चौपाई :

चलत महाधुनि गर्जेसि भारी । गर्भ स्रवहिं सुनि निसिचर नारी ॥
नाघि सिंधु एहि पारहि आवा । सबद किलिकिला कपिन्ह सुनावा ॥ १ ॥

चलते समय उन्होंने महाध्वनि से भारी गर्जन किया, जिसे सुनकर राक्षसों की स्त्रियों के गर्भ गिरने लगे । समुद्र लाँघकर वे इस पार आए और उन्होंने वानरों को किलकिला शब्द (हर्षध्वनि) सुनाया ॥ १ ॥

हरषे सब बिलोकि हनुमाना । नूतन जन्म कपिन्ह तब जाना ॥
मुख प्रसन्न तन तेज बिराजा । कीन्हेसि रामचंद्र कर काजा ॥ २ ॥

हनुमान् जी को देखकर सब हर्षित हो गए और तब वानरों ने अपना नया जन्म समझा । हनुमान् जी का मुख प्रसन्न है और शरीर में तेज विराजमान है, (जिससे उन्होंने समझ लिया कि) ये श्री रामचंद्रजी का कार्य कर आए हैं ॥ २ ॥

मिले सकल अति भए सुखारी । तलफत मीन पाव जिमि बारी ॥
चले हरषि रघुनायक पासा । पूँछत कहत नवल इतिहासा ॥ ३ ॥

सब हनुमान् जी से मिले और बहुत ही सुखी हुए, जैसे तड़पती हुई मछली को जल मिल गया हो । सब हर्षित होकर नए-नए इतिहास (वृत्तांत) पूछते- कहते हुए श्री रघुनाथजी के पास चले ॥ ३ ॥

तब मधुबन भीतर सब आए । अंगद संमत मधु फल खाए ॥
रखवारे जब बरजन लागे । मुष्टि प्रहार हनत सब भागे ॥ ४ ॥

तब सब लोग मधुवन के भीतर आए और अंगद की सम्मति से सबने मधुर फल (या मधु और फल) खाए । जब रखवाले बरजने लगे, तब घूँसों की मार मारते ही सब रखवाले भाग छूटे ॥ ४ ॥

दोहा :

जाइ पुकारे ते सब बन उजार जुबराज ।
सुनि सुग्रीव हरष कपि करि आए प्रभु काज ॥ २८ ॥

उन सबने जाकर पुकारा कि युवराज अंगद वन उजाड़ रहे हैं । यह सुनकर सुग्रीव हर्षित हुए कि वानर प्रभु का कार्य कर आए हैं ॥ २८ ॥

चौपाई :

जौं न होति सीता सुधि पाई । मधुबन के फल सकहिं कि काई ॥
एहि बिधि मन बिचार कर राजा । आइ गए कपि सहित समाजा ॥ १ ॥

यदि सीताजी की खबर न पाई होती तो क्या वे मधुवन के फल खा सकते थे? इस प्रकार राजा सुग्रीव मन में विचार कर ही रहे थे कि समाज सहित वानर आ गए ॥ १ ॥

आइ सबन्हि नावा पद सीसा । मिलेउ सबन्हि अति प्रेम कपीसा ॥
पूँछी कुसल कुसल पद देखी । राम कृपाँ भा काजु बिसेषी ॥ २ ॥

(सबने आकर सुग्रीव के चरणों में सिर नवाया । कपिराज सुग्रीव सभी से बड़े प्रेम के साथ मिले । उन्होंने कुशल पूछी, (तब वानरों ने उत्तर दिया-) आपके चरणों के दर्शन से सब कुशल है । श्री रामजी की कृपा से विशेष कार्य हुआ (कार्य में विशेष सफलता हुई है) ॥ २ ॥

नाथ काजु कीन्हेउ हनुमाना । राखे सकल कपिन्ह के प्राना ॥
सुनि सुग्रीव बहुरि तेहि मिलेऊ कपिन्ह सहित रघुपति पहिं चलेऊ ॥ ३ ॥

हे नाथ! हनुमान ने सब कार्य किया और सब वानरों के प्राण बचा लिए । यह सुनकर सुग्रीवजी हनुमान् जी से फिर मिले और सब वानरों समेत श्री रघुनाथजी के पास चले ॥ ३ ॥

राम कपिन्ह जब आवत देखा । किएँ काजु मन हरष बिसेषा ॥
फटिक सिला बैठे द्वौ भाई । परे सकल कपि चरनन्हि जाई ॥ ४ ॥

