दोहा :

प्रथमहिं देवन्ह गिरि गुहा राखेउ रुचिर बनाइ ।
राम कृपानिधि कछु दिन बास करहिंगे आइ ॥ १२ ॥

देवताओं ने पहले से ही उस पर्वत की एक गुफा को सुंदर बना (सजा) रखा था । उन्होंने सोच रखा था कि कृपा की खान श्री रामजी कुछ दिन यहाँ आकर निवास करेंगे ॥ १२ ॥

चौपाई :

सुंदर बन कुसुमित अति सोभा । गुंजत मधुप निकर मधु लोभा ॥
कंद मूल फल पत्र सुहाए । भए बहुत जब ते प्रभु आए ॥ १ ॥

सुंदर वन फूला हुआ अत्यंत सुशोभित है । मधु के लोभ से भौंरों के समूह गुंजार कर रहे हैं । जब से प्रभु आए, तब से वन में सुंदर कन्द, मूल, फल और पत्तों की बहुतायत हो गई ॥ १ ॥

देखि मनोहर सैल अनूपा । रहे तहँ अनुज सहित सुरभूपा ॥
मधुकर खग मृग तनु धरि देवा । करहिं सिद्ध मुनि प्रभु कै सेवा ॥ २ ॥

मनोहर और अनुपम पर्वत को देखकर देवताओं के सम्राट् श्री रामजी छोटे भाई सहित वहाँ रह गए । देवता, सिद्ध और मुनि भौंरों, पक्षियों और पशुओं के शरीर धारण करके प्रभु की सेवा करने लगे ॥ २ ॥

मंगलरूप भयउ बन तब ते । कीन्ह निवास रमापति जब ते ॥
फटिक सिला अति सुभ्र सुहाई । सुख आसीन तहाँ द्वौ भाई ॥ ३ ॥

जब से रमापति श्री रामजी ने वहाँ निवास किया तब से वन मंगलस्वरूप हो गया । सुंदर स्फटिक मणि की एक अत्यंत उज्ज्वल शिला है, उस पर दोनों भाई सुखपूर्वक विराजमान हैं ॥ ३ ॥

कहत अनुज सन कथा अनेका । भगति बिरत नृपनीति बिबेका ॥
बरषा काल मेघ नभ छाए । गरजत लागत परम सुहाए ॥ ४ ॥

श्री राम छोटे भाई लक्ष्मणजी से भक्ति, वैराग्य, राजनीति और ज्ञान की अनेकों कथाएँ कहते हैं । वर्षाकाल में आकाश में छाए हुए बादल गरजते हुए बहुत ही सुहावने लगते हैं ॥ ४ ॥

दोहा :

लछिमन देखु मोर गन नाचत बारिद पेखि ।
गृही बिरति रत हरष जस बिष्नुभगत कहुँ देखि ॥ १३ ॥

(श्री रामजी कहने लगे-) हे लक्ष्मण! देखो, मोरों के झुंड बादलों को देखकर नाच रहे हैं जैसे वैराग्य में अनुरक्त गृहस्थ किसी विष्णुभक्त को देखकर हर्षित होते हैं ॥ १३ ॥

चौपाई :

घन घमंड नभ गरजत घोरा । प्रिया हीन डरपत मन मोरा ॥
दामिनि दमक रह नघन माहीं । खल कै प्रीति जथा थिर नाहीं ॥ १ ॥

आकाश में बादल घुमड़-घुमड़कर घोर गर्जना कर रहे हैं, प्रिया (सीताजी) के बिना मेरा मन डर रहा है । बिजली की चमक बादलों में ठहरती नहीं, जैसे दुष्ट की प्रीति स्थिर नहीं रहती ॥ १ ॥

बरषहिं जलद भूमि निअराएँ । जथा नवहिं बुध बिद्या पाएँ ।
बूँद अघात सहहिं गिरि कैसे । खल के बचन संत सह जैसें ॥ २ ॥

बादल पृथ्वी के समीप आकर (नीचे उतरकर) बरस रहे हैं, जैसे विद्या पाकर विद्वान् नम्र हो जाते हैं । बूँदों की चोट पर्वत कैसे सहते हैं, जैसे दुष्टों के वचन संत सहते हैं ॥ २ ॥

छुद्र नदीं भरि चलीं तोराई । जस थोरेहुँ धन खल इतराई ॥
भूमि परत भा ढाबर पानी । जनु जीवहि माया लपटानी ॥ ३ ॥

छोटी नदियाँ भरकर (किनारों को) तुड़ाती हुई चलीं, जैसे थोड़े धन से भी दुष्ट इतरा जाते हैं । (मर्यादा का त्याग कर देते हैं) । पृथ्वी पर पड़ते ही पानी गंदला हो गया है, जैसे शुद्ध जीव के माया लिपट गई हो ॥ ३ ॥

समिटि समिटि जल भरहिं तलावा । जिमि सदगुन सज्जन पहिं आवा ॥
सरिता जल जलनिधि महुँ जोई । होइ अचल जिमि जिव हरि पाई ॥ ४ ॥

जल एकत्र हो-होकर तालाबों में भर रहा है, जैसे सद्गुण (एक-एककर) सज्जन के पास चले आते हैं । नदी का जल समुद्र में जाकर वैसे ही स्थिर हो जाता है, जैसे जीव श्री हरि को पाकर अचल (आवागमन से मुक्त) हो जाता है ॥ ४ ॥

