दोहा :

लछिमन तुरत बोलाए पुरजन बिप्र समाज ।
राजु दीन्ह सुग्रीव कहँ अंगद कहँ जुबराज ॥ ११ ॥

लक्ष्मणजी ने तुरंत ही सब नगरवासियों को और ब्राह्मणों के समाज को बुला लिया और (उनके सामने) सुग्रीव को राज्य और अंगद को युवराज पद दिया ॥ ११ ॥

चौपाई :

उमा राम सम हत जग माहीं । गुरु पितु मातु बंधु प्रभु नाहीं ॥
सुर नर मुनि सब कै यह रीती । स्वारथ लागि करहिं सब प्रीति ॥ १ ॥

हे पार्वती! जगत में श्री रामजी के समान हित करने वाला गुरु, पिता, माता, बंधु और स्वामी कोई नहीं है । देवता, मनुष्य और मुनि सबकी यह रीति है कि स्वार्थ के लिए ही सब प्रीति करते हैं ॥ १ ॥

बालि त्रास ब्याकुल दिन राती । तन बहु ब्रन चिंताँ जर छाती ॥
सोइ सुग्रीव कीन्ह कपि राऊ । अति कृपाल रघुबीर सुभाऊ ॥ २ ॥

जो सुग्रीव दिन-रात बालि के भय से व्याकुल रहता था, जिसके शरीर में बहुत से घाव हो गए थे और जिसकी छाती चिंता के मारे जला करती थी, उसी सुग्रीव को उन्होंने वानरों का राजा बना दिया । श्री रामचंद्रजी का स्वभाव अत्यंत ही कृपालु है ॥ २ ॥

जानतहूँ अस प्रभु परिहरहीं । काहे न बिपति जाल नर परहीं ॥
पुनि सुग्रीवहि लीन्ह बोलाई । बहु प्रकार नृपनीति सिखाई ॥ ३ ॥

जो लोग जानते हुए भी ऐसे प्रभु को त्याग देते हैं, वे क्यों न विपत्ति के जाल में फँसें? फिर श्री रामजी ने सुग्रीव को बुला लिया और बहुत प्रकार से उन्हें राजनीति की शिक्षा दी ॥ ३ ॥

कह प्रभु सुनु सुग्रीव हरीसा । पुर न जाउँ दस चारि बरीसा ॥
गत ग्रीषम बरषा रितु आई । रहिहउँ निकट सैल पर छाई ॥ ४ ॥

फिर प्रभु ने कहा - हे वानरपति सुग्रीव! सुनो, मैं चौदह वर्ष तक गाँव (बस्ती) में नहीं जाऊँगा । ग्रीष्मऋतु बीतकर वर्षाऋतु आ गई । अतः मैं यहाँ पास ही पर्वत पर टिक रहूँगा ॥ ४ ॥

अंगद सहित करहु तुम्ह राजू । संतत हृदयँ धरेहु मम काजू ॥
जब सुग्रीव भवन फिरि आए । रामु प्रबरषन गिरि पर छाए ॥ ५ ॥

तुम अंगद सहित राज्य करो । मेरे कार्य का हृदय में सदा ध्यान रखना । तदनन्तर जब सुग्रीवजी घर लौट आए, तब श्री रामजी प्रवर्षण पर्वत पर जा टिके ॥ ५ ॥