चौपाई :

बरषा गत निर्मल रितु आई । सुधि न तात सीता कै पाई ॥
एक बार कैसेहुँ सुधि जानौं । कालुह जीति निमिष महुँ आनौं ॥ १ ॥

वर्षा बीत गई, निर्मल शरद्ऋतु आ गई, परंतु हे तात! सीता की कोई खबर नहीं मिली । एक बार कैसे भी पता पाऊँ तो काल को भी जीतकर पल भर में जानकी को ले आऊँ ॥ १ ॥

कतहुँ रहउ जौं जीवति होई । तात जतन करि आनउँ सोई ॥
सुग्रीवहुँ सुधि मोरि बिसारी । पावा राज कोस पुर नारी ॥ २ ॥

कहीं भी रहे, यदि जीती होगी तो हे तात! यत्न करके मैं उसे अवश्य लाऊँगा । राज्य, खजाना, नगर और स्त्री पा गया, इसलिए सुग्रीव ने भी मेरी सुध भुला दी ॥ २ ॥

जेहिं सायक मारा मैं बाली । तेहिं सर हतौं मूढ़ कहँ काली ॥
जासु कृपाँ छूटहिं मद मोहा । ता कहुँ उमा कि सपनेहुँ कोहा ॥ ३ ॥

जिस बाण से मैंने बालि को मारा था, उसी बाण से कल उस मूढ़ को मारूँ! (शिवजी कहते हैं - ) हे उमा! जिनकी कृपा से मद और मोह छूट जाते हैं उनको कहीं स्वप्न में भी क्रोध हो सकता है? (यह तो लीला मात्र है) ॥ ३ ॥

जानहिं यह चरित्र मुनि ग्यानी । जिन्ह रघुबीर चरन रति मानी ॥
लछिमन क्रोधवंत प्रभु जाना । धनुष चढ़ाई गहे कर बाना ॥ ४ ॥

ज्ञानी मुनि जिन्होंने श्री रघुनाथजी के चरणों में प्रीति मान ली है (जोड़ ली है), वे ही इस चरित्र (लीला रहस्य) को जानते हैं । लक्ष्मणजी ने जब प्रभु को क्रोधयुक्त जाना, तब उन्होंने धनुष चढ़ाकर बाण हाथ में ले लिए ॥ ४ ॥

दोहा :

तब अनुजहि समुझावा रघुपति करुना सींव ।
भय देखाइ लै आवहु तात सखा सुग्रीव ॥ १८ ॥

तब दया की सीमा श्री रघुनाथजी ने छोटे भाई लक्ष्मणजी को समझाया कि हे तात! सखा सुग्रीव को केवल भय दिखलाकर ले आओ (उसे मारने की बात नहीं है) ॥ १८ ॥

चौपाई :

इहाँ पवनसुत हृदयँ बिचारा । राम काजु सुग्रीवँ बिसारा ॥
निकट जाइ चरनन्हि सिरु नावा । चारिहु बिधि तेहि कहि समुझावा ॥ १ ॥

यहाँ (किष्किन्धा नगरी में) पवनकुमार श्री हनुमान् जी ने विचार किया कि सुग्रीव ने श्री रामजी के कार्य को भुला दिया । उन्होंने सुग्रीव के पास जाकर चरणों में सिर नवाया । (साम, दान, दंड, भेद) चारों प्रकार की नीति कहकर उन्हें समझाया ॥ १ ॥

सुनि सुग्रीवँ परम भय माना । बिषयँ मोर हरि लीन्हेउ ग्याना ॥
अब मारुतसुत दूत समूहा । पठवहु जहँ तहँ बानर जूहा ॥ २ ॥

हनुमान् जी के वचन सुनकर सुग्रीव ने बहुत ही भय माना । (और कहा - ) विषयों ने मेरे ज्ञान को हर लिया । अब हे पवनसुत! जहाँ-तहाँ वानरों के यूथ रहते हैं, वहाँ दूतों के समूहों को भेजो ॥ २ ॥