श्री रामजी ने जब वानरों को कार्य किए हुए आते देखा तब उनके मन में विशेष हर्ष हुआ । दोनों भाई स्फटिक शिला पर बैठे थे । सब वानर जाकर उनके चरणों पर गिर पड़े ॥ ४ ॥

दोहा :

प्रीति सहित सब भेंटे रघुपति करुना पुंज ॥
पूछी कुसल नाथ अब कुसल देखि पद कंज ॥ २९ ॥

दया की राशि श्री रघुनाथजी सबसे प्रेम सहित गले लगकर मिले और कुशल पूछी । (वानरों ने कहा - ) हे नाथ! आपके चरण कमलों के दर्शन पाने से अब कुशल है ॥ २९ ॥

चौपाई :

जामवंत कह सुनु रघुराया । जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया ॥
ताहि सदा सुभ कुसल निरंतर । सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर ॥ १ ॥

जाम्बवान् ने कहा - हे रघुनाथजी! सुनिए । हे नाथ! जिस पर आप दया करते हैं, उसे सदा कल्याण और निरंतर कुशल है । देवता, मनुष्य और मुनि सभी उस पर प्रसन्न रहते हैं ॥ १ ॥

सोइ बिजई बिनई गुन सागर । तासु सुजसु त्रैलोक उजागर ॥
प्रभु कीं कृपा भयउ सबु काजू । जन्म हमार सुफल भा आजू ॥ २ ॥

वही विजयी है, वही विनयी है और वही गुणों का समुद्र बन जाता है । उसी का सुंदर यश तीनों लोकों में प्रकाशित होता है । प्रभु की कृपा से सब कार्य हुआ । आज हमारा जन्म सफल हो गया ॥ २ ॥

नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी । सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी ॥
पवनतनय के चरित सुहाए । जामवंत रघुपतिहि सुनाए ॥ ३ ॥

हे नाथ! पवनपुत्र हनुमान् ने जो करनी की, उसका हजार मुखों से भी वर्णन नहीं किया जा सकता । तब जाम्बवान् ने हनुमान् जी के सुंदर चरित्र (कार्य) श्री रघुनाथजी को सुनाए ॥ ३ ॥

सुनत कृपानिधि मन अति भाए । पुनि हनुमान हरषि हियँ लाए ॥
कहहु तात केहि भाँति जानकी । रहति करति रच्छा स्वप्रान की ॥ ४ ॥

(वे चरित्र) सुनने पर कृपानिधि श्री रामचंदजी के मन को बहुत ही अच्छे लगे । उन्होंने हर्षित होकर हनुमान् जी को फिर हृदय से लगा लिया और कहा - हे तात! कहो, सीता किस प्रकार रहती और अपने प्राणों की रक्षा करती हैं? ॥ ४ ॥

दोहा :

नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट ।
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट ॥ ३० ॥

(हनुमान् जी ने कहा - ) आपका नाम रात-दिन पहरा देने वाला है, आपका ध्यान ही किंवाड़ है । नेत्रों को अपने चरणों में लगाए रहती हैं, यही ताला लगा है, फिर प्राण जाएँ तो किस मार्ग से? ॥ ३० ॥

चौपाई :

चलत मोहि चूड़ामनि दीन्हीं । रघुपति हृदयँ लाइ सोइ लीन्ही ॥
नाथ जुगल लोचन भरि बारी । बचन कहे कछु जनककुमारी ॥ १ ॥

चलते समय उन्होंने मुझे चूड़ामणि (उतारकर) दी । श्री रघुनाथजी ने उसे लेकर हृदय से लगा लिया । (हनुमान् जी ने फिर कहा - ) हे नाथ! दोनों नेत्रों में जल भरकर जानकीजी ने मुझसे कुछ वचन कहे - ॥ १ ॥

अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना । दीन बंधु प्रनतारति हरना ॥
मन क्रम बचन चरन अनुरागी । केहिं अपराध नाथ हौं त्यागी ॥ २ ॥

छोटे भाई समेत प्रभु के चरण पकड़ना (और कहना कि) आप दीनबंधु हैं, शरणागत के दुःखों को हरने वाले हैं और मैं मन, वचन और कर्म से आपके चरणों की अनुरागिणी हूँ । फिर स्वामी (आप) ने मुझे किस अपराध से त्याग दिया? ॥ २ ॥

अवगुन एक मोर मैं माना । बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना ॥
नाथ सो नयनन्हि को अपराधा । निसरत प्रान करहिं हठि बाधा ॥ ३ ॥

(हाँ) एक दोष मैं अपना (अवश्य) मानती हूँ कि आपका वियोग होते ही मेरे प्राण नहीं चले गए, किंतु हे नाथ! यह तो नेत्रों का अपराध है जो प्राणों के निकलने में हठपूर्वक बाधा देते हैं ॥ ३ ॥