दोहा :

हरित भूमि तृन संकुल समुझि परहिं नहिं पंथ ।
जिमि पाखंड बाद तें गुप्त होहिं सदग्रंथ ॥ १४ ॥

पृथ्वी घास से परिपूर्ण होकर हरी हो गई है, जिससे रास्ते समझ नहीं पड़ते । जैसे पाखंड मत के प्रचार से सद्ग्रंथ गुप्त (लुप्त) हो जाते हैं ॥ १४ ॥

चौपाई :

दादुर धुनि चहु दिसा सुहाई । बेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई ॥
नव पल्लव भए बिटप अनेका । साधक मन जस मिलें बिबेका ॥ १ ॥

चारों दिशाओं में मेंढकों की ध्वनि ऐसी सुहावनी लगती है, मानो विद्यार्थियों के समुदाय वेद पढ़ रहे हों । अनेकों वृक्षों में नए पत्ते आ गए हैं, जिससे वे ऐसे हरे-भरे एवं सुशोभित हो गए हैं जैसे साधक का मन विवेक (ज्ञान) प्राप्त होने पर हो जाता है ॥ १ ॥

अर्क जवास पात बिनु भयऊ । जस सुराज खल उद्यम गयऊ ॥
खोजत कतहुँ मिलइ नहिं धूरी । करइ क्रोध जिमि धरमहि दूरी ॥ २ ॥

मदार और जवासा बिना पत्ते के हो गए (उनके पत्ते झड़ गए) । जैसे श्रेष्ठ राज्य में दुष्टों का उद्यम जाता रहा (उनकी एक भी नहीं चलती) । धूल कहीं खोजने पर भी नहीं मिलती, जैसे क्रोध धर्म को दूर कर देता है । (अर्थात् क्रोध का आवेश होने पर धर्म का ज्ञान नहीं रह जाता) ॥ २ ॥

ससि संपन्न सोह महि कैसी । उपकारी कै संपति जैसी ॥
निसि तम घन खद्योत बिराजा । जनु दंभिन्ह कर मिला समाजा ॥ ३ ॥

अन्न से युक्त (लहराती हुई खेती से हरी-भरी) पृथ्वी कैसी शोभित हो रही है, जैसी उपकारी पुरुष की संपत्ति । रात के घने अंधकार में जुगनू शोभा पा रहे हैं, मानो दम्भियों का समाज आ जुटा हो ॥ ३ ॥

महाबृष्टि चलि फूटि किआरीं । जिमि सुतंत्र भएँ बिगरहिं नारीं ॥
कृषी निरावहिं चतुर किसाना । जिमि बुध तजहिं मोह मद माना ॥ ४ ॥

भारी वर्षा से खेतों की क्यारियाँ फूट चली हैं, जैसे स्वतंत्र होने से स्त्रियाँ बिगड़ जाती हैं । चतुर किसान खेतों को निरा रहे हैं (उनमें से घास आदि को निकालकर फेंक रहे हैं । ) जैसे विद्वान् लोग मोह, मद और मान का त्याग कर देते हैं ॥ ४ ॥

देखिअत चक्रबाक खग नाहीं । कलिहि पाइ जिमि धर्म पराहीं ॥
ऊषर बरषइ तृन नहिं जामा । जिमि हरिजन हियँ उपज न कामा ॥ ५ ॥

चक्रवाक पक्षी दिखाई नहीं दे रहे हैं, जैसे कलियुग को पाकर धर्म भाग जाते हैं । ऊसर में वर्षा होती है, पर वहाँ घास तक नहीं उगती । जैसे हरिभक्त के हृदय में काम नहीं उत्पन्न होता ॥ ५ ॥

बिबिध जंतु संकुल महि भ्राजा । प्रजा बाढ़ जिमि पाइ सुराजा ॥
जहँ तहँ रहे पथिक थकि नाना । जिमि इंद्रिय गन उपजें ग्याना ॥ ६ ॥

पृथ्वी अनेक तरह के जीवों से भरी हुई उसी तरह शोभायमान है, जैसे सुराज्य पाकर प्रजा की वृद्धि होती है । जहाँ-तहाँ अनेक पथिक थककर ठहरे हुए हैं, जैसे ज्ञान उत्पन्न होने पर इंद्रियाँ (शिथिल होकर विषयों की ओर जाना छोड़ देती हैं) ॥ ६ ॥

दोहा :

कबहुँ प्रबल बह मारुत जहँ तहँ मेघ बिलाहिं ।
जिमि कपूत के उपजें कुल सद्धर्म नसाहिं ॥ १५ क ॥

कभी-कभी वायु बड़े जोर से चलने लगती है, जिससे बादल जहाँ-तहाँ गायब हो जाते हैं । जैसे कुपुत्र के उत्पन्न होने से कुल के उत्तम धर्म (श्रेष्ठ आचरण) नष्ट हो जाते हैं ॥ १५ (क) ॥

कबहु दिवस महँ निबिड़ तम कबहुँक प्रगट पतंग ।
बिनसइ उपजइ ग्यान जिमि पाइ कुसंग सुसंग ॥ १५ (ख) ॥

कभी (बादलों के कारण) दिन में घोर अंधकार छा जाता है और कभी सूर्य प्रकट हो जाते हैं । जैसे कुसंग पाकर ज्ञान नष्ट हो जाता है और सुसंग पाकर उत्पन्न हो जाता है ॥ १५ (ख) ॥