कहहु पाख महुँ आव न जोई । मोरें कर ता कर बध होई ॥
तब हनुमंत बोलाए दूता । सब कर करि सनमान बहूता ॥ ३ ॥

और कहला दो कि एक पखवाड़े में (पंद्रह दिनों में) जो न आ जाएगा, उसका मेरे हाथों वध होगा । तब हनुमान् जी ने दूतों को बुलाया और सबका बहुत सम्मान करके- ॥ ३ ॥

भय अरु प्रीति नीति देखराई । चले सकल चरनन्हि सिर नाई ॥
एहि अवसर लछिमन पुर आए । क्रोध देखि जहँ तहँ कपि धाए ॥ ४ ॥

सबको भय, प्रीति और नीति दिखलाई । सब बंदर चरणों में सिर नवाकर चले । इसी समय लक्ष्मणजी नगर में आए । उनका क्रोध देखकर बंदर जहाँ-तहाँ भागे ॥ ४ ॥

दोहा :

धनुष चढ़ाइ कहा तब जारि करउँ पुर छार ।
ब्याकुल नगर देखि तब आयउ बालिकुमार ॥ १९ ॥

तदनन्तर लक्ष्मणजी ने धनुष चढ़ाकर कहा कि नगर को जलाकर अभी राख कर दूँगा । तब नगरभर को व्याकुल देखकर बालिपुत्र अंगदजी उनके पास आए ॥ १९ ॥

चौपाई :

चर नाइ सिरु बिनती कीन्ही । लछिमन अभय बाँह तेहि दीन्ही ॥
क्रोधवंत लछिमन सुनि काना । कह कपीस अति भयँ अकुलाना ॥ १ ॥

अंगद ने उनके चरणों में सिर नवाकर विनती की (क्षमा-याचना की) तब लक्ष्मणजी ने उनको अभय बाँह दी (भुजा उठाकर कहा कि डरो मत) । सुग्रीव ने अपने कानों से लक्ष्मणजी को क्रोधयुक्त सुनकर भय से अत्यंत व्याकुल होकर कहा - ॥ १ ॥

सुनु हनुमंत संग लै तारा । करि बिनती समुझाउ कुमारा ॥
तारा सहित जाइ हनुमाना । चरन बंदि प्रभु सुजस बखाना ॥ २ ॥

हे हनुमान् सुनो, तुम तारा को साथ ले जाकर विनती करके राजकुमार को समझाओ (समझा-बुझाकर शांत करो) । हनुमान् जी ने तारा सहित जाकर लक्ष्मणजी के चरणों की वंदना की और प्रभु के सुंदर यश का बखान किया ॥ २ ॥

करि बिनती मंदिर लै आए । चरन पखारि पलँग बैठाए ॥
तब कपीस चरनन्हि सिरु नावा । गहि भुज लछिमन कंठ लगावा ॥ ३ ॥

वे विनती करके उन्हें महल में ले आए तथा चरणों को धोकर उन्हें पलँग पर बैठाया । तब वानरराज सुग्रीव ने उनके चरणों में सिर नवाया और लक्ष्मणजी ने हाथ पकड़कर उनको गले से लगा लिया ॥ ३ ॥

नाथ विषय सम मद कछु नाहीं । मुनि मन मोह करइ छन माहीं ।
सुनत बिनीत बचन सुख पावा । लछिमन तेहि बहु बिधि समुझावा ॥ ४ ॥

(सुग्रीव ने कहा - ) हे नाथ! विषय के समान और कोई मद नहीं है । यह मुनियों के मन में भी क्षणमात्र में मोह उत्पन्न कर देता है (फिर मैं तो विषयी जीव ही ठहरा) । सुग्रीव के विनययुक्त वचन सुनकर लक्ष्मणजी ने सुख पाया और उनको बहुत प्रकार से समझाया ॥ ४ ॥

पवन तनय सब कथा सुनाई । जेहि बिधि गए दूत समुदाई ॥ ५ ॥

तब पवनसुत हनुमान् जी ने जिस प्रकार सब दिशाओं में दूतों के समूह गए थे वह सब हाल सुनाया ॥ ५ ॥