बिरह अगिनि तनु तूल समीरा । स्वास जरइ छन माहिं सरीरा ॥
नयन स्रवहिं जलु निज हित लागी । जरैं न पाव देह बिरहागी ॥ ४ ॥

विरह अग्नि है, शरीर रूई है और श्वास पवन है, इस प्रकार (अग्नि और पवन का संयोग होने से) यह शरीर क्षणमात्र में जल सकता है, परंतु नेत्र अपने हित के लिए प्रभु का स्वरूप देखकर (सुखी होने के लिए) जल (आँसू) बरसाते हैं, जिससे विरह की आग से भी देह जलने नहीं पाती ॥ ४ ॥

सीता कै अति बिपति बिसाला । बिनहिं कहें भलि दीनदयाला ॥ ५ ॥

सीताजी की विपत्ति बहुत बड़ी है । हे दीनदयालु! वह बिना कही ही अच्छी है (कहने से आपको बड़ा क्लेश होगा) ॥ ५ ॥

दोहा :

निमिष निमिष करुनानिधि जाहिं कलप सम बीति ।
बेगि चलिअ प्रभु आनिअ भुज बल खल दल जीति ॥ ३१ ॥

हे करुणानिधान! उनका एक-एक पल कल्प के समान बीतता है । अतः हे प्रभु! तुरंत चलिए और अपनी भुजाओं के बल से दुष्टों के दल को जीतकर सीताजी को ले आइए ॥ ३१ ॥

चौपाई :

सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना । भरि आए जल राजिव नयना ॥
बचन कायँ मन मम गति जाही । सपनेहुँ बूझिअ बिपति कि ताही ॥ १ ॥

सीताजी का दुःख सुनकर सुख के धाम प्रभु के कमल नेत्रों में जल भर आया (और वे बोले - ) मन, वचन और शरीर से जिसे मेरी ही गति (मेरा ही आश्रय) है, उसे क्या स्वप्न में भी विपत्ति हो सकती है? ॥ १ ॥

कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई । जब तव सुमिरन भजन न होई ॥
केतिक बात प्रभु जातुधान की । रिपुहि जीति आनिबी जानकी ॥ २ ॥

हनुमान् जी ने कहा - हे प्रभु! विपत्ति तो वही (तभी) है जब आपका भजन-स्मरण न हो । हे प्रभो! राक्षसों की बात ही कितनी है? आप शत्रु को जीतकर जानकीजी को ले आवेंगे ॥ २ ॥

सुनु कपि तोहि समान उपकारी । नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी ॥
प्रति उपकार करौं का तोरा । सनमुख होइ न सकत मन मोरा ॥ ३ ॥

(भगवान् कहने लगे-) हे हनुमान्! सुन, तेरे समान मेरा उपकारी देवता, मनुष्य अथवा मुनि कोई भी शरीरधारी नहीं है । मैं तेरा प्रत्युपकार (बदले में उपकार) तो क्या करूँ, मेरा मन भी तेरे सामने नहीं हो सकता ॥ ३ ॥

सुनु सुत तोहि उरिन मैं नाहीं । देखेउँ करि बिचार मन माहीं ॥
पुनि पुनि कपिहि चितव सुरत्राता । लोचन नीर पुलक अति गाता ॥ ४ ॥

हे पुत्र! सुन, मैंने मन में (खूब) विचार करके देख लिया कि मैं तुझसे उऋण नहीं हो सकता । देवताओं के रक्षक प्रभु बार-बार हनुमान् जी को देख रहे हैं । नेत्रों में प्रेमाश्रुओं का जल भरा है और शरीर अत्यंत पुलकित है ॥ ४ ॥

दोहा :

सुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख गात हरषि हनुमंत ।
चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत ॥ ३२ ॥

प्रभु के वचन सुनकर और उनके (प्रसन्न) मुख तथा (पुलकित) अंगों को देखकर हनुमान् जी हर्षित हो गए और प्रेम में विकल होकर ‘हे भगवन्! मेरी रक्षा करो, रक्षा करो’ कहते हुए श्री रामजी के चरणों में गिर पड़े ॥ ३२ ॥

चौपाई :

बार बार प्रभु चहइ उठावा । प्रेम मगन तेहि उठब न भावा ॥
प्रभु कर पंकज कपि कें सीसा । सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा ॥ १ ॥

प्रभु उनको बार-बार उठाना चाहते हैं, परंतु प्रेम में डूबे हुए हनुमान् जी को चरणों से उठना सुहाता नहीं । प्रभु का करकमल हनुमान् जी के सिर पर है । उस स्थिति का स्मरण करके शिवजी प्रेममग्न हो गए ॥ १ ॥

