दोहा :

प्रभु तुम्हार कुलगुर जलधि कहिहि उपाय बिचारि ॥
बिनु प्रयास सागर तरिहि सकल भालु कपि धारि ॥ ५० ॥

हे प्रभु! समुद्र आपके कुल में बड़े (पूर्वज) हैं, वे विचारकर उपाय बतला देंगे । तब रीछ और वानरों की सारी सेना बिना ही परिश्रम के समुद्र के पार उतर जाएगी ॥ ५० ॥

चौपाई :

सखा कही तुम्ह नीति उपाई । करिअ दैव जौं होइ सहाई ।
मंत्र न यह लछिमन मन भावा । राम बचन सुनि अति दुख पावा ॥ १ ॥

(श्री रामजी ने कहा - ) हे सखा! तुमने अच्छा उपाय बताया । यही किया जाए, यदि दैव सहायक हों । यह सलाह लक्ष्मणजी के मन को अच्छी नहीं लगी । श्री रामजी के वचन सुनकर तो उन्होंने बहुत ही दुःख पाया ॥ १ ॥

नाथ दैव कर कवन भरोसा । सोषिअ सिंधु करिअ मन रोसा ॥
कादर मन कहुँ एक अधारा । दैव दैव आलसी पुकारा ॥ २ ॥

(लक्ष्मणजी ने कहा - ) हे नाथ! दैव का कौन भरोसा! मन में क्रोध कीजिए (ले आइए) और समुद्र को सुखा डालिए । यह दैव तो कायर के मन का एक आधार (तसल्ली देने का उपाय) है । आलसी लोग ही दैव-दैव पुकारा करते हैं ॥ २ ॥

सुनत बिहसि बोले रघुबीरा । ऐसेहिं करब धरहु मन धीरा ॥
अस कहि प्रभु अनुजहि समुझाई । सिंधु समीप गए रघुराई ॥ ३ ॥

यह सुनकर श्री रघुवीर हँसकर बोले - ऐसे ही करेंगे, मन में धीरज रखो । ऐसा कहकर छोटे भाई को समझाकर प्रभु श्री रघुनाथजी समुद्र के समीप गए ॥ ३ ॥

प्रथम प्रनाम कीन्ह सिरु नाई । बैठे पुनि तट दर्भ डसाई ॥
जबहिं बिभीषन प्रभु पहिं आए । पाछें रावन दूत पठाए ॥ ४ ॥

उन्होंने पहले सिर नवाकर प्रणाम किया । फिर किनारे पर कुश बिछाकर बैठ गए । इधर ज्यों ही विभीषणजी प्रभु के पास आए थे, त्यों ही रावण ने उनके पीछे दूत भेजे थे ॥ ५१ ॥

दोहा :

सकल चरित तिन्ह देखे धरें कपट कपि देह ।
प्रभु गुन हृदयँ सराहहिं सरनागत पर नेह ॥ ५१ ॥

कपट से वानर का शरीर धारण कर उन्होंने सब लीलाएँ देखीं । वे अपने हृदय में प्रभु के गुणों की और शरणागत पर उनके स्नेह की सराहना करने लगे ॥ ५१ ॥

चौपाई :

प्रगट बखानहिं राम सुभाऊ । अति सप्रेम गा बिसरि दुराऊ ॥
रिपु के दूत कपिन्ह तब जाने । सकल बाँधि कपीस पहिं आने ॥ १ ॥

फिर वे प्रकट रूप में भी अत्यंत प्रेम के साथ श्री रामजी के स्वभाव की बड़ाई करने लगे उन्हें दुराव (कपट वेश) भूल गया । सब वानरों ने जाना कि ये शत्रु के दूत हैं और वे उन सबको बाँधकर सुग्रीव के पास ले आए ॥ १ ॥

कह सुग्रीव सुनहु सब बानर । अंग भंग करि पठवहु निसिचर ॥
सुनि सुग्रीव बचन कपि धाए । बाँधि कटक चहु पास फिराए ॥ २ ॥

