनी संपाती ॥
बाहेर होइ देखि बहु कीसा । मोहि अहार दीन्ह जगदीसा ॥ १ ॥

इस प्रकार जाम्बवान् बहुत प्रकार से कथाएँ कह रहे हैं । इनकी बातें पर्वत की कन्दरा में सम्पाती ने सुनीं । बाहर निकलकर उसने बहुत से वानर देखे । (तब वह बोला-) जगदीश्वर ने मुझको घर बैठे बहुत सा आहार भेज दिया! ॥ १ ॥

आजु सबहि कहँ भच्छन करऊँ । दिन हबु चले अहार बिनु मरऊँ ॥
कबहुँ न मिल भरि उदर अहारा । आजु दीन्ह बिधि एकहिं बारा ॥ २ ॥

आज इन सबको खा जाऊँगा । बहुत दिन बीत गए, भोजन के बिना मर रहा था । पेटभर भोजन कभी नहीं मिलता । आज विधाता ने एक ही बार में बहुत सा भोजन दे दिया ॥ २ ॥

डरपे गीध बचन सुनि काना । अब भा मरन सत्य हम जाना ॥
कपि सब उठे गीध कहँ देखी । जामवंत मन सोच बिसेषी ॥ ३ ॥

गीध के वचन कानों से सुनते ही सब डर गए कि अब सचमुच ही मरना हो गया । यह हमने जान लिया । फिर उस गीध (सम्पाती) को देखकर सब वानर उठ खड़े हुए । जाम्बवान् के मन में विशेष सोच हुआ ॥ ३ ॥

कह अंगद बिचारि मन माहीं । धन्य जटायू सम कोउ नाहीं ॥
राम काज कारन तनु त्यागी । हरि पुर गयउ परम बड़भागी ॥ ४ ॥

अंगद ने मन में विचार कर कहा - अहा! जटायु के समान धन्य कोई नहीं है । श्री रामजी के कार्य के लिए शरीर छोड़कर वह परम बड़भागी भगवान् के परमधाम को चला गया ॥ ४ ॥

सुनि खग हरष सोक जुत बानी । आवा निकट कपिन्ह भय मानी ॥
तिन्हहि अभय करि पूछेसि जाई । कथा सकल तिन्ह ताहि सुनाई ॥ ५ ॥

हर्ष और शोक से युक्त वाणी (समाचार) सुनकर वह पक्षी (सम्पाती) वानरों के पास आया । वानर डर गए । उनको अभय करके (अभय वचन देकर) उसने पास जाकर जटायु का वृत्तांत पूछा, तब उन्होंने सारी कथा उसे कह सुनाई ॥ ५ ॥

सुनि संपाति बंधु कै करनी । रघुपति महिमा बहुबिधि बरनी ॥ ६ ॥

भाई जटायु की करनी सुनकर सम्पाती ने बहुत प्रकार से श्री रघुनाथजी की महिमा वर्णन की ॥ ६ ॥

दोहा :

मोहि लै जाहु सिंधुतट देउँ तिलांजलि ताहि ।
बचन सहाइ करबि मैं पैहहु खोजहु जाहि ॥ २७ ॥

(उसने कहा - ) मुझे समुद्र के किनारे ले चलो, मैं जटायु को तिलांजलि दे दूँ । इस सेवा के बदले मैं तुम्हारी वचन से सहायता करूँगा (अर्थात् सीताजी कहाँ हैं सो बतला दूँगा), जिसे तुम खोज रहे हो उसे पा जाओगे ॥ २७ ॥

चौपाई :

अनुज क्रिया करि सागर तीरा । कहि निज कथा सुनहु कपि बीरा ॥
हम द्वौ बंधु प्रथम तरुनाई । गगन गए रबि निकट उड़ाई ॥ १ ॥

समुद्र के तीर पर छोटे भाई जटायु की क्रिया (श्राद्ध आदि) करके सम्पाती अपनी कथा कहने लगा- हे वीर वानरों! सुनो, हम दोनों भाई उठती जवानी में एक बार आकाश में उड़कर सूर्य के निकट चले गए ॥ १ ॥

तेज न सहि सक सो फिरि आवा । मैं अभिमानी रबि निअरावा ॥
जरे पंख अति तेज अपारा । परेउँ भूमि करि घोर चिकारा ॥ २ ॥

वह (जटायु) तेज नहीं सह सका, इससे लौट आया (किंतु), मैं अभिमानी था इसलिए सूर्य के पास चला गया । अत्यंत अपार तेज से मेरे पंख जल गए । मैं बड़े जोर से चीख मारकर जमीन पर गिर पड़ा ॥ २ ॥

मुनि एक नाम चंद्रमा ओही । लागी दया देखि करि मोही ॥
बहु प्रकार तेहिं ग्यान सुनावा । देहजनित अभिमान छुड़ावा ॥ ३ ॥

वहाँ चंद्रमा नाम के एक मुनि थे । मुझे देखकर उन्हें बड़ी दया लगी । उन्होंने बहुत प्रकार से मुझे ज्ञान सुनाया और मेरे देहजनित (देह संबंधी) अभिमान को छुड़ा दिया ॥ ३ ॥

त्रेताँ ब्रह्म मनुज तनु धरिही । तासु नारि निसिचर पति हरिही ॥
तासु खोज पठइहि प्रभु दूता । तिन्हहि मिलें तैं होब पुनीता ॥ ४ ॥

(उन्होंने कहा - ) त्रेतायुग में साक्षात् परब्रह्म मनुष्य शरीर धारण करेंगे । उनकी स्त्री को राक्षसों का राजा हर ले जाएगा । उसकी खोज में प्रभु दूत भेजेंगे । उनसे मिलने पर तू पवित्र हो जाएगा ॥ ४ ॥

जमिहहिं पंख करसि जनि चिंता । तिन्हहि देखाइ देहेसु तैं सीता ॥
मुनि कइ गिरा सत्य भइ आजू । सुनि मम बचन करहु प्रभु काजू ॥ ५ ॥

और तेरे पंख उग आएँगे, चिंता न कर । उन्हें तू सीताजी को दिखा देना । मुनि की वह वाणी आज सत्य हुई । अब मेरे वचन सुनकर तुम प्रभु का कार्य करो ॥ ५ ॥

गिरि त्रिकूट ऊपर बस लंका । तहँ रह रावन सहज असंका ॥
तहँ असोक उपबन जहँ रहई । सीता बैठि सोच रत अहई ॥ ६ ॥

त्रिकूट पर्वत पर लंका बसी हुई है । वहाँ स्वभाव से ही निडर रावण रहता है । वहाँ अशोक नाम का उपवन (बगीचा) है, जहाँ सीताजी रहती हैं । (इस समय भी) वे सोच में मग्न बैठी हैं ॥ ६ ॥