सावधान मन करि पुनि संकर । लागे कहन कथा अति सुंदर ॥
कपि उठाई प्रभु हृदयँ लगावा । कर गहि परम निकट बैठावा ॥ २ ॥

फिर मन को सावधान करके शंकरजी अत्यंत सुंदर कथा कहने लगे- हनुमान् जी को उठाकर प्रभु ने हृदय से लगाया और हाथ पकड़कर अत्यंत निकट बैठा लिया ॥ २ ॥

कहु कपि रावन पालित लंका । केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका ॥
प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना । बोला बचन बिगत अभिमाना ॥ ३ ॥

हे हनुमान्! बताओ तो, रावण के द्वारा सुरक्षित लंका और उसके बड़े बाँके किले को तुमने किस तरह जलाया? हनुमान् जी ने प्रभु को प्रसन्न जाना और वे अभिमानरहित वचन बोले - ॥ ३ ॥

साखामग कै बड़ि मनुसाई । साखा तें साखा पर जाई ॥
नाघि सिंधु हाटकपुर जारा । निसिचर गन बधि बिपिन उजारा ॥ ४ ॥

बंदर का बस, यही बड़ा पुरुषार्थ है कि वह एक डाल से दूसरी डाल पर चला जाता है । मैंने जो समुद्र लाँघकर सोने का नगर जलाया और राक्षसगण को मारकर अशोक वन को उजाड़ डाला, ॥ ४ ॥

सो सब तव प्रताप रघुराई । नाथ न कछू मोरि प्रभुताई ॥ ५ ॥

यह सब तो हे श्री रघुनाथजी! आप ही का प्रताप है । हे नाथ! इसमें मेरी प्रभुता (बड़ाई) कुछ भी नहीं है ॥ ५ ॥

दोहा :

ता कहुँ प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकूल ।
तव प्रभावँ बड़वानलहि जारि सकइ खलु तूल ॥ ३३ ॥

हे प्रभु! जिस पर आप प्रसन्न हों, उसके लिए कुछ भी कठिन नहीं है । आपके प्रभाव से रूई (जो स्वयं बहुत जल्दी जल जाने वाली वस्तु है) बड़वानल को निश्चय ही जला सकती है (अर्थात् असंभव भी संभव हो सकता है) ॥ ३ ॥

चौपाई :

नाथ भगति अति सुखदायनी । देहु कृपा करि अनपायनी ॥
सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी । एवमस्तु तब कहेउ भवानी ॥ १ ॥

हे नाथ! मुझे अत्यंत सुख देने वाली अपनी निश्चल भक्ति कृपा करके दीजिए । हनुमान् जी की अत्यंत सरल वाणी सुनकर, हे भवानी! तब प्रभु श्री रामचंद्रजी ने ‘एवमस्तु’ (ऐसा ही हो) कहा ॥ १ ॥

उमा राम सुभाउ जेहिं जाना । ताहि भजनु तजि भाव न आना ॥
यह संबाद जासु उर आवा । रघुपति चरन भगति सोइ पावा ॥ २ ॥

हे उमा! जिसने श्री रामजी का स्वभाव जान लिया, उसे भजन छोड़कर दूसरी बात ही नहीं सुहाती । यह स्वामी-सेवक का संवाद जिसके हृदय में आ गया, वही श्री रघुनाथजी के चरणों की भक्ति पा गया ॥ २ ॥

सुनि प्रभु बचन कहहिं कपि बृंदा । जय जय जय कृपाल सुखकंदा ॥
तब रघुपति कपिपतिहि बोलावा । कहा चलैं कर करहु बनावा ॥ ३ ॥

प्रभु के वचन सुनकर वानरगण कहने लगे- कृपालु आनंदकंद श्री रामजी की जय हो जय हो, जय हो! तब श्री रघुनाथजी ने कपिराज सुग्रीव को बुलाया और कहा - चलने की तैयारी करो ॥ ३ ॥

अब बिलंबु केह कारन कीजे । तुरंत कपिन्ह कहँ आयसु दीजे ॥
कौतुक देखि सुमन बहु बरषी । नभ तें भवन चले सुर हरषी ॥ ४ ॥

अब विलंब किस कारण किया जाए । वानरों को तुरंत आज्ञा दो । (भगवान् की) यह लीला (रावणवध की तैयारी) देखकर, बहुत से फूल बरसाकर और हर्षित होकर देवता आकाश से अपने-अपने लोक को चले ॥ ४ ॥