सुग्रीव ने कहा - सब वानरों! सुनो, राक्षसों के अंग-भंग करके भेज दो । सुग्रीव के वचन सुनकर वानर दौड़े । दूतों को बाँधकर उन्होंने सेना के चारों ओर घुमाया ॥ २ ॥

बहु प्रकार मारन कपि लागे । दीन पुकारत तदपि न त्यागे ॥
जो हमार हर नासा काना । तेहि कोसलाधीस कै आना ॥ ३ ॥

वानर उन्हें बहुत तरह से मारने लगे । वे दीन होकर पुकारते थे, फिर भी वानरों ने उन्हें नहीं छोड़ा । (तब दूतों ने पुकारकर कहा - ) जो हमारे नाक-कान काटेगा, उसे कोसलाधीश श्री रामजी की सौगंध है ॥ ३ ॥

सुनि लछिमन सब निकट बोलाए । दया लागि हँसि तुरत छोड़ाए ॥
रावन कर दीजहु यह पाती । लछिमन बचन बाचु कुलघाती ॥ ४ ॥

यह सुनकर लक्ष्मणजी ने सबको निकट बुलाया । उन्हें बड़ी दया लगी, इससे हँसकर उन्होंने राक्षसों को तुरंत ही छुड़ा दिया । (और उनसे कहा - ) रावण के हाथ में यह चिट्ठी देना (और कहना-) हे कुलघातक! लक्ष्मण के शब्दों (संदेसे) को बाँचो ॥ ४ ॥

दोहा :

कहेहु मुखागर मूढ़ सन मम संदेसु उदार ।
सीता देइ मिलहु न त आवा कालु तुम्हार ॥ ५२ ॥

फिर उस मूर्ख से जबानी यह मेरा उदार (कृपा से भरा हुआ) संदेश कहना कि सीताजी को देकर उनसे (श्री रामजी से) मिलो, नहीं तो तुम्हारा काल आ गया (समझो) ॥ ५२ ॥

चौपाई :

तुरत नाइ लछिमन पद माथा । चले दूत बरनत गुन गाथा ॥
कहत राम जसु लंकाँ आए । रावन चरन सीस तिन्ह नाए ॥ १ ॥

लक्ष्मणजी के चरणों में मस्तक नवाकर, श्री रामजी के गुणों की कथा वर्णन करते हुए दूत तुरंत ही चल दिए । श्री रामजी का यश कहते हुए वे लंका में आए और उन्होंने रावण के चरणों में सिर नवाए ॥ १ ॥

बिहसि दसानन पूँछी बाता । कहसि न सुक आपनि कुसलाता ॥
पुन कहु खबरि बिभीषन केरी । जाहि मृत्यु आई अति नेरी ॥ २ ॥

दशमुख रावण ने हँसकर बात पूछी- अरे शुक! अपनी कुशल क्यों नहीं कहता? फिर उस विभीषण का समाचार सुना, मृत्यु जिसके अत्यंत निकट आ गई है ॥ २ ॥

करत राज लंका सठ त्यागी । होइहि जव कर कीट अभागी ॥
पुनि कहु भालु कीस कटकाई । कठिन काल प्रेरित चलि आई ॥ ३ ॥

मूर्ख ने राज्य करते हुए लंका को त्याग दिया । अभागा अब जौ का कीड़ा (घुन) बनेगा (जौ के साथ जैसे घुन भी पिस जाता है, वैसे ही नर वानरों के साथ वह भी मारा जाएगा), फिर भालु और वानरों की सेना का हाल कह, जो कठिन काल की प्रेरणा से यहाँ चली आई है ॥ ३ ॥

जिन्ह के जीवन कर रखवारा । भयउ मृदुल चित सिंधु बिचारा ॥
कहु तपसिन्ह कै बात बहोरी । जिन्ह के हृदयँ त्रास अति मोरी ॥ ४ ॥

और जिनके जीवन का रक्षक कोमल चित्त वाला बेचारा समुद्र बन गया है (अर्थात्) उनके और राक्षसों के बीच में यदि समुद्र न होता तो अब तक राक्षस उन्हें मारकर खा गए होते । फिर उन तपस्वियों की बात बता, जिनके हृदय में मेरा बड़ा डर है ॥ ४